सांप्रदायिक फ़ासीवाद का उभार और लेखकीय प्रतिरोध का समय
चंचल चौहान
निराला की एक कविता है : 'राजे
ने अपनी रखवाली की।‘ यह साफ़तौर पर वर्ग-विभाजित समाज में शोषकवर्ग के वर्चस्व से
जुड़ी असलियत खोलती है। वाचक ने इस कविता में शोषण के वर्ग आधार और उस पर खड़ी
संरचना या सुपरस्ट्र्क्चर के चरित्र को उदघाटित किया है। राजा अपनी रखवाली कि़ला
बनाकर, फ़ौजें रखकर तो करता ही है, वह आम जनता को
मानसिक रूप से गुलाम बनाकर भी शासन करता रहता है :
कितने ब्राहमण आये
पोथियों में जनता को बांधे हुए
कवियों ने उसकी बहादुरी के गीत गाये
लेखकों ने लेख लिखे
ऐतिहासिकों ने इतिहास के पन्ने भरे
कितने नाटय-कलाकारों ने नाटक रचे
रंगमंच पर खेले ।
जनता पर जादू चला -- राजे के समाज का
समाज के मूलभूत आर्थिक आधार और उसे सहारा देने वाली
उपरिसंरचना की यही असलियत हमें मुकितबोध की कविता, ‘अंधेरे में’ के केंद्र में देखने को
मिलती है जिसमें रात के अंधेरे में सड़क पर चलने वाले शोषकों के जुलूस में जो
शामिल हैं, वे सुपरस्ट्र्क्चर का ही रूप हैं। हिंदी
के इन दो महान कवियों की ये कविताएं एक वैज्ञानिक सत्य कहती हैं कि वर्गविभक्त
समाज में शोषकवर्ग अपने शोषणपरंपराक्रम को जारी रखने की कोशिश में तरह तरह के खेल
खेलता है। पूंजीवाद अपनी इज़ारेदाराना करतूतों से समाज के विशाल हिस्से का शोषण
करके उसे इतना ग़रीब बना देता है कि शोषितजन उत्पादन की प्रक्रिया में अलग थलग पड़
जाते हैं और उनके पास कुछ भी ख़रीदने की ताक़त नहीं बच पाती। ऐसे मोड़ पर पूंजीवाद
भी भयंकर संकट की चपेट में आ जाता है और तब इजारेदार पूंजीपतिवर्ग शोषित अवाम
के सामने फ़ासीवाद का तंत्र पेश करता है। इसलिए समाजशास्त्रियों
ने फ़ासीवाद की परिभाषा करते हुए यह बताया है कि फ़ासीवाद वित्तीय पूंजी का सबसे
घिनौना रूप है। यही घिनौना रूप पिछली सदी के चौथे दशक में भयंकर आर्थिक संकट और
मंदी के दौर में विश्वपूंजीवाद ने जर्मनी में हिटलर के रूप में उभारा था जिसने
प्रजाति के मिथ्या आधार पर मानवता को बांट कर इस सुंदर धरती को मानवरक्त से रंग
डाला था। फ़ासीवाद के घिनौने रूप के प्रतिरोध में उन दिनों दुनिया भर के लेखक, कलाकार, बुद्धिजीवी और
संस्कृतिकर्मी संगठित हो कर मानवता को बचाने के अभियान में शामिल ही नहीं हुए, कुछ एक ने तो
उनके खि़लाफ़ जंग में हिस्सेदारी करके अपने प्राणों की कुरबानी तक दे दी। भारत के
भी कर्इ रचनाकार उस प्रतिरोध में शामिल हुए और उसी से प्रेरणा ले कर उन्होंने
प्रगतिशील लेखक संघ के रूप में लेखकों को संगठित करने की अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी
भी निभायी। हम उन महान रचनाकारों की गौरवपूर्ण परंपरा की मशाल भला कैसे बुझ जाने
देंगे! इसलिए दुनिया के किसी भी कोने में अगर फ़ासीवाद अपना सिर उठायेगा, तो हम उसके
प्रतिरोध में आगे ज़रूर आयेंगे, हमें आगे आना ही चाहिए।
आज हमारे देश और समाज पर इज़़ारेदार पूंजीपतिवर्ग और
बड़े भूस्वामियों के ऐसे गठजोड़ का शासन चल रहा है जो अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय
पूंजी से समझौता करके उसकी बतायी गयी रीतिनीति पर चल रहा है जिसे हम भूमंडलीकरण और
उदारीकरण की रीतिनीति के नाम से जानते हैं। इन दोनों नारों का सारतत्व यह है कि
उत्पादन के साधनों और वित्तीय संस्थानों पर निजी पूंजी का वर्चस्व हो जाये, जनता की खूनपसीने
की कमार्इ से बनाये गये पब्लिक सेक्टर इन्हीं देशी विदेशी इजारेदारों को बेच दिये
जायें, राष्ट्रराज्य समाजकल्याण के कामों पर पैसा
खर्च न करे। हर
सेवा के लिए अवाम पैसा खर्च करे जिससे हर सेवा से निजी पूंजीपतिवर्ग ज़्यादा से ज़्यादा
मुनाफ़ा कमा सके। मेहनतकशों और शोषित समाज को संगठित न होने दिया जाये। जहां संगठित हैं, उन पर हमले किये जायें और किसी तरह
उन्हें असंगठित क्षेत्र में धकेल दिया जाये। समाज पर राजनीतिक कब्ज़ा किसी पार्टी
का हो, नीतियां
इज़ारेदार पूंजीपतिवर्ग और उसकी सहयोगी शकित अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी को
फ़ायदा पहुंचाने वाली ही रहें। अगर आप सांपनाथ
से परेशान हो जायें, तो नागनाथ को चुन लें। ये ‘नमो’ नाम के नागनाथ भी उन्हीं
इज़ारेदारों के ज़रख़रीद गुलाम हैं जिनकी सेवा में अब तक सांपनाथ लगे रहे। अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी यानी आइ
एम एफ़ और विश्वबैंक ने अपने दो जानसेवक - प्रधानमंत्री और योजना आयोग के चेयरमैन
- भारत के प्रशासन में दाखि़ाल कराये जिससे साम्राज्यवादी ताक़तों के हितों को
कोर्इ नुक़सान न पहुंचे। अभी हाल में रिज़़र्व बैंक के गवर्नर भी उन्हीं शक्तियों
ने सप्लार्इ किये हैं। वे 2003 से 2006 तक आइ एम एफ़ की सेवा में प्रमुख अर्थशास्त्री
के पद पर काम कर चुके हैं।
इन सबकी नीतियों से भारत के ग़रीब और
बदहाल हो गये। उनमें
एक गुस्सा पनप रहा है। यह
गुस्सा आजकल कहीं न कहीं तरह तरह से फट पड़ता है। इस गुस्से को देखते हुए वे ही शक्तियां
जो कल तक सांपनाथ के माध्यम से अवाम का खून चूस रही थीं, अब एक नया विकल्प
‘नमो’
नामक नागनाथ के रूप में पेश कर रही हैं। सांप्रदायिक
फ़़ासीवादी संगठन, आर एस एस का चहेता यह नागनाथ सभी शहरों
में जा जा कर फुंकार भर रहा है। वही लफ्फ़ाजी कर रहा है जो दुनियाभर के
फ़ासिस्ट करते रहे हैं और जो अपनी रीतिनीति में लोकतंत्रविरोधी
कार्रवाइयां करते रहे हैं। वह चिल्ला चिल्ला कर कह रहा है कि ‘सरकार का काम व्यापार करना नहीं, सारा व्यापार, सारे कल कारखाने
निजी पूंजीपतियों को दे देंगे जिससे वे मनमाना मुनाफा कमा सकें। नेहरू का ‘समाजवाद’
नहीं चलने देंगे। वह प्रधानमंत्री अभी बना नहीं, निजीकरण का ढोल
कांग्रेस के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा ज़ोर से पीट रहा है। उसने गुजरात के एक उत्सव
में देशी विदेशी पूंजीपतियों की ख़ातिरदारी की और उन्हें आश्वस्त किया कि उनका
हितसाधन पूरी तरह से यह पूंजीदास करेगा।
इजारेदार
पूंजीपति किस तरह इस सांप्रदायिक फासीवादी नागनाथ को मीडिया पर उभार रहे हैं, यह सत्य किसी से
छिपा नहीं है। इंटरनेट की दुनिया में यह छल छिपाया भी नहीं जा सकता। ‘रायटर’ नामक
एक विदेशी न्यूज़एजेंसी ने इन नागनाथ की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की घोषणा से
पहले ही 7
सितंबर को संजय मिगलानी की एक रिपोर्ट छापी जो इंटरनेट पर भी उपलब्ध है जिसमें कहा
गया है कि भारत के तीन चौथार्इ इज़ारेदार पूंजीपति इस भाजपायी नागनाथ को
प्रधानमंत्री पद पर आसीन देखना चाहते हैं। इन पूंजीपतियों के इंटरव्यू टीवी चैनलों
पर भी आ रहे हैं जो बिना लागलपेट ‘नमो’ नागनाथ के प्रति अपने प्यार का इज़हार करते रहते
हैं।
सांप्रदायिक फ़ासीवाद की विचारधारा का उभार भारत की आज़़ादी के दौर में विकसित
मानवीय मूल्यों के विनाश का कारण बन सकता है। भारत की सदियों की साझा संस्कृति के
भावी विकास से ही हम एक आधुनिक सभ्य समाज की रचना कर सकते हैं। हमारे इस अभियान को
ऐसी ताक़तों से कहीं ज़्यादा ख़तरा है जिनका जनवाद में विश्वास ही नहीं। सांप्रदायिक
ध्रुवीकरण करने के इरादे से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जगह जगह सांप्रदायिक सदभाव
की हत्या करने में अभी से लग गया है। यूपी जैसे हिंदी-उर्दूभाषी क्षेत्र में जहां उनकी
सरकार नहीं हैं और
जहां पिछले चुनावों में उनको कामयाबी नहीं हासिल हो पायी, यह फ़ासीवादी
संगठन पूरी ताक़त से सांप्रदायिक ज़हर फैलाने की कोशिश करने में लग गया है क्योंकि
लोकसभा की अस्सी सीटों वाले उत्तर प्रदेश में सफलता हासिल किये बग़़ैर नागनाथ को
प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचान मुमकिन नहीं। आडवाणी जी वाला
ही हाल होना है इसलिए
संघ यूपी के अवाम के दिलोदिमाग़ में सांप्रदायिक ज़हर भर कर सत्ता हथियाने की
जीजान से कोशिश करने में लग गया है। आज भाजपायी अचानक फिर से धर्मधुरंधर हो उठे
हैं, फिर
से मंदिर की अचानक याद आ गयी है, राममंदिर के नाम से करोड़ो रुपये डकार
जाने के बाद भूली बिसरी बेचारी अयोध्या की याद फिर से आ गयी है। उसकी चौरासी कोसी
यात्रा के बहाने धार्मिक भावनाओं का दोहन करने की योजना आदि उसी मक़सद के अक्स
हैं।
यह तथ्य
किसी से छिपा नहीं कि आर एस एस लोकतंत्रविरोधी संगठन है। उसी का यह सबूत है कि
चुनाव से पहले ही किसी व्यक्ति को भारत के भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश कर
दिया जाये। यह क़दम भारत के संविधान की धारा 75 का उल्लंघन करता है जिसमें यह लिखा है
कि “The Prime
Minister shall be appointed by the President and the other Ministers shall be
appointed by the President on the advice of the Prime Minister.”(Article 75)। भारत का संविधान किसी पार्टी
प्रेसिडेंट को यह अनुमति नहीं देता कि वह भारत के प्रधानमंत्री के नाम की घोषणा
करे। मगर बेचारा पार्टी प्रेसिडेंट भी क्या करे, वह तो आर एस एस
का ज़रखरीद गुलाम है, हुक्मउदूली करता तो मारा जाता। जो संगठन
गांधी जी जैसे महान व्यक्ति की हत्या करवा सकता है तो कोर्इ छुटभइया उसकी
हुक्मउदूली करने की जुर्रत कैसे कर सकता है। क्या कोर्इ संगठन इतना कूढ़मग़ज़ हो
सकता है जो यह नहीं जानता कि भारत का प्रधानमंत्री बनाने के लिए पहले तो सांसद
चाहिए, तो पहले लोकसभा की सारी सीटों के सांसद
घोषित करने चाहिए थे, तो भी कुछ तर्कसंगत लग सकता था। उससे
पहले एक मैनीफ़ैस्टो पेश करते। मगर ऐसा कुछ भी नहीं। यह सब करते तो सीटों को ले कर
जूते चलने लगते। फिर मैनीफैस्टो से उन आर्थिक नीतियों का
पर्दाफ़ाश हो जाता जो सांपनाथ की भी हैं। इसलिए एक अदद चेहरा पेश कर दिया जिसे चैनलों
ने और अख़बारों ने “ताजपोशी’ नाम दिया जैसे कि भारत एक सामंती देश है। 15 अगस्त को नागनाथ
ने नक़ली लाल कि़ले से बोलने का स्वांग किया। खूब हुंकार फुंकार
की। एक दिन कहीं द्वारकाधीश कृष्ण की तरह की पोशाक पहन कर हाथ में नकली चक्र थामे
हुए उसे टी वी पर सामंती स्वांग करता हुआ दिखाया गया। सब कुछ उल्टा पुल्टा इसीलिए
हो रहा है क्योंकि सांप्रदायिक फ़ासीवाद की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में कोर्इ आस्था
नहीं। इससे जुड़े सांसद झूठमूठ ही संविधान में आस्था की क़सम खाते हैं। ‘झूठहि लेना झूठहि देना / झूठहि भोजन झूठ
चबेना।।‘
गुजरात के विकास की कहानी भी झूठ पर आधारित
है। गुजरात उन्नीसवीं सदी से ही पूंजीवादी विकास की ज़द में आ गया था। इसलिए ‘नमो’ नामक नागनाथ ने ऐसा कोर्इ चमत्कार
नहीं कर दिया जिसका ढोल पीटा जा रहा है। वह विकास कर्इ अन्य राज्यों की तुलना में
इस समय भी ज्यादा नहीं है। नीचे की तालिका से यह साफ हो जायेगा कि किस तरह जनता के
सामने झूठ पर झूठ परोसा जा रहा है:
Year-wise List of Top Ten States with GDP Shares (in Rs Crore)
State/UT 1999-2000 2001-2002 2003-2004 2005-2006 2007-2008 2009-2010 2010-2011
Maharashtra 2,47,830 2,73,188 3,40,600 4,83,222 6,79,004 9,01,330 10,29,621
Uttar Pradesh 1,75,159 1,90,269 2,26,972 2,91,936 3,79,917 5,19,899 5,95,055
Andhra Pradesh 1,28,797 1,56,711 1,90,017 2,55,941 3,64,813 4,75,267 5,88,963
Tamil Nadu 1,34,185 1,48,861 1,75,371 2,57,730 3,50,785 4,64,009 5,47,267
Gujarat 1,09,861 1,23,573 1,68,080 2,44,736 3,29,285 4,29,356 5,13,173
West Bengal 1,35,376 1,57,144 1,89,259 2,30,639 2,98,566 4,00,561 4,73,890
Karnataka 1,01,247 1,12,847 1,30,990 1,95,750 2,70,843 3,35,747 4,05,123
Rajasthan 82720 91771 1,11,606 1,42,236 1,94,822 2,55,440 3,23,682
Kerala 69168 7924 96698 1,36,842 1,75,141 2,30,316 2,76,997
Delhi 55220 65027 79468 1,15,374 1,57,947 2,17,851 2,64,496
इस तालिका से ज़ाहिर है कि गुजरात का नाम पांचवे स्थान
पर है। अन्य चार राज्य
कहीं आगे हैं। इसी तरह तीन बार चुनाव जीत जाने से कोर्इ चमत्कारी इंसान नहीं बन
जाता। शीला दीक्षित ने भी तीन बार चुनावा जीता, प. बंगाल के
वाममोर्चे ने तो रिकार्ड ही क़ायम कर दिया, त्रिपुरा की भी
यही स्थिति है जहां पहले के मुक़ाबले इस बार वाममोर्चे को ज़्यादा सीटें हासिल
हुर्इं, जब कि गुजरात में पहले ‘नमो’ ने 117
सीटें हासिल की थीं उसके बाद के चुनाव में दो सीटें कम हो
गयीं, इसे उसकी अपने ही राज्य में घटती
लोकप्रियता का ही सबूत कहेंगे। ‘विविधता में एकता’ वाले भारत देश के हर
कोने में कोर्इ सांप्रदायिक फ़ासीवादी अभी से लोकप्रिय होने का दावा करे तो यह
हास्यास्पद ही होगा।
भारत की साझा संस्कृति में यक़ीन रखने वाले और
लोकतांत्रिक जनवादी मूल्यों के विकास के लिए प्रतिश्रुत सभी रचनाकारों और
संस्कृतिकर्मियों का आज के दौर में यह सामाजिक दायित्व है कि वे सांप्रदायिक
फ़ासीवाद के मंसूबों को समझते हुए इज़ारेदार पूंजीपतियों और अंतर्राष्ट्रीय
वित्तीय पूंजी के द्वारा भारत पर थोपे जा रहे ‘नमो’ नागनाथ के हाथ भारत की राजनीतिक
सत्ता सौंप देने की चालों को नाकाम करने में अपने आलोचनात्मक विवेक का पूरा प्रयोग
करें और अपने प्रतिरोध की आवाज़ सभी संभव मंचों व माध्यमों से जन जन तक पहुंचायें। इसी प्रक्रिया
में अधिक से अधिक रचनाकारों को आज संगठित होने की भी ज़रूरत है जिससे यह अभियान एक
संगठित ताक़त बन सके।
अंत में, एक रचनाकार की इस
चिंता को व्यक्त करती हुर्इ असद ज़ै़दी की इस कविता में हम सभी खुद को शरीक करें :
आम चुनाव
असद ज़ैदी
आम चुनाव में मतदान के रोज़
अपनी बारी के इंतज़ार में खड़े मोहन भाई
किसी और युग में भटकने लगे
वहीदा रहमानी
कुसुमलता माथुर
एक वी गौरी देवी
सुमित्रा भट्ट
इनमें चुनाव का सवाल ही क्या
दिल तो इन सबसे लगाया ही था
एक तपस्वी की तरह
कोई इस इतिहास को तो बदल नहीं सकता
गर इनमें किसी से रू.ब.रू कुछ कह न सके
तो अपने ही स्वभाव का दोष था
और इस बात का अफ़सोस भी क्या करना
एक भी औरत अब इस शहर में नहीं
कहां हैं वे सब, जानने की कोशिश ही न की
ऐ भली औरतो ऐ सुखी औरतो
तुम जहां भी हो
अगर वोट डालने निकल ही पड़ी हो
तो कहीं भूल के भी न लगा देना
उस फूल पर निशान ।
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