सोमवार, 10 सितंबर 2012

रामचरित मानस की विचारधारा

              
                                                                 चंचल चौहान


अनभै सांचा, पत्रिका के अप्रैल-जून 2012 के अंक में डा. नित्यानंद तिवारी ने अपने लेख, ‘भक्ति-साहित्यः एक पुनरावलोकन’ में रामचरितमानस के दशरथ-कैकेयी प्रसंग की जो उत्तरआधुनिकतावादी व्याख्या की है वह काफ़ी बहसतलब है, विचारोत्तेजक भी। उससे अपनी विनम्र असहमति जताते हुए मुझे लगा कि अभी हिंदी पाठकों में शायद क्लासिकल साहित्य में अंतर्निहित विचारधारा की जानकारी का अभाव है। यों तो अंग्रेज़ी साहित्य में भी वैज्ञानिक तरीक़े से क्लासिकवाद की परिभाषा और पूरे क्लासिकल साहित्य की इस नज़रिये से व्याख्या देखने को नहीं मिली है, फिर भी क्लासिसिज़्म और रोमांटिसिज़्म की तुलना करते हुए एक बिंबवादी कवि टी ई ह्यूम ने क्लासिसिज़्म में अंतर्निहित विचारधारा का सारतत्व जाने अनजाने एक वाक्य में बताया, जो मुझे काफ़ी हद तक सही लगता है। उसका कहना है कि क्लासिकल साहित्य इस विचार पर आधारित है कि ‘मनुष्य अपनी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकता’ (Man cannot transcend his limitations)। क्लासिकल साहित्य दासयुग के दौरान शुरू हुआ जब ‘संपत्ति’ की अवधारणा और उत्पादन के साधनों पर निजी स्वामित्व की समाज-व्यवस्था पैदा हुई। दासों पर स्वामियों का शासन अबाध रूप से चलता रहे, इसी शासकवर्गीय आकांक्षा का प्रतिफलन क्लासिकल विचारधारा में हुआ, उक्त परिभाषा में दो विचार और जुड़े, एक तो नियतिवाद का, दूसरा ‘अभिमान’ को पाप बताने का। यह विचारधारा आश्चर्यजनक रूप से ग्रीक साहित्य से ले कर दुनिया के सारे महाकाव्यों और जनमानस में आज भी व्याप्त है, जब कि रोमांटिक साहित्य की विचारधारा ने पूंजीवादी समाज की स्थापना के लिए हुई फ्रांस की क्रांति से प्रेरित हो कर क्लासिकल विचारधारा को खंडित कर दिया था, सामाजिक विकास की आधुनिक मंज़िल में वैज्ञानिकों ने अपने आविष्कारों से यह प्रमाणित कर दिया कि ‘मनुष्य अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर सकता है’।
       ग्रीक साहित्य में प्रोमिथियस बाउंड नामक कृति का संदेश क्लासिकल विचारधारा पर आधारित था। काव्यनायक प्रोमिथियस ने यह जुर्रत की कि उसने स्वर्ग से अग्नि चुरा कर मानव संसार को दे कर एक बनी बनायी व्यवस्था को चुनौती दी तो देवों ने उसे एक चट्टान से बांध दिया और यह संकेत दिया कि मनुष्य अपनी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करे, जो स्पार्टाकस बनने की कोशिश करेंगे, सज़ा पायेंगे। इसका निषेध करते हुए, क्रांतिकारी रोमानी अंग्रेज़ी कवि पी बी शैले ने एक कृति रची, प्रोमिथियस अनबाउंड। यह नयी चेतना का साक्ष्य प्रस्तुत करती है कि मनुष्य अपनी सीमाओं का अतिक्रमण कर सकता है। रोमानी कवि ने प्रोमिथियस को बंधनमुक्त कर दिया क्योंकि रोमानियत बंधनों से मुक्ति का संदेश देती है। डार्विन ने अपने शोध से सारी दुनिया को ऐसा ही संदेश दिया कि उद्विकास के दौरान वनमानुस ने अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करके ही मनुष्य का रूप हासिल किया। ग्रीक साहित्य में ऐसे मिथक और ऐसे कथ्य ही रचनाओं के लिए उपयुक्त माने गये थे जिनमें सीमाओं का अतिक्रमण करने वाले मनुष्य को सज़ा मिलती है, चाहे वह सोफ़ोक्लीज़ का नाटक, इडिपस हो, या एस्खाइलस की कृति, प्रोमिथियस बाउंड  या फिर इकारस का मिथक जिसमें वह मोम के पंख लगा कर सूरज तक उड़ना चाहता था और पंख पिघलने पर ज़मीन पर आ गिरता है। हमारे मिथकों में त्रिशंकु की भी यही दुर्गति होती है। सीमाओं का अतिक्रमण करने वाला अभिमान की भावना रखता है, इसलिए उसे कब्ज़े में रखने के लिए अभिमान को पाप की श्रेणी में रखा गया, इसी विचारधारा से निःसृत नियतिवाद भी दासयुग से ले कर आज तक इसी नियंत्राणविधि का एक औज़ार रहा है, जिसे शोषणसमाज में सभी जगह खूब प्रचारित किया जाता रहा है, यानी ‘होता है वही जो मंजूरे खुदा होता है’ या ‘होइहि सोइ जो राम रचि राखा/ को करि तरक बढ़ावहि साखा’।
       यह आश्चर्यजनक तथ्य है कि सामाजिक विकास की मंज़िलें अपने से पहले की मंज़िल के सुपरस्ट्रक्चर को बदलती रहीं, मगर दासयुग की क्लासिकल विचारधारा को नया रूप दे कर पालती पोसती रहीं। मसलन, ग्रीक समय के दास युग के बाद सामंती युग में प्रवेश के बाद ईसाइयत ने भी उसे नये मिथकों से सजा कर और अधिक स्वीकार्य बनाये रखा। बाइबिल का पहला अध्याय ही यह संदेश देता है कि ‘मनुष्य अपनी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकता’ और अगर करने की कोशिश करेगा तो सज़ा पायेगा। ईसाइयत ने उस विचारधारा में एक नया आयाम यह जोड़ा कि सृष्टि में हर चीज़ का एक नियत स्थान है, एक सीढ़ी है, जिसमें ईश्वर सबसे उच्च स्थान पर है, फिर देवदूत, फिर मनुष्य, फिर जीव, फिर वनस्पति, फिर चट्टानें, फिर पानी। इनमें से कोई अपने से उच्च सीढ़ी पर जाने की कोशिश करेगा तो उसे सज़ा मिलेगी। इकारस के मिथक का यह नया रूप था, आदम और हौवा मनुष्य से देवदूत बनने की कोशिश के बतौर ईश्वर के आदेश के विरुद्ध जाते हुए ज्ञान का फल खा लेते हैं तो उन्हें सज़ा मिलती है, उन्हें पापी घोषित कर दिया जाता है, और मृत्यु के हाथों सौंप दिया जाता है। शेक्सपीयर की अमर कृतियां, किंग लीयर, हैमलेट आदि, मिल्टन की अमर कृति, पैराडाइज़ लॉस्ट, मारलो की अमर कृति, डॉक्टर फॉस्टस इसी विचारधारा का पोषण करती हुई कृतियां हैं जबकि ये उदीयमान पूंजीवाद के समय के उत्पाद हैं, अठारहवीं सदी के अंग्रेज़ी साहित्य में तो घोषित रूप से क्लासिकल विचारधारा के अनुकरण की सलाह रचनाकारों को दी गयी जिसे उस ज़माने के कवि अलेग्ज़ेंडर पोप की काव्यकृति, एन ऐस्से ऑन मैन में देखा जा सकता है। यह कृति कवि के समकालीन अंग्रेज़ दार्शनिक बोलिंगब्रोक की दार्शनिक विचारधारा का ही पद्यानुवाद मानी जाती है जो ईसाइयत की ही सरणिव्यवस्था को ‘चेन ऑफ़ बीइंग’ का नाम दे कर यही संदेश देता है कि सृष्टि में हर जीव और पदार्थ का, ‘अस्तित्व की कड़ी’ में एक तयशुदा स्थान है, उस स्थान का अतिक्रमण करना संभव नहीं, अतिक्रमण करने पर सज़ा का दैवी विधान है जो आदम और हौवा को भी पापी बना चुका है।
       हमारे यहां के ‘ब्राह्मणवाद’ से यह फ़लसफ़ा काफ़ी मिलता जुलता है जिसमें ब्राह्मण ईश्वर का मुख है, क्षत्रिय उसकी भुजाएं हैं, वैश्य उसका उदर हैं और शूद्र उसके पदतल हैं, यहां भी कोई अपने स्थान का अतिक्रमण नहीं कर सकता। भगवद्गीता में कृष्ण के मुख से यह कहलवा कर कि ‘चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं...’(अध्याय 4, श्लोक 13, अध्याय 18, श्लोक 41-44 ) इस क्लासिकल विचारधारा को भी दैवी-विधान की शक्ल दे दी गयी जिसकी वजह से भारतीय समाज आज तक नाबराबरी के इस फ़लसफ़े की गिरफ़्त में बना हुआ है और इससे मुक्ति के कोई आसार भी फ़िलहाल नहीं दिखायी दे रहे।
       इस तरह की क्लासिकल विचारधारा का सर्वव्यापी प्रभाव यूरोप में ही रहा हो, ऐसा नहीं है। शोषण पर आधारित समाजों के उद्भव और विकास की प्रक्रिया में इस विचारधारा का जन्म होना लाज़मी रहा है, इसलिए हमारे क्लासिकल साहित्य में भी वह मौजूद है, हमारे महाकाव्य और धार्मिक विमर्श में भी वह केंद्रीय धुरी की तरह काम करती है, उसी विचारधारा से प्रेरित उपदेश, ‘आत्मानम् विद्धि’ और नियतिवाद हर जगह हर क्षण हमें सुनायी देता है। हमारे मिथक भी उसी तरह का संदेश देते हैं कि ‘मनुष्य अपनी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकता’, राम का मिथक हो या कृष्ण का, या त्रिशंकु का। कंस का वध कृष्ण के हाथों होना है, कंस अपनी इस सीमा का अतिक्रमण करने के लिए हर उपाय करता है, अभिमानी बनता है, अंततः वह अपनी सीमाओं का अतिक्रमण करने के प्रयास में सफल नहीं हो पाता, कृष्ण के हाथों मारा जाता है। ठीक उसी तरह जिस तरह ग्रीक साहित्य के मिथकीय पात्रा अंततः त्रासदी का शिकार होते हैं। ग्रीक कथा के इकारस की तरह त्रिशंकु भी मानवीय सीमाओं का अतिक्रमण करने का प्रयत्न करता है, मगर वह भी उल्टा गिरता है।
       क्लासिकल विचारधारा के इस खुलासे की ज़रूरत मुझे इसलिए महसूस हुई क्योंकि इसे जाने बग़ैर रामचरितमानस जैसी रचना के किसी भी हिस्से को विचारधारारहित मानने की उत्तरआधुनिक भूल की जा सकती है। डा. नित्यानंद तिवारी ने साहित्यविनोद की तरह उत्तरआधुनिकतावादी आलोचना का एक प्रयोग किया है और रामचरितमानस के दशरथ-कैकेयी प्रसंग की व्याख्या करते हुए यह आम धारणा व्यक्त की है कि तुलसी के पास जो विचारधारा है वह ‘भक्ति की विचारधारा’ है, और यहीं पर गड़बड़झाला है। दशरथ-कैकेयी प्रसंग में दशरथ बहुत पहले कैकेयी को दिये गये वचन के कारण मुसीबत में फंस गये हैं, वचन को निबाहते हैं तो निरपराध बेटे राम को बनवास दे कर उसे दंडित करने का पाप करेंगे, नहीं निबाहते हैं तो रघुकुल-रीति तोड़ कर न्यायी राजा होने की श्रेष्ठता से नीचे गिर जायेंगे। डा. नित्यानंद तिवारी इस पर टिप्पणी करते हुए लिखते हैं:
       'तुलसी के पास बड़ी दृढ़ विचारधारा थी, जो इस संकट से दशरथ को उबार सकती    थी।  लेकिन तुलसी विचारधारा का उपयोग नहीं करते। संपूर्ण रामचरितमानस में कोई ऐसा उभयोतपाशबद्ध प्रसंग नहीं है। आख़िर तुलसी भक्ति की विचारधारा का उपयोग करके इस समस्या का समाधान क्यों नहीं देते।' (अनभै सांचा, 26, पृ.14.)

        आगे वे लिखते हैं कि मानस के पाठ यानी टैक्स्ट में ‘यह एक दरार है’। फिर वचन निबाहने को ले कर गांधी और टैगोर के भिन्न विचारों की रोशनी में इस प्रसंग के टैक्स्ट पर नज़र डालते हुए एक लोककथा की प्रकृति की अच्छी व्याख्या करते हैं, और उसके बाद वे उत्तरआधुनिकतावादी विचारसरणि की चपेट में आ जाते हैं और लिखते हैं :
       'यह प्रसंग भक्ति की विचारधारा के अधीन नहीं है।...किसी भी वर्चस्वी शक्ति के अधीन नहीं है। इसकी स्वाधीनता किसी की मनमर्ज़ी के मुताबिक़ नहीं है। कोई भी इसका फ़ायदा नहीं उठा सकता -- भक्ति की विचारधारा भी नहीं।' (अनभै सांचा, 26, पृ.16.)
                                               
        इसी उत्तरआधुनिकतावादी विचारसरणि के असर में लोककथाओं के बारे में भी यह कह देते हैं कि उनकी आलोचनात्मकता परिस्थितिगत वास्तविकता की गति और रक्त से पैदा होती है, किसी विचारधारा से नहीं।’
       ये ही वे बिंदु हैं जहां पर मेरी डा. नित्यानंद तिवारी से विनम्र असहमति है, इसका मतलब यह नहीं कि पूरे लेख में उन्होंने तर्कसंगत समीक्षापद्धति से जो मूल्यवान और नयी व्याख्याएं दी हैं, उन्हें मैं कम करके आंक रहा हूं। वे अपने सारतत्व में जनपक्षीय आलोचना के विशाल दाय का हिस्सा हैं और भक्ति साहित्य के लोकसंपृक्त स्वरूप की वैज्ञानिक समझ हमें देती ही हैं।
       वर्गविभक्त समाज में पले बढ़े सभी इंसान विचार भी अर्जित करते हैं, इसलिए विचारधारा से मुक्त होना मुमकिन नहीं, ‘लोक’ माने जाने वाले सामाजिक प्राणी भी नहीं जो लोकथाएं रचते हैं। लोक में क्लासिकल विचारधारा जिसे हमारे देश के संदर्भ में ‘ब्राह्मणवादी’ विचारधारा माना जाता है के लंबे समय तक पनपते रहने की सबसे अधिक उर्वर भूमि है, उसका जिन जिन विचारधाराओं ने उच्छेदन किया, वे लोक के बल पर ख़ुद उसी विचारधारा में ढल गयीं। मसलन, हमारे यहां के बौद्ध, जैन आदि नये दर्शनों ने क्लासिकल विचारधारा के उच्छेदन की कोशिश की, मगर वे सब उसी की तरह हो गये। सिख दर्शन जो सबसे अधिक ब्राह्मणवादी विचारधारा का उच्छेदक था, अपनी रीतिनीति में अब पूरी तरह ब्राह्मणवादी और अंधविश्वासी हो कर, उसी तरह की पूजा अर्चना करने की चालढाल में रंग गया।
       तुलसी के समय में सामंतवाद को और उसकी क्लासिकल विचारधारा ब्राह्मणवाद को बड़ी चुनौती मिल रही थी, कबीर कहते थे, ‘पंडित वाद वदै सो झूठा’, अपने तर्क से वे लोगों को ज्ञानमार्ग पर चलने की सलाह दे रहे थे, ढोंग, आडंबर आदि को गरिया रहे थे, अवतारवाद को मिथ्या क़रार दे रहे थे, यह चुनौती क्लासिकल विचारधारा को चुनौती थी, उससे जुड़े नियतिवाद का भी विखंडन हो रहा था, वे तर्क पर आधारित ज्ञान को विकसित करने की तड़प लिये हुए थे, वे जाति, धर्म आदि के आडंबरों में और क्लासिकल विचारधारा में जकड़े लोक को नवजागरण का संदेश दे रहे थे, उन्हें यह तकलीफ़ महसूस होती थी, ‘सांच कहौ तो मारन धावैं, झूठै जग पतियाना’। मगर उस ज्ञानमार्गी शाखा के विकसित होने के लिए उस समय भौतिक परिस्थितियां विकसित नहीं हुई थीं, इसलिए पहले के कई प्रयासों की ही तरह ज्ञानमार्ग का भी पराभव हो गया, अनुयायी रह गये और आज भी हैं, मगर हैं ब्राह्मणवाद की जकड़बंदी में ही। इसे आज का मीडिया, टी वी चैनल, रेडियो और सूचनातंत्र भी नित नया बल पहुंचा रहे हैं, अनेक बाबा लोग, सुंदर सुंदर साध्वियां, कई हसीन कथावाचक इसी क्लासिकल विचारधारा को अनेक चैनलों के माध्यम से और जगह जगह पंडालों में, मंदिरों में, तीर्थस्थलों में गा बजा रहे हैं, उसे सर्वव्यापी बना रहे हैं, क्यों न हो, करोड़ों का चढ़ावा आ रहा है, मज़े आ रहे हैं, ग्रीक समाज में स्वामियों के हित के लिए बनायी गयी विचारधारा आधुनिक युग के स्वामी लोगों के बड़े काम की चीज़ साबित हो रही है।
        तुलसी बाबा ने भी अपने बचपन से ‘नानापुराणनिगमागम’ और ‘सूकरखेत’ में सुनी कथा के माध्यम से यही विचारधारा पायी थी, उन्हें निर्गुण कवियों में ज्ञान का अभिमान बर्दाश्त नहीं था, वे हर तरह से ‘अवतारवाद’ को विखंडित होने से बचाना चाहते थे, इस काम के लिए विश्व के तमाम कवियों की ही तरह क्लासिकल विचारधारा के प्रसार के लिए उन्हें भी महाकाव्य विधा का सहारा लेना पड़ा, एक रोचक कथा जो लोक में उपलब्ध थी, साधु संत इधर उधर सुनाते रहते थे, ‘सूकरखेत’ में सुनी हुई थी ही, इसलिए उसे लोकभाषा में निबद्ध करने का साहस उन्होंने जुटाया। यही कथा रामचरितमानस बनी। इस कथा में किसी तरह की भक्ति की विचारधारा नहीं है, उसमें क्लासिकल विचारधारा है जिसके मुख्य घटक हैं: सीमाओं के अतिक्रमण से पैदा हुए अभिमान का विखंडन, नियतिवाद या अवतारवाद का पोषण  यानी ब्राह्मणवाद को समाज में स्वीकार्य बनाये रखने के लिए बौद्धिक संघर्ष।
       दशरथ-कैकेयी प्रसंग को भी इसी विचारधारा के प्रकाश में व्याख्यायित किया जा सकता है। तुलसी ने रामचरितमानस की क्लासिकल विचारधारा के एक अहम घटक को एक चौपाई में यों व्यक्त किया है:
              सुनहु राम कर सहज सुभाऊ ।  जन अभिमान न राखहिं काऊ ।।

सीमाओं का अतिक्रमण करने से जो अभिमान उपजता है, राम उसे नहीं बख़्शते, भले ही वह ‘जन’ उनका अपना लोकपिता दशरथ हो, वानरों का राजा बालि हो, लंका का राजा रावण हो, ब्रह्मा का बेटा नारद जैसा ऋषि हो या गरुड़ जैसा देववाहन हो, या सती जैसी देवपत्नी हो या ख़ुद उनकी अपनी सीता हो। वानरों के राजा बालि ने मरते समय राम के सामने बहुत ही मुश्किल सवाल रख दिया था, उसने कहा, कैसे ‘समदरसी रघुनाथ’ हैं आप, आपके लिए तो सब जन एक समान होने चाहिए, तो फिर
             
              मैं बैरी सुग्रीव पिआरा । अबगुन कवन नाथ मोहिं मारा ।।

तुलसीदास ने बालि के लिए ‘महा अभिमानी’ शब्द का प्रयोग किया, उसकी पत्नी ने उसे समझाया कि  राम के साथ उसे संग्राम नहीं करना चाहिए तो उसने पत्नी की बात नहीं मानी, और कहा मरने में भी कोई बुराई नहीं, ‘अस कहि चला महा अभिमानी / तृन समान सुग्रीवहिं जानी।’ और राम ने भी उसे मारने का यही तर्क दिया:
             
              मूढ़ तोहि अतिसय अभिमाना । नारि सिखावन करसि न काना ।।
              मम भुजबल आश्रित तेहि जानी । मारा चहसि अधम अभिमानी ।।

रावण के विनाश का भी यही तर्क है, रावण भी ‘महा अभिमानी’ है। रामचरितमानस में रावण के साथ यह विशेषण अनगिनत बार आया है, जब बानर सेना लंका घेर लेती है, (देखें लंकाकांड, दोहा 39 के बाद का वर्णन) तो ‘लंका भयउ कोलाहल भारी / सुना दसानन अति अहंकारी’ और इस चौपाई के बाद पांचवीं चौपाई में शिव के मुंह से कहलावाया, ‘उमा रावनहिं अस अभिमाना...’ रावण जब कुंभकरण को नींद से उठाता है तो वह पूछता है कि क्या हुआ, ‘कुंभकरन बूझा कहु भाई / काहे तव मुख रहे सुखाई’ तो तुलसी बाबा लिखते हैं, ‘कथा कही सब तेहि अभिमानी/ जेहि प्रकार सीता हरि आनी।’ कुंभकरण अपने भाई रावण को समझाता है कि ‘अजहूं तात त्यागि अभिमाना / भजहु राम होइहि कल्याना।’ मगर रावण नहीं मानता। और जब आख़िर में रावण खुद ही युद्धभूमि की ओर चलता है, तो ‘असगुन अमित होहिं तेहि काला / गनइ न भुजबल गर्व विसाला’। लोक में आज भी यह कहावत प्रचलित है कि ‘गर्व करे सो हारे’। युद्ध में लड़ते वक्त़ भी उसके लिए कवि ने लिखा, ‘गरजेउ मूढ़ महा अभिमानी / धायेउ दसहु सरासन तानी।’
       अभिमान को हर धर्म में पाप माना गया है, मनुष्य जब सीमाओं का अतिक्रमण करता है तो अभिमान करता है। क्लासिकल विचारधारा ने दासों को अपने कब्ज़े में रखने के लिए ऐसा साहित्य और नीतिशास्त्रा रचा जो दासों को याद दिलाता रहे कि मनुष्य को अपनी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं करना चाहिए, ईसाई धर्म में जो महापाप गिनाये गये उनमें भी अभिमान को शामिल किया गया। हमारे यहां भी ब्राह्मणवाद ने अभिमान को आसुरी वृत्ति में रखा, भगवद्गीता में कृष्ण के मुंह से कहलाया:
              
              दम्भो दर्पोऽभिमानश्च क्रोधः पारुषमेव च।
              अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्पदमासुरीम्।। (श्लोक 4, अध्याय 16)

आगे चल कर कृष्ण यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि आसुरी वृत्ति बंधन के लिए है, और अभिमान करने वाला ईश्वर का द्रोही होता है:
               
             अहंकारं बलं दर्पं कामं क्रोधं च संश्रिता।
              मामात्मपरदेहेषु   प्रद्विषन्तोऽभ्यसूयकाः।। (श्लोक 18, अध्याय 16)

तुलसीदास ने अपनी कृति में उसी क्लासिकल विचारधारा को केंद्र में रख कर कबीर आदि की निर्गुण भक्ति की विचारधारा से संघर्ष करके उसे पुनः स्थापित किया। अपनी कृति में ऐसे पात्र प्रमुखता से रचे जो अभिमान करके हार का मुंह देखते हैं, या कठिनाई में पड़ जाते हैं। दशरथ भी मनुष्य होने की सीमा को अतिक्रमित करते हुए देवताओं की तरह कैकेयी को ‘कुछ’ भी वरदान दे देने का अभिमान पाल लेते हैं, और इसीलिए उस संकट में फंसते हैं जिसे डा. नित्यानंद तिवारी ने ‘उभयतोपाश’ कहा है। तुलसीदास ने अपनी कृति में अभिमान करने वाले नर, वानर, राक्षस, देवता, प्रिय, अप्रिय सभी को सबक़ सिखाया है। निशाना तो उन्होंने कबीर जैसे ब्राह्मणवादविरोधी संतों पर साधा है, इसके लिए सूक्ष्म तरीके़ से ज्ञान का अभिमान करने वाले यानी सीमा का अतिक्रमण करने वाले हर पात्रा को मुसीबत में पड़ते हुए दिखाया है। शिव की पहली पत्नी सती, विष्णु के वाहन गरुड़, इंद्र, और ब्रह्मा के बेटे नारद आदि सभी के अभिमान का इलाज रामचरितमानस में कराया गया है। इनमें से कुछ रामकथा सुन कर अभिमान के पाप से मुक्त होते हैं, इसलिए रामचरितमानस में शिव अपनी पत्नी पार्वती को, काकभुशुंडि गरुड़ को, और बाबा तुलसीदास अपने पाठकों को रामकथा सुना रहे हैं। अभिमान करने वाले हर पात्र को कुछ न कुछ दंड भुगतना पड़ता है, राजा दशरथ को प्राणत्याग करना पड़ा, असुरों को भी प्राण देने पड़े, बालि को भी प्राण दंड मिला, नारद एक जगह नहीं टिक सकते थे, सो उनका इलाज अलग तरह से करना पड़ा, उन्हें मारा नहीं जा सकता था। रामचरितमानस में नारद के अभिमान का प्रसंग सबसे ज़्यादा मनोरंजक है। तुलसी पहले तो याज्ञवल्कि से भरद्वाज को कथा सुनवाते हैं, फिर शिव विवाह के बाद पार्वती शिव से आग्रह करती हैं तो शिव पार्वती को सुनाने लगते हैं। शिव बताते हैं कि अनेक कल्पों में राम अवतार अनेक तरह से हुए हैं, रावण के भी कई बार अवतार हुए। बालकांड में उन तमाम प्रसंगों को लिया गया है जिनमें अलग अलग कारणों से रावण अवतार होते रहे और उसके विनाश के लिए राम अवतार हुए। विश्वहिंदू परिषद  और आर एस एस के अज्ञानी नेताओं को पूरा रामचरितमानस न सही, बालकांड ही पढ़ लेना चाहिए तो शायद उन्हें तीन सौ रामायणों की बात समझ में आये और शर्म भी। ‘शर्म उनको मगर नहीं आती’।
       एक कल्प में रामावतार का वर्णन करते हुए तुलसी नारदप्रसंग को ले आते हैं। एक अच्छी मनोरम जगह देख कर नारद तपस्या करने बैठ जाते हैं तो इंद्र को डर लगने लगता है, वह विघ्न डालने के लिए उनके पास कामदेव को भेजता है। नारद विचलित नहीं होते और कामदेव लज्जित हो कर उनसे क्षमा मांग कर चला जाता है। बस, इसके बाद बाबा जी को कामजित होने का अभिमान हो जाता है।
             तब नारद गवने सिव पाहीं। जिता काम अहमिति मन माहीं।।
             मार चरित संकरहिं सुनाए। अतिप्रिय जानि महेस सिखाए।।
             बार बार बिनवउं मुनि तोहीं। जिमि यह कथा सुनायहु मोहीं।।
             तिमि जनि हरिहि सुनावहु कबहूं। चलेहुं प्रसंग दुराएहु तबहूं।।
नारद नहीं माने और पहुंच गये विष्णु के पास, उन्हें भी अपने कामजित होने का कारनामा सुना दियाः ‘काम चरित नारद सब भाषे / जद्यपि प्रथम बरजि सिव राखे।।’ विष्णु ने चुटकी ली और कहा कि आपको भला कामदेव कैसे सता सकता है, नारद ने विनम्रतावश प्रशंसा के लिए धन्यवाद ज्ञापन किया, ‘नारद कहेउ सहित अभिमाना / कृपा तुम्हारि सकल भगवाना।।’ विष्णु ने जान लिया कि नारद के मन में  गर्व का पेड़ उग आया है जिसे उखाड़ देना ज़रूरी है,
             करुनानिधि मन दीख बिचारी। उर अंकुरेउ गरब तरु भारी।।
             बेगि सो मै डारिहउं उखारी। पन हमार सेवक हितकारी।।
             मुनि कर हित मम कौतुक होई। अवसि उपाय करबि मैं सोई।।
             तब नारद हरि पद सिर नाई। चले हृदय अहमिति अधिकाई।।
और विष्णु अपने तरीक़े से नारद का अभिमान चूर चूर कर देते हैं, मायानगरी में एक राजा और उसकी कन्या की रचना करके नारद को उसी तरफ़ रवाना कर देते हैं, नारद उस लड़की पर फ़िदा हो जाते हैं, और ‘कामजित’ बाबा जी उससे शादी करने का निश्चय कर लेते हैं, विष्णु के पास जा कर अनुरोध करते हैं कि वे उन्हें अपना रूप दे दें, मगर विष्णु उनको बंदर का रूप देते हैं, स्वयंवर में शिव के दो गण उनका मज़ाक उड़ाते हैं, लड़की नारद की ओर देखती तक नहीं, ‘पुनि पुनि मुनि उकसहिं अकुलाहीं / देखि दसा हर गन मुसकाहीं’ और आख़िर में वे नारद से कह ही देते हैं, कि शीशे में जा कर अपनी शक्ल तो देख लो। बस नारद पानी में अपनी शक्ल देखते ही क्रोध से आगबबूला हो जाते हैं। वे उन दोनों गणों को निशाचर के रूप में जन्म लेने का शाप देते हैं, और विष्णु को रामावतार के दौरान ‘नारि विरह’ में जलने का शाप देते हैं। इस तरह एक कल्प में रावण और राम के अवतार के मूल कारण की व्याख्या वे याज्ञवल्कि के द्वारा करवा देते हैं। तुलसी इस हलके फुलके प्रसंग से भी उसी क्लासिकल विचारधारा को पुष्ट करते हैं जिसमें कहा गया है कि मनुष्य अपनी सीमाओं का अतिक्रमण नहीं कर सकता। सीमाओं का अतिक्रमण करके जिसने भी अभिमान किया उसे दंडित किया गया। दशरथ प्रसंग भी उसी क्लासिकल विचारधारा की पुष्टि का ही एक प्रसंग है, मनुष्य ईश्वर की तरह किसी को मन मांगा वरदान देने की हिमाक़त करेगा तो मुसीबत में फंसेगा, भले ही वह मनुष्य लोक में राम का पिता दशरथ ही क्यों न हो! या लक्ष्मणरेखा लांघने वाली अपनी पत्नी सीता ही क्यों न हो!
       रामचरितमानस की रचना सामंती समाज के ऐसे संकट काल में हुई जब उसके प्राचीन ढांचे को दलितों और कारीगरों की ओर से चुनौती मिल रही थी जो अवतारवाद के खि़लाफ़ जन जागृति फैला रहे थे, ब्राह्मणवाद पर हमले हो रहे थे। कबीर कह रहे थे कि ‘पंडित वाद वदै सो झूठा’, ‘साधो, आयी सांच की आंधी’ वग़ैरह वग़ैरह। ऐसे में तुलसीदास ने अपनी रचना से उस समाज में विश्व के सभी महाकाव्यों में निहित क्लासिकल विचारधारा की परंपरा जैसी ही विचारधारा यानी ब्राह्मणवाद की पुनः प्रतिष्ठा कर दी जो आज तो उन तमाम समुदायों के दिल दिमाग़ पर भी हावी है जिनके गुरु या फिर धर्मसंस्थापक कट्टर ब्राह्मणवादविरोधी विचारधारा के प्रचारक और ज्ञानमार्गी थे। मुक्तिबोध ने ठीक ही टिप्पणी की थी: "एक बार भक्ति-आंदोलन में ब्राह्मणों का प्रभाव जम जाने पर वर्णाश्रम धर्म की पुनर्विजय की घोषणा में कोई देर नहीं थी। यह घोषणा तुलसीदासजी ने की थी।...निर्गुण मतवाद के जनोन्मुख रूप और उसकी क्रांतिकारी जातिवादविरोधी भूमिका के विरुद्ध तुलसीदासजी ने पुराणमतवादी स्वरूप प्रस्तुत किया।(मुक्तिबोध रचनावली-5,  पृ-291)