(दिल्ली से प्रकाशित जनसत्ता के 25 अगस्त 2013 के अंक में प्रेमचंद के जिस लेख की पुनर्प्रस्तुति एक घोर दक्षिणपंथी लेखक की झूठमिश्रित संपादकीय टिप्पणी के साथ पढ़ी तो उसी समय उसकी प्रतिक्रिया में यह लेख लिख कर मैंने ओम थानवी को 29 अगस्त को ईमेल कर दिया था, 1 सितंबर के अंक में यह लेख नहीं छपा तो अब इसे अपने ब्लाग पर डाल रहा हूं। असतो मा सद गमय के मंतव्य के साथ --- चंचल चौहान)
प्रेमचंद के लेख : 'राज्यवाद और साम्राज्यवाद’
पर टिप्पणी
चंचल चौहान
प्रेमचंद के एक लेख, 'राज्यवाद और साम्राज्यवाद’
की विकृत शीर्षक के साथ जनसत्ता के 25 अगस्त 2013 दिल्ली संस्करण में पुनर्प्रस्तुति खुद को प्रेमचंद साहित्य
के इकलौते विशेषज्ञ का भ्रम पाले एक लेखक महोदय द्वारा इस तरह की गयी है मानो भारत
का यह महान लेखक उन्हीं की तरह साम्यवादविरोधी और उन्हीं की तरह 'महाजनी सभ्यता का पक्षधर
था। लेख के साथ जो छोटी सी टिप्पणी दी गयी है उसमें शुरू से ही झूठ का सहारा लिया गया
है,
यह
दुनिया भर के साम्यवादविरोधियों का जाना पहचाना चरित्र रहा है, खासकर फासीवादी विचारधारा
से जकड़े बुद्धिजीवियों का तो यह रोग ही है। इन महाशय की टिप्पणी का पहला वाक्य ही
'बोल्शेविक क्रांति’ 1911 में करवा देता है जब कि
सब जानते हैं यह क्रांति 1917 में हुर्इ थी। प्रेमचंद
ने प्रगतिशील लेखक संघ के पहले सम्मेलन की अध्यक्षता, इन महाशय के अनुसार, 'ना नुकर के बाद स्वीकार
की,
ऐसा
आभास होता है जैसे ये महाशय उस वक्त प्रेमचंद के घर में नौकर थे और आने जाने वालों
की बातचीत सुन लिया करते थे। डा. रेखा अवस्थी की शोधपूर्ण पुस्तक, प्रगतिवाद और समानांतर साहित्य, इस तरह के हर झूठ का पर्दाफाश
करती है जिसे पढ़ने की जहमत शायद ही इन महाशय ने उठायी हो। किसी मार्क्सवादी ने प्रेमचंद
को कम्युनिस्ट घोषित नहीं किया, उनकी रचनाओं को भारत के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विकास की प्रक्रिया
का एक हिस्सा माना। कोर्इ लेखक पैदायशी न तो आर्यसमाजी होता है न गांधीवादी और न साम्यवादी।
अपने अपने ज्ञान,
अनुभव
व परिवेश से वह एक जीवनदृषिट अर्जित करता और अपनी समझ का विकास करता है, यह समझ अपने अंतिम विश्लेषण
में वर्गीय होती है। प्रेमचंद की अपनी समझ का यह विकास ही उन्हें विभिन्न अवस्थाओं
से गुजरते हुए 'बोल्शेविक उसूलों का कायल’
होने की अवस्था तक ले जाता है। इस तरह की अवस्थाओं से प्रेमचंद ही नहीं, बहुत से अन्य लेखक और राजनेता
भी गुजरे थे,
राहुल
सांकृत्यायन,
नागार्जुन
आदि लेखकों के उदाहरण तो हम सबके जाने माने हैं। प्रेमचंद ने अपनी चेतना
का इजहार अपनी विभिन्न रचनाओं और लेखों में किया ही है। एक वाक्य भर से किसी ने यह
साबित करने की कोशिश नहीं कि वे कम्युनिस्ट हो गये थे, न किसी आलोचक ने, न किसी कम्युनिस्ट पार्टी
ने ऐसी मान्यता इस महान रचनाकार के बारे में रखी है, यह तो इन महाशय जी का अपना
फोबिया है,
शायद
असाध्य रोग की तरह जो प्रमाण के बगैर ही सब कुछ साबित कर देता है।
अब मुंशी प्रेमचंद के लेख के बारे में चंद
शब्द। प्रेमचंद का यह लेख मुख्य रूप से विश्व में हुए सामाजिक राजनीतिक परिवर्तनों
की एक यथार्थवादी नजरिये से व्याख्या करता है। आश्चर्यजनक रूप से यह विश्लेषण उसी तरह
का है जैसा कि मार्क्स के सहयोगी एंगेल्स ने और बोल्शेविक क्रांति के महान विचारक लेनिन
ने किया था। प्रेमचंद के लेख का शीर्षक, 'राज्यवाद और साम्राज्यवाद’
ही यह दर्शाता है कि वे इन दो तरह की राज्यव्यवस्थाओं का अंतर बता रहे हैं, राज्यवाद को हम लोग 'सामंतवाद कहते हैं, और 'साम्राज्यवाद तो वही है
जिसे दुनिया के सारे शोषित अवाम और विकासशील देश अब अच्छी तरह जान चुके हैं जो आज की
तारीख में सीरिया पर हमले के लिए तैयार बैठा है जिससे तीसरे विश्वयुद्ध का खतरा हमारी
आंखों के सामने है। सीरिया पर वे ही झूठे आरोप हैं जो सददाम हुसेन पर लगाये गये थे
और जिन आरोपों को खुद संयुक्त राष्ट्र के पर्यवेक्षकों ने गलत करार दिया था। मगर वहां
खनिज तेल पर कब्जा करने के मंसूबे से ही वह हमला हुआ था। आज सीरिया पर हमले की तैयारी
के पीछे भी उसी तरह के मंसूबे हैं, उस क्षेत्र में सीरिया अकेला
ऐसा राज्य है जो धर्मनिरपेक्षता और जम्हूरियतपसंद मूल्यों को तरजीह देता है, तालिबाननुमा धार्मिक कठमुल्लों
के वहशी हमलों का शिकार है और जिन्हें सारे साम्राज्यवादी शह दे रहे हैं, उन्हीं के पक्ष में सीरिया
पर हमले की तैयारी है जिस की न तो संयुक्तराष्ट्र ने इजाजत दी है और न अमनपसंद विश्वजनमत
इसे उचित मान सकता है। मगर साम्राज्यवाद का सहारा भी झूठ ही होता है।
इस तरह के साम्राज्यवादी देशों के 'मजूर या 'मजूर दल के चरित्र का मुंशी
प्रेमचंद का विश्लेषण इस लेख में उसी तरह का है जैसा कि एंगेल्स ने अपने आखिरी दौर
में किया था,
जिसका
उल्लेख,
'ग्रेटब्रिटेन
में मजदूरवर्ग की हालत’ नामक पुस्तक के 1892 में प्रकाशित दूसरे संस्करण
में है और जिसकी व्याख्या लेनिन ने साम्राज्यवाद के चरित्र और उसके विश्लेषण की अपनी
महान शोधपूर्ण कृति में की थी। (देखें, अंग्रेजी में लेनिन की कृति, सेलेक्टेड वर्क्स, मास्को 1971, पृ. 247) मुंशी प्रेमचंद ऐसे देशों
में लेबर पार्टी के निजाम में 'मजूर दल’ को उन्हीं नीतियों पर चलते हुए देखते हैं जिन पर पूंजीपतिवर्ग
के नेता चलते हैं। यह अब जाना पहचाना सत्य है, कि दो पार्टियों वाले जनतंत्रों
में एक पार्टी अपने को डेमोक्रेट या लेबर पार्टी जैसा नाम दे कर काम करती है और दूसरी
रिपबिलकन या टोरी या ऐसा ही कुछ लेबल चिपका कर जनता पर राज्य करती है, नीतियां वही रहती हैं। अब
हमारे यहां भी पूंजीवाद काफी विकसित हो चुका है, इसलिए यही कोशिश हमारे यहां
भी हो रही है,
कांग्रेस
का 'प्रगतिशील’ मुखौटा रहता
है,
बीजेपी
धुर दक्षिणपंथी,
मगर
नीतियां वही बनी रहती हैं,
वही
देशीविदेशी बड़े पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाना, आर्थिक सुधारों के नाम पर
अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के हितों के अनुरूप अवाम की परिसंपतितयों का निजीकरण, उदारवाद के नाम पर मजदूरों
का दमन,
छंटनी, किसानों को आत्महत्याओं
के लिए मजबूर करना,
समाजकल्याण
के बजट में लगातार कटौती आदि आदि अनगिनत उदाहरण हैं जबकि हमारा देश संविधान के मुताबिक
एक 'जनवादी, धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी
रिपबिलक’ है। मुंशी प्रेमचंद ने जिन देशों में मजदूरों के राज्य होने के उदाहरण अपने
लेख में दिये हैं,
वे
लेबर पार्टी के हैं,
उनका
ध्यान मुख्य रूप में इंगलैंड की लेबर पार्टी पर है, जिसे लेख में वे 'मजूर दल कहते हैं। लेख में
यह स्प्ष्ट है,वे लिखते हैं, ' इंगलैंड में जब मजूर दल
ने विजय पायी थी,
हमारे
दिल में हर्ष और गर्व की कैसी गुदगुदियां उठी थीं, लेकिन अफसोस, लार्ड ओलिवियर महोदय ही
ने निरपराध भारतीय युवकों को नजरबंद किये जाने का कानून स्वीकार किया और आज मि. मैकडोनाल्ड
को हम उनके असली रूप में देख रहे हैं। सोवियत रूस का तो उन राज्यों में उल्लेख है ही
नहीं,
जिसके
खिलाफ टिप्पणीकार महाशय अपनी विकारमयी विचारधारा के कारण झूठ पर उतर आये हैं, वे अपने कम्युनिस्ट फोबिया
के कारण अपनी टिप्पणी में मुंशी प्रेमचंद के लेख को भी कम्युनिस्टविरोधी सबूत के रूप
में पेश करने की वाहियात कोशिश करते हैं।
साम्राज्यवादी देशों के मजदूरवर्ग के बारे
में मुंशी प्रेमचंद के विचार एकदम वैज्ञानिक और यथार्थपरक हैं और ये ही विचार एंगेल्स
ने और बाद में लेनिन ने भी रखे थे। मार्क्स का अध्ययन पूंजीवाद के चरित्र और सामाजिक
विकास की विभिन्न मंजिलों तक ही हो पाया था, साम्राज्यवाद उसकी सर्वोच्च
मंजिल है,
यह
सत्य लेनिन ने उजागर किया था। मार्क्स की यह मान्यता कि सर्वहारावर्ग परिपक्व पूंजीवादी
देशों में क्रांति करके राज्यसत्ता अपने अधीन कर लेगा, सही नहीं थी, लेनिन ने इसके उलट यह सिद्धांत
दुनिया के सामने रखा कि साम्राज्यवाद के रूप में पूंजीवाद विकसित हो कर उच्चतम मंजिल
में दाखिल हो गया है,
वह
दुनिया के अविकसित हिस्सों पर कब्जा करके वहां के कच्चे माल और वहां के बाजार को हथिया
कर ऐसी विश्वव्यवस्था बन गया है जिसमें क्रांतियां विकसित पूंजीवादी देशों में न हो
कर उन देशों में होंगी जो विश्वपूंजीवाद की सबसे कमजोर कड़ी होंगे। इसी सिद्धांत की
सच्चार्इ इतिहास ने साबित की और जहां पूंजीपतिवर्ग कमजोर था, वहां वहां सर्वहारावर्ग
की राज्यसत्ताएं कायम हुर्इ, भारत जैसे देश में पूंजीपतिवर्ग विकसित हो गया था, इसलिए आजादी के बाद यहां
राज्यसत्ता इजारेदार पूंजीपतिवर्ग के हाथ आ गयी जिसने अपने हितों के लिए सामंतवाद के
साथ गठबंधन कर लिया,
और
साम्राज्यवाद के साथ समझौतावादी रुख अखितयार किया। लेनिन के इसी सिद्धांत से नेपाल
जैसी 'पूंजीवाद की सबसे कमजोर
कड़ी’ में सर्वहारावर्ग की राज्यसत्ता कायम होने की सर्वाधिक संभावनाएं हैं, राजशाही व्यवस्था में जो
एकमात्र 'हिंदू राष्ट्र’ था, आज सर्वहारावर्ग की विचारधारा, राजनीति और पहलकदमी से एक
आधुनिक राष्ट्रराज्य बनने की मंजिल में है जिससे लेनिन के सिद्धांत की ही पुष्टि होती
है।
मुंशी प्रेमचंद के 1928 के विचारों के अनुरूप ही
आज विश्व के सभी कम्युनिस्ट भी यही विचार रखते हैं कि इंग्लैंड, अमेरिका, फ्रांस, जर्मनी, जापान आदि साम्राज्यवादी
देशों में 'लेबर’ के नाम पर या 'डेमोक्रेटिक’ बिल्ला लगाये
राजनीतिक दल समाज को शोषण-पाप के परंपराक्रम से मुक्ति नहीं दिला सकते क्योंकि वे भी
उन्हीं वर्गों के हितसाधन के लिए बने हैं जिन्हें 'साम्राज्यवादी’ कहा जाता
है और आज की शब्दावली में अंतर्राष्ट्रीय कारपोरेट जगत जिसने अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय
पूंजी की शक्ल अख्तियार करके पूरे ग्लोब को अपनी चपेट में ले लिया है, और जिसने शोषणचक्र में दुनिया
भर के अवाम को फंसा कर अब खुद को आर्थिक संकट की खंदक में धंसा लिया है जिससे निकलने
के लिए दुनिया पर तीसरे विश्वयुद्ध को थोपने की तैयारी चल रही है।
साम्राज्यवादी देशों का
सरगना अमेरिका आज दुनिया के सारे अविकसित देशों में ऐसी पालतू शकितयों को बढ़ावा दे
रहा है जो आर्थिक संकट के दबाव में उभर रहे अवाम के गुस्से को 'धार्मिक रूढि़वादी प्रगतिविरोधी
आंदोलनों की तरफ मोड़ दें। या दो देशों के बीच युद्ध करवा दें जिससे उनके यहां सड़
रहे हथियार बिक जायें। यह प्रक्रिया भारत में भी शुरू हो गयी है, कांग्रेस की साम्राज्यपरस्त
आर्थिक नीतियों से पैदा संकट अवाम की तकलीफों को हर रोज बढ़ा रहा है, इससे पैदा गुस्सा हर स्तर
पर बढ़ रहा है,
इस
संकट को न तो 'चौरासी कोसी यात्रा’ हल
कर सकती है और न इससे उबरने का कोर्इ आर्थिक एजेंडा ऐसी ताकतों के पास है, उनके पास भी वही रास्ता
है जिस पर कांग्रेस चल रही है, वे ही जनविरोधी नीतियां, वही पब्लिक सेक्टर बेच देने
वाली अरुण शौरी वाली करतूतें, वही लक्ष्मण बंगारू की तरह सुरक्षा सौदे में देश को बेच देने वाले
'राष्ट्र भक्त’, भारतीय रुपये के मुकाबले
डालर से अतिरिक्त प्रेम दर्शाने वाले दल आज, विकल्प के रूप में, सांप्रदायिक-फासीवादी विचारधारा
से लैस एक आक्रामक हिटलरी मुखौटा पेश कर रहे हैं। कारपोरेट जगत का प्रचारतंत्र उसे
हर क्षण अवाम के सामने परोस रहा है, झूठ के अंबार लगाये जा रहे
हैं। वे सोचते हैं कि भारत के भोलेभाले अवाम इस ‘मुदियापे’ में फंसकर एक तानाशाह
को भारत की बागडोर सौंप देंगे। प्रेमचंद की 'महाजनी सभ्यता का यह नंगा
सच है,
इस
'सभ्यता’ के पैरोकारों को
पहले र्इमानदारी से अपने अंतरमन में झांकना चाहिए कि वे कहां और किसके साथ खड़े हैं।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें