मंगलवार, 29 दिसंबर 2009

त्रिलोचन की कविताई


आधारशिला पत्रिका के संपादक ने मेरा यह लेख प्रकाशित करने के लिए मांगा तो मैंने सोचा कि क्यों न यह लेख मैं अपने ब्लाग पर भी डाल दूं । इसी लिए अब मैं यह लेख यहां दे रहा हूं :


त्रिलोचन की कविताई
‘धरती’ से लेकर ‘उस जनपद का कवि हूं’ तक के काव्य संकलनों की यात्रा में त्रिलोचन की कविताई का विकास तलाशना बहुत दुरूह और श्रमसाध्य काम है । त्रिलोचन की कविता का पहला दौर वह था जब भारत अपनी आज़ादी की जद्दोजहद में लगा था । ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का नारा जहां मुक्तिकामी ताक़तों को संघर्षवती चेतना से लैस करता है वहीं कलाकारों और रचनाकारों में रूमानियत भी लाता है । विश्वसाहित्य इस बात का प्रमाण है कि मानव इतिहास में जब एक युग से दूसरे युग में प्रवेश करने के मुक्तिसंघर्ष छिड़े हैं साहित्य में मुक्त कल्पना का खेल देखने को मिला है । फ्रांस की क्रांति ने समूचे यूरोप में नयी साहित्यधारा को जन्म दिया और रूमानियत के रूप में कल्पना की मुक्ति व्यक्त हुई । इंग्लैंड में नवआभिजाल्यवादी चौखटे और बंधी बंधायी काव्यशैलियां टूटीं और रोमांटिक साहित्य का प्रादुर्भाव हुआ । ‘समानता, बंधुत्व और स्वतंत्रता’ का नारा साहित्य में भी प्रतिफलित हुआ । अठाहरवीं सदी में फ्रांसीसी क्रांति से पहले की कविता शहर की चारदीवारी में घिरी रही, शहरी विषय ही कविता के लिए उपयुक्त विषय माने गये, एक खास छंद ही उपयुक्त छंद माना गया । मगर फ्रांस की क्रांति के बाद कविता आम जन की बात करने लगी, उसने देहाती जीवन और भूखे नंगे लोगों को भी कविता का विषय बनाया क्योंकि उनकी शक्ति का एहसास समूचे यूरोप को हो गया था । इस एहसास ने कवियों में कल्पना की उड़ान को जगाया । यही वजह है कि रूमानी कविता में आकाशचारी बिंबों की भरमार मिलेगी । बादल, चिडि़या, इंद्रधनुष, चांद, सितारे, हवा, आकाश आदि से रूमानी कविता भरी पड़ी है । आज़ादी के दौर की हमारी कविता में कल्पना की उन्‍मुक्‍त उड़ान ​सिर्फ छायावादी कवियों में ही हो, ऐसा नहीं है । छायावादी कविता के अगले चरण में यानी प्रगतिवादी कविता में भी हमें इस रूमानियत के दर्शन लगातार होते हैं । साम्राज्यवादविरोधी रचनाशीलता जितनी अधिक अपनी धरती से जुड़ी थी, उतनी अधिक अपने आकाश से भी । त्रिलोचन की कविता में भी हमें वह धरती और आकाश देखने को मिलता है जिसकी पहचान और जिसका एहसास भारत के स्वाधीनता आंदोलन ने कराया था ।
आज़ादी के बाद के दौर की कविताओं में हमें एक तब्दीली दिखायी देती है और वह तब्दीली है कथ्य में ठंडापन और शिल्प का अतिरिक्त आग्रह । आज़ादी के बाद कवि का काम सिफ़‍र् कलात्मक शब्दरचना भर रह गया, राजनीतिक स्तर पर उसे नव निर्माण का और योजनाबद्ध विकास का आश्वासन मिला, इसलिए रचनाकार का काम किसी तरह की नुक्ताचीनी का नहीं था, उसका सरोकार भी राजनीति से नहीं था, वह काम तो नेहरू के लिए छोड़ दिया गया था, कलाकार तो ​सिर्फ रूप का पुजारी था और इसलिए उसके लिए काव्य शब्द था जो हिमाविद्ध था या ठंडा लोहा । उसकी वह ऊर्जा और उत्ताप गा़यब था जो स्वाधीनता संग्राम ने उसे दिया था । इसके लिए वह दोषी नहीं था, सामाजिक हालात ही उसे इस ओर प्रेरित कर रहे थे। त्रिलोचन की कविता में भी शब्द और शिल्प का यह आग्रह हमें उनकी छठे दशक की रचनाओं में बराबर मिलता है । मुक्तिबोध ने अपनी उस दौर की एक कविता में ठीक ही कहा था :
कविता तब मोतिया सीप थी
धरती के उस एक अश्रु के लिए
कि जो नभ की कमज़ोरी देख गला था ।
लेकिन नभ तो
आसमान था–––
स्वयं उतर वह
झरनों, नदियों, झीलों के नीले प्रवाह के रूपों में
धरती के उर पर पिघल चला था ।
(1/315–316, मुक्तिबोध रचनावली )
त्रिलोचन के ‘उस जनपद का कवि हूं’ संकलन में उनकी दूसरे दौर की कविताएं हैं जिनमें छठे दशक की हमारी मन:स्थिति और शब्दशिल्प के प्रति अतिरिक्त आग्रह मिलता है । त्रिलोचन के काव्यकर्म में यही वह दौर है जिसमें सानेट का प्राचुर्य है । नये शिल्प की तलाश जो कि ज्यादातर ‘सानेट सानेट के लिए’ की सीमा तक पहुंच गयी है, रचनाकारों के आसपास की सामाजिक चेतना के कारण बदली हुई मनोदशा को ही व्यक्त करती है क्योंकि उसे लगता है कि आज़ादी हासिल कर लेने के बाद ‘बसंत आ गया’ :
प्राणाधिके, बसंत आ गया । गूंज रहा था
प्राणों में जो नव जीवन स्वर इन नयनों में
आज रूप बन कर समा गया ।...
छठे दशक में रूप की तलाश ​सिर्फ अज्ञेय या भारती ही नहीं कर रहे थे, अकेलेपन और सूनेपन का राग आधुनिकताबोध के कवियों की चेतना का ही हिस्सा नहीं था, वह उस मोहप्लवित समाज का स्वर था जो आश्वासनों के सहारे सुनहरे कल का सपना ले रहा था । कवि कलाकार भी अपने आसपास के समाज से कट कर एकाकी होने में ही, असंग होने में और अकेले में साधना में लग जाने में ही अपना अस्तित्व तलाश कर रहा था । त्रिलोचन की संवेदना ने भी यह स्वीकार किया कि ‘जीवन का क्रम अकस्मात् कुछ और हो गया, अब तक जो कुछ पाया उसका मूल्य खो गया ।’ इसीलिए त्रिलोचन के वाचक को ‘पथ सूना’ लगता है :
पीछे मुड़कर देख रहा है, पथ सूना है
जिस पर चलता रहा और चलता जाऊंगा
आगे भी । मुझको उस सीमा को छूना है
जहां असीम मुसकराता है । मैं गाऊंगा
जीवन के एकांत क्षणों में ।...
एक अन्य सानेट का वाचक कहता है कि ‘न जाने कैसा कुछ सूनापन प्राणों में भर आया है ।’ इस तरह एक और सानेट में वाचक बताता है कि ‘सूनापन पाया, अपने आस–पास ’ इस सूनेपन को भरने के लिए कवि प्रकृति की ओर मुड़ता है और प्रकृति से फिर मानव पीड़ाओं की ओर । यह प्रक्रिया क़रीब–क़रीब ऐसी ही बन पड़ी है जैसी हमें अंग्रेज़ी कवि वड्‍र्सवर्थ में दिखायी पड़ती है । हालांकि त्रिलोचन ने अपने सानेटों में शेक्सपीयर का फ़ार्म भी अपनाया है, और वड्‍र्सवर्थ का भी, मगर संवेदना का उतार–चढ़ाव मूलत: वड्‍र्सवर्थ जैसा है । त्रिलोचन भी जब सूनापन झेलते हैं तो वड्‍र्सवर्थ की तरह प्रकृति की और मुड़ते हैं । छठे दशक में लिखे गये उनके सानेटों में हमें यही प्रवृति दिखायी देती है । प्रकृति का हर रंग–रूप त्रिलोचन को मोहता है, वह प्रकृति बसंत की हो, शरद की हो, या वर्षा की, त्रिलोचन के सानेटों में वह खूब रमती है :
फूलों की चांदनी नीम में जो आयी है
खींच रही है सुरभि–डोर से मेरे मन को
बरबस अपनी ओर, भला कैसे इस जन को
कृपापात्र कर दिया सुछवि ने जो छायी है
टहनी टहनी पर...
इस दौर की कविताओं में प्रकृति की ओर पलायन नहीं है, उसका आब्ज़र्वेशन है । इस ममता से प्रकृति को निहारना त्रिलोचन के वाचक को सुख देता है । आज़ादी के बाद जिस तरह के समाज की कल्पना, समता पर आधारित जिस व्यवस्था की कल्पना कविजनों ने की थी वह तो दिखायी दे नहीं रही थी, आश्वासनों का आसव ज़रूर पिलाया गया था जिसके नशे में प्रकृति ही––बंधनहीन प्रकृति ही––सुकून दे सकती थी । इसलिए यह आकस्मिक नहीं है कि कवि या तो ‘शिरीष का फूल’ देखता रहता है या ‘बाढ़ चांदनी की आयी’ देखता है या फिर देखता है कि–––
संध्या ने मेघों के कितने चित्र बनाये––
हाथी, घोड़े, पेड़, आदमी, जंगल, क्या क्या
नहीं रच दिया और कभी रंगों से क्रीड़ा
की, आकृतियां नहीं बनायीं ।
त्रिलोचन के एक अन्य सानेट–संकलन ‘शब्द’ में संवेदना का अगला पड़ाव नज़र आता है । ये सानेट 1962 के प्रारंभिक महीनों का उत्पादन हैं । ज़ाहिर है कि इस दौर तक पहुंचते पहुंचते कवि का अनुभवसंसार और अधिक व्यापक हुआ है । मोहभंग की प्रक्रिया ने त्रिलोचन पर भी असर डाला, युवा कवियों में इस मोहभंग ने निषेधवादी रूप अखितयार किया था, त्रिलोचन ने इसे अपने तरीके़ से बयान किया :
उन लहरों पर हूं जिनके तल में भाषाएं
कितनी बैठ चुकी हैं, कितने सुंदर सपने
बिला चुके हैं पानी बन कर, सत्य कभी का
असत् हो चुका है; अब नयी–नयी आशाएं
दिग्दिगंत रूप संवार रही हैं, भाव अभी का ।
हालांकि इन सानेटों में भी कवि बार–बार प्रकृति की ओर मुड़ता है, उसे वहां अब भी सुकून मिलता है, मगर साथ ही इस व्यवस्था के चरित्र की पहचान भी होती दिखायी देती है और कवि इसकी जगह बेहतर व्यवस्था का सपना भी संजोने लगता है :
यहां बाप दादों को नहीं हमें रहना है ।
हमको अपनी आंखों देख–रेख करनी है
अपनी अपनों की अब तो इतिहास पुराना
संग्रहालयों की शोभा है–– सच कहना है
इस जीवन का, घर की नयी नींव धरनी है,
धारण करना है, नवीन मानव का बाना ।
नवीन मानव का सपना संजोए त्रिलोचन का वाचक कभी आशा में और कभी निराशा में अपनी झीनी–झीनी कविता की चादर बुनता है और ‘शब्द’ को कुछ इस तरह रोपता है जिनमें केदारनाथ अग्रवाल की कविता की तरह फूल नहीं रंग बोलते हैं (शब्द–संग्रह उन्हें ही समर्पित भी है) । त्रिलोचन के इन रंगों में ही कहीं न कहीं आशावाद भी फूटता है :
जीवन के जयगान पराजय में भी दूने
होंगे, मन का खेल आप ही उतर जायगा,
दिवस रहे या रात रहे यात्री को इससे
क्या––सारा आकाश पंख से अपने छूने
विहग अरुद्ध उड़ान भरेंगे, मनुज पायगा
पद पद पर संदेश नया मिलकर जिस तिस से ।

‘ताप के ताए हुए दिन’ की कविताओं में त्रिलोचन का रचना व्यक्तित्व अपनी समग्रता में पेश होता है । इस संग्रह में उनकी छोटी–छोटी कविताएं, सानेट और कुछ लंबी कविताएं भी हैं । छोटी कविताएं ज्यादातर चित्रात्मक हैं, उन्हें अर्थों में बांधना न तो संभव है और न ही उसकी ज़रूरत है । इन चित्रों में कहीं ‘सरसों के फूल’ हैं तो कहीं ‘जलरुद्ध दूब’ है, कहीं ‘केले के पत्ते’ हैं तो कहीं ‘काई’ है और कहीं मानव ‘संबंधों के हवामहल’ भी हैं । केदारनाथ सिंह के शब्दों में ‘त्रिलोचन के शिल्प की एक खास बात यह है कि वे किसी भी वस्तु का प्रतीकवत् प्रयोग नहीं करते । अपनी कविता में, वे अपनी सारी काव्यात्मक जि़म्मेदारी के साथ उसे ‘वस्तु’ ही बने रहने देते हैं ।’ कहने का तात्पर्य यह है कि त्रिलोचन यथार्थ को प्राय: ‘प्रकृतिवादी ढंग’ से और अपने पूरे भोलेपन से पेश करने के अभ्यस्त हैं । जिस तरह निराला ने परवर्ती दौर में यथार्थ के भीतर छिपे व्यंग को वाणी दी थी, उसी परंपरा में त्रिलोचन की कुछ कविताएं भी रखी जा सकती हैं । ‘ताप के ताए हुए दिन’ में शामिल सानेट भी त्रिलोचन के इस सामाजिक व्यंग की झलक दे देते हैं । ‘चुनाव के दिन’ या ‘गधे की याद’ में लिखे गये सानेट इस संदर्भ में देखे जा सकते हैं ।

त्रिलोचन की जो लंबी कविताएं संवेदना संकलन से जोड़ती हैं उनकी ऊर्जा उसने साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ी गयी स्वाधीनता की लड़ाई से पायी थी । निराला की तरह त्रिलोचन ने भी ‘मैं शैली अपनायी’ है और वड्‍र्सवर्थ की तरह आत्मचरितात्मक लंबी कविताएं लिखी हैं जिनमें ‘नगई मेहरा’ विशेष महत्व की कविता है । वड्‍र्सवर्थ ने जिस तरह अपनी ‘माइकेल’ शीर्षक कविता में इंग्लैंड के देहाती जीवन और उसके बदलते परिवेश को चित्रित किया है, उसी तरह त्रिलोचन ने ‘नगई मेहरा’ में भारत के देहात का एक अद्भुत चित्र पेश किया है । गांव की जिंदगी में व्याप्त विषमता, रूढि़यां और पिछाड़पन और उसके सकारत्मक पहलू भी इस कविता में चित्रित हुए हैं। कवि ने अपनी तरफ़ से यथार्थ में न तो कुछ अतिशय जोड़ने की कोेशिश की है और न ही ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है’ की भावुकता का शिकार होकर उसने वहां की जि़ंदगी को आदर्शीकृत ही किया है । नगई मेहरा के चरित्र में जो अंतर्विरोध है (यानी रामचरित मानस से प्रेम और पंच परमेश्वर में आस्था एक ओर, और सास को बिठा लेना दूसरी ओर) वह भारत के देहात के भीतर परंपरा भंजन की दुहरी प्रवृतियों का आधार बना है जिस पर स्थिर होकर वह अपने वक्त को अतिक्रमित कर गया ।

त्रिलोचन की कविता का अपना व्यक्तिव है जो किसी गहरे दर्शन के सूत्र की मदद से यथार्थ को पहचानने और उसमें अर्थ भरने की कोशिश नहीं करता । वह वस्तुवादी चौखटे में चित्र खींचने और, विष्णुचंद्र शर्मा के शब्दों में, ‘शब्दों का स्थापत्य पेश करने में माहिर रचना–व्यक्तित्व’ है । यही वजह है कि त्रिलोचन की कविता में कहीं कोई तनाव नहीं, मन को झकझोर देने वाला कोई झंझावात नहीं । शब्दों को सजा कर और उन्हें तराशकर पेश करने की आदत कई बार उन्हें प्रकृतवादी कलाकार बना देती है । आज कलाकार के लिए यथार्थ को ज्यों को त्यों पेश कर देना काफ़ी नहीं है, उसमें उन अथों‍र् को भरने की कोशिश भी होनी चाहिए जो हमें गहरे तक छूते हैं । मौजूदा जनवादी कवियों को त्रिलोचन की यथार्थ को चित्र में बांधने की कला मदद कर सकती है किंतु ये चित्र तक तब अधूरे रहेंगे जब तक इनमें सामाजिक यथार्थ के अर्थ अनुषंग प्रस्तुत नहीं किये जायेंगे । शायद आज की पीढ़ी इस मामले में काफ़ी सजग है, मगर इतने भर से संतोष कर लेना काफ़ी नहीं है । अपनी परंपरा से सकारात्मक तमाम तत्वों को आत्मसात करके हिंदी कविता को स्वस्थ जनवादी दिशा में ले जाने की जि़म्मेदारी आज की पीढ़ी पर है । इस जि़म्मेदारी को किसी तरह के फ़ामू‍र्लों से नहीं निभाया जा सकता है । इसे पूरा करने के लिए सामूहिक सोच और गहन आत्मसंघर्ष करने की हमें ज़रूरत है । त्रिलोचन शास्त्री इसी अर्थ में हमारे कवियों के कवि उसी तरह रहेगे जैसे मुक्तिबोध और शमशेर ।


बुधवार, 25 फ़रवरी 2009

काडवैल पर लेख

नया पथ के जनवरी मार्च 2009 के अंक में मैंने एक लेख इंग्‍लैंड के एक युवा मार्क्‍सवादी चिंतक क्रिस्‍टोफर काडवैल पर दिया है । उसे मैं यहां अपने ब्‍लाग पर भी दे रहा हूं ।
क्रिस्टोफ़र काडवेल : एक प्रेरक मार्क्‍सवादी युवा चिंतक
चंचल चौहान
क्रिस्टोफर काडवैल पर चर्चा करते ही 1970 के आसपास का वह माहौल अचानक याद आ जाता है जब मैंने अंग्रेज़ी साहित्य में दिल्ली विश्वविद्यालय से एम ए करने के बाद और एक सांध्य कालेज में प्राध्यापक की नौकरी पाने के बाद अपनी लेखकीय शुरूआत की, उस समय परिवेश में एक बेचैनी थी, युवाओं में व्यवस्था बदलने के लिए विचारधारा की पहचान का सिलसिला चल रहा था, क्रांतिकारी, अतिक्रांतिकारी, संशोधनवादी विचारों के बीच गहमागहमी थी, और इसी सारे वातावरण के बीच मेरा भी विचारधारात्मक नज़रिया विकसित हो रहा था । यह नज़रिया साठोत्तरी बरसों के सर्वनिषेधवाद से अलग एक सकारात्मक नजरिया था, समाज के विकास की मंजिल पहचानकर एक नये समाज की रचना का नजरिया था, लेखक के प्रतिबद्ध होने का नजरिया था, वह उस साठोत्तरी प्रवृत्ति का निषेध कर रहा था जिसमें यह कहा जा रहा था कि ‘जब सब कुछ ऊल ही जलूल है / तो सोचना फिजूल है’ । उस दौर में उभर रहे रचनाकार और आलोचक यह मानते थे कि एक बेहतर समाज व्यवस्था वैज्ञानिक विश्वदृष्टि से लैस राजनीति के आधार पर बनायी जा सकती है। तमाम मतभेदों के बावजूद क्रांति की जरूरत सभी के दिलो दिमाग में काम कर रही थी । शमशेर जी की पंक्ति ‘ समय है साम्यवादी’ या मुक्तिबोध की पंक्ति, ‘तय करो किस ओर हो तुम ’ उस दौर के रचनाकारों को प्रेरित कर रही थी । रचनाकार सर्वहारावर्ग और उसकी विचारधारा के साथ अपनी पक्षधरता घोषित कर रहे थे । उन दिनों जो भी मार्क्‍सवादी साहित्य जहां भी मिलता था, खरीद कर या लाइब्रेरी से ले कर पढ़ डालने की अजीब पागलपनभरी प्रवृत्ति मेरे भीतर भी थी । उसी दौर में क्रिस्टोफर काडवैल की पुस्तक ‘इल्यूजन एंड रियलिटी’ भी देखी और खरीद ली, इस युवा लेखक के बारे में जानकारी भी मिली और उससे प्रेरणा भी, क्योंकि शब्द और कर्म में एकरूपता का जो आदर्श काडवेल में मिलता है, वह बहुत कम दिखायी देता है । ब्रिटिश समाज में शायद ही कोई ऐसा अदभुत व्यक्तित्व हुआ हो जिसने इतनी कम आयु में एक परिपक्व विद्वान की तरह लेखन किया हो।
क्रिस्टोफर काडवैल का असली नाम क्रिस्टोफर सेंट जान स्प्रिग था । उनका जन्म 20 अक्टूबर 1907 को लंदन के दक्षिण–पश्चिमी इलाके में 53 मोंटसरेट रोड पर स्थित रिहाइश में हुआ था । काडवैल की औपचारिक शिक्षा तो 15 साल की उम्र में ही खत्म हो गयी जब उनके पिता जो कि डेली एक्सप्रेस नामक अखबार के साहित्य संपादक हुआ करते थे अपनी नौकरी खो बैठे और पूरे परिवार को ब्रेडफोर्ड जा कर रहना पड़ा जहां काडवैल ने योर्कशायर आब्ज़र्वर नामक अखबार में एक पत्रकार के रूप में काम करना शुरू किया । इतनी कम उम्र में भी सारी दुनिया का ज्ञान हासिल कर लेने की ललक काडवैल में थी, कविता, उपन्यास, कहानी से ले कर दर्शनशास्त्र और फि़जिक्स या गणित, सभी को भीतर तक जान लेने और आलोचनात्मक नज़र से सभी के सारतत्व को समझ लेने की अदम्य कोशिश उनके व्यक्तित्व में दिखायी देती है । एक आलोचक ने लिखा कि काडवेल लेनिन के उद्धरण को अक्सर दुहराते थे जिसमें कहा गया था कि ‘कम्युनिज्म सिर्फ एक खोखला शब्द भर रह जायेगा, और एक कम्युनिस्ट सिर्फ एक धोखेबाज़, अगर उसने अपनी चेतना में समूचे मानव ज्ञान की विरासत को नहीं सहेजा है ।’ काडवैल एक किताबी मार्क्‍सवादी नहीं बनना चाहते थे, अगर मार्क्‍स के सिद्धांत को कोई अपनाता है, तो उसे कर्म में भी एक मार्क्‍सवादी बनना चाहिए, इसलिए वे ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बन गये और लंदन के मज़दूर इलाके़ की एक ब्रांच के सदस्य हो गये । स्पेन में फासिस्टों के खिलाफ जो अंतर्राष्ट्रीय ब्रिगेड वहां लड़ रही थी, उसमें शरीक होने के लिए दिसंबर 1936 में एक एम्बुलेंस खुद चलाकर ले गये, वहां मशीनगन चलाने की ट्रेनिंग हासिल की, उन्हें फिर इंस्ट्रक्टर बना दिया गया, वहां एक दीवाल पर लिखे जाने वाला अखबार भी संपादित किया । वहीं 12 फरवरी 1937 को युद्ध में काडवैल मारे गये । बताया जाता है कि काडवैल के भाई थ्योडोर ने कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रेटरी को उस वक्त छप रही काडवैल की मशहूर किताब ‘इल्यूजन एंड रियैलिटी’ के प्रूफ दिखा कर निवेदन किया कि काडवैल को मोर्चे से वापस बुला लिया जाये, शायद पार्टी की ओर से एक टेलीग्राम भी भेजा गया, मगर तब तक देर हो चुकी थी, और काडवेल के देहांत के बाद ही वह टेलीग्राम स्पेन पहुंच पाया जिसकी वजह से थ्योडोर पार्टी से सख्त नाराज़ रहे । काडवैल की किताबे उनके मरणोपरांत ही प्रकाशित हो पायीं, ‘इल्यूजन एंड रियैलिटी’ मैकमिलन से 1937 में ही छप गयी, जो खुद काडवैल दे कर गये थे ।
मार्क्‍सवाद के अध्ययन से पहले काडवैल में एक विश्वदृष्टि हासिल करने की बेचैनी थी, अपने एक मित्र को पत्र लिख कर उन्होंने यह स्वीकार किया था कि उनके पास अभी सभी कुछ बिखरा बिखरा सा है और उसे एक व्यवस्थित रूप देने के लिए सर्वसमावेषी विश्वदृष्टि की उन्हें जरूरत है । और जब काडवैल को मार्क्‍सवाद के रूप में वह विश्वदृष्टि हासिल हुई तो उन्होंने हर वस्तुस्थिति, हर ज्ञान की सारवस्तु को पूरी गहराई से व्याख्यायित करना शुरू किया । उनके देहांत के बाद उनकी जो जो किताबें प्रकाशित हुईं, ब्रिटेन के पाठकों ने उन्हें अचरजभरी उसांस से पढ़ा और वे इतनी कम उम्र के लेखक की चरम विद्वत्ता को सराहे वगैर न रह सके । सभी को यह अफसोस भी हुआ कि क्यों ऐसा विद्वान इंगलैंड ने इस तरह खो दिया जिसके सिद्धांत ज्ञान की दुनिया में अभूतपूर्व इजाफा करते । ‘द क्राइसिस आफ फिजिक्स’ जब 1939 में छपी तो उसके संपादक और भूमिका लेखक ने सही ही लिखा कि ‘काडवैल ने सामाजिक और वैज्ञानिक ज्ञान को एकमेक कर दिया, ऐसी समझ किसी परिपक्व वैज्ञानिक में भी दिखायी नहीं पड़ती । इतनी कम उम्र के लेखक में इस समझ को देख कर बेहद अचरज होता है’ । उस किताब का रिव्यू लिखते हुए एक लेखक ने कहा कि काडवैल ने यह स्थापित किया कि किस तरह फिजिक्स की थ्योरी समाज में विकसित हो रहे आर्थिक आधार से संचालित होती हैं, और काडवैल ने अपने इस सिद्धांत को पूरी विद्वत्ता से स्थापित किया है । हालांकि किताब को संशोधित करने का वक्त लेखक को नहीं मिला फिर भी वह किताब ‘विचारों की एक खान’ है जिससे आगामी पीढि़यां बहुत कुछ हासिल कर सकती हैं।
अंग्रेज़ी के जाने माने आलोचक जान स्ट्राची इस प्रतिभाशाली युवा की रचनाशीलता पर अचंभित थे । उन्होंने लिखा कि काडवैल की दिलचस्पी ज्ञान के हर क्षेत्र में थी, उड्डयनविज्ञान से ले कर कविता, जासूसी कहानियां, क्वान्टम मिकैनिक्स, दर्शनशास्त्र, प्रेम, मनोविश्लेषणशास्त्र तक हर ऐसे क्षेत्र में जिसमें उस युवा को कुछ कहना है । स्ट्राची ने यह भी रेखांकित किया कि काडवैल में शब्द और कर्म की एकता थी । उन्होंने काडवैल के व्यक्तित्व के अन्य अनेक गुणों की प्रशंसा की जो ब्रिटिश मजदूर आंदोलन तक में कम ही पाये जाते थे । स्ट्राची ही नहीं, लेफ्ट रिव्यू नामक पत्रिका के इर्दगिर्द जमा बड़े बुद्धिजीवी भी काडवैल के लेखन को लेकर हैरान थे । इस पत्रिका के उस वक्त के संपादक एजेल रिकवर्ड ने जिन्होंने बाद में काडवैल की एक किताब, फर्दर स्टडीज़ इन डाइंग कल्चर की भूमिका भी लिखी थी, कहा था कि काडवैल में ज्ञान हासिल करने की असीम आकांक्षा थी, डाक्टर फास्टस की तरह की महत्वाकांक्षी काडवैल सारे विज्ञानों में दक्ष होना चाहते थे, रिकवर्ड ने यह भी बताया कि मनोविश्लेषणशास्त्री चेतना पर एक निबंध छपाने से पहले काडवैल ने एक प्रसिद्ध मनोचिकित्सक के पास भेजा जिससे कि उनकी मान्यताएं कहीं उस क्षेत्र में हुए अनुसंधानों से आउट आफ डेट न हो जायें, उस मनोचिकित्सक ने अचंभा भरा जवाब लेखक के पास भेजा और अपनी सहमति जतायी । सच्चाई यह है कि यह उस विश्वदृष्टि का ही कमाल था, जिसके माध्यम से काडवैल हर बौद्धिक समस्या को सामाजिक विकास की प्रक्रिया में देख रहे थे और तर्कसंगत वैज्ञानिक कारण पेश कर रहे थे, वह समस्या चाहे फिजिक्स के संकट की हो, या सौंदर्यशास्त्र या कविता के विकास की या सांस्कृतिक पतन की ।
उन दिनों सांस्कृतिक संकट की बात आम थी, सभी जानते हैं कि टी एस एलियट की कविता द वेस्टलैंड इसी संकट की थीम लेकर रची गयी थी, और एलियट उस संकट से मुक्ति अतीत में और खासकर भारतीय उपनिषदों में दी गयी सीख ‘दा, दमयति, दयाध्वाम्’ में तलाश कर रहे थे । काडवैल ने इस सांस्कृतिक संकट के बारे में अपनी शैली में लिखा, ‘या तो हम सब के बीच शैतान घुस आया है, या फिर उस संकट का कोई कार्यकारण संबंध होगा जिसकी चपेट में अर्थशास्त्र, विज्ञान और कला आदि आ गये हैं ।’ काडवैल ने कहा कि इस संकट की पहचान कार्यकारण संबंध तलाशने से ही संभव है, फिर पूंजीवादी चिंतकों पर कटाक्ष करते हुए कहा कि ‘ये दुनियाभर के फ्रायडों, एडिंगटनों, स्पेंग्लरों, और केंसों ने इस संकट के मूल को क्यों नहीं तलाश किया, दर असल ये खुद इलाज नहीं, खुद रोग हैं ’। काडवैल जानते थे कि इस संकट के विश्लेषण और संश्लेषण का कार्यभार मार्क्‍सवादियों का है । पूंजीपतिवर्ग ने अभी गौण भ्रांतियों यानी ईश्वर और धर्म, टेलियोलाजी और मेटाफिजिक्स की भ्रांतियों से ही खुद को मुक्त किया है, उसकी अपनी आधारभूत भ्रांतियों की जकड़बंदी जस की तस है ।’
अपने लेखन में काडवेल ने पूंजीपतिवर्ग की चेतना का ऐसा सूक्ष्म विश्लेषण किया है जो अचंभित कर देता है । उन्होंने पूंजीवादी ‘स्वतंत्रता’ की अवधारणा की झोल को सामने ला दिया है, पूरे तार्किक ढंग से यह बताया है कि शोषक–शासकवर्ग की स्वतंत्रता शोषितवर्ग की पराधीनता पर आधारित है । पूंजीपतिवर्ग की स्वतंत्रता की अवधारणा के विकास की प्रक्रिया से काडवैल ने शेक्सपीयर के नाटकों की चेतना को, गेलीलियो और न्यूटन के सिद्धांतों को, दे कार्त के दर्शनशास्त्र तक को जोड़कर देखा । यांत्रिक भौतिकवाद की आलोचना करते हुए उन्होंने उससे जुड़े वैज्ञानिकों और चिंतकों की भी आलोचना अपने परिप्रेक्ष्य से की । काडवैल के मुताबिक पूंजीपतिवर्ग ने एक समय तक भौतिक पदार्थ की सत्ता को वरीयता दी और उसे मानव मन या भाव से अलग काट कर देखा, सब कुछ ‘पदार्थ’ ही था, निजगत या भाव कुछ नहीं था । यह सबजैक्ट और आब्जैक्ट के बीच खाई का दौर था जिसमें पदार्थ ही मुख्य था । फिर एक दौर आया जिसमें पदार्थ की सत्ता गायब हो गयी और मनोचेतना या सबजैक्ट या भाव ही प्रमुख हो गया । इस दौर ने भाववादी दार्शनिक पैदा किये, बर्कले, ह्यूम, कांट, और अंतत: हेगेल । मगर सब्जैक्ट और आब्जैक्ट के बीच द्वैत बना ही रहा । इस नये भाववादी दौर का चरमोत्कर्ष हेगेल में हुआ जिन्होंने विचार को या भाव को मानवमन से भी स्वतंत्र कर दिया । इस तरह पाश्चात्य पूंजीवादी दर्शनों का आलोचनात्मक विवेक से विश्लेषण करते हुए काडवैल पूंजीवादी दुनिया में दार्शनिक चिंतन का पतन देखते हैं क्योंकि वे दर्शन अमल में नहीं लाये जा सकते । यही संकट विज्ञान का भी है, विज्ञान के ऐसे सिद्धांत जो अमल में खरे नहीं उतरते, शब्दजाल से ज्यादा और कुछ नहीं हैं। काडवैल के दार्शनिक चिंतन से प्रभावित हो कर एक अंग्रेज़ विदुषी हेलेना शीहान ने एक पूरी पुस्तक मार्क्सिज्‍म एंड द फिलासफी आफ साइंस : ए क्रिटिकल हिस्टरी लिखी है, इसमें एक पूरा अध्याय साइंस की फिलासफी के बारे में काडवैल पर है, उनके साहित्यिक विचारों पर दूसरे विद्वानों ने लिखा है । हेलेना लिखती हैं कि ‘काडवैल की कोई भी किताब हो, चाहे वह साइंस के बारे में हो या कला के बारे में, वह किताब दोनों विषयों पर बात करती है, उनकी साइंस की फिलासफी सौंदर्यशास्त्र में मौजूद है और सौंदर्यशास्त्र की साइंस में । उनकी विश्वदृष्टि धागे की तरह मौजूद है ।’ उन्होंने फिलासफी के प्रति काडवेल की लिखी एक कविता का भी हवाला दिया है । काडवैल ने अपने समय तक का लगभग सारा उपलब्ध मार्क्‍सवादी साहित्य पढ़ रखा था, और एक आलोचनात्मक दृष्टि अर्जित की थी । मगर इस दृष्टि में उस समय के साम्राज्यवाद के संकट के दौर की झलक थी, इसलिए उन्हें पूंजीवाद का पतन और भावी विनाश अवश्यंभावी लगता था । यही उनके उत्साह का आधार भी था । यह चर्चा दुनियाभर के कम्युनिस्टों में थी कि पूंजीवाद साम्राज्यवाद की चरमस्थिति में पहुंच गया है और अब उसके पतन और विनाश का सिलसिला शुरू होने वाला है । हालांकि इस अधूरे सच को एक दस्तावेज़ के रूप में दुनियाभर की कम्युनिस्ट पार्टियों ने 1960 में अपनाया था, मगर यह समझ बहुत पहले से काम कर रही थी । काडवैल की किताबों के शीर्षक ही बूर्जुआ संस्कृति के मरण या संकट को संकेतित करते हैं । यह समझ तब तक दुनिया भर के कम्युनिस्टों में मौजूद रही जब तक सोवियत संघ का विघटन नहीं हुआ था । सोवियत संघ के विघटन के बाद ही इस पुरानी समझ पर प्रश्नचिह्न लगा और यह समझ बनी कि अभी पूंजीवाद में उत्पादक शक्तियों को विकसित करने की क्षमता खत्म नहीं हुई है, इसलिए वह टेक्नोलाजी को क्रांतिकारी तौर पर विकसित करता हुआ आगे बढ़ रहा है जैसा कि मार्क्‍स ने कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो में पूंजीवाद की विशेषताओं के बारे में लिखते हुए बताया भी था । यह तो सही है कि पूंजीवाद विश्व में बार बार संकट के दौर लायेगा, लेकिन उसका खात्मा या पतन तभी संभव होगा जब उसमें उत्पादक शक्तियों को आगे विकसित करने की क्षमता नहीं रहेगी, उसका मरण तभी संभव होगा । पूंजीवाद की विकास की क्षमता का इस्तेमाल अब इसी वजह से वे देश भी कर रहे हैं, जहां राजसत्ता कम्युनिस्ट पार्टियों के हाथ में है । जहां पूंजीवाद की कड़ी सबसे कमज़ोर है, वहां सर्वहारावर्ग अपने को विकसित करते हुए राजनीतिक सत्ता हासिल करने में कामयाब हो सकता है, मगर उसे भी अपने समाज को विकास के पूंजीवादी चरण के बीच ले जा कर आगे बढ़ाने की जरूरत पड़ रही है, जैसे कि नेपाल में सीधे समाजवाद में छलांग लगाने की परिस्थितियां नहीं हैं, वहां उत्पादक शक्तियों के विकास के लिए पूंजीवादी मंजि़ल से हो कर समाज को गुजरना ही पड़ेगा । चीन और वियतनाम तक अपने अनुभवों से सीखकर यही रास्ता अपना रहे हैं । काडवैल की समझ ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी की ही तरह ‘शुद्धतावादी’ थी जिसकी आलोचना स्वयं लेनिन को करनी पड़ी थी, दर असल, काडवैल जैसा युवा लेखक अपने समय की सीमाओं को कैसे लांघ सकता था, उनकी चेतना में पूंजीवाद के विनाश का, उसकी मृत्यु का स्वप्न पूरी ईमानदारी से झलक रहा था । उसके पतन को वे समाज के हर क्षेत्र में परिलक्षित कर रहे थे । अंग्रेजी कविता की व्याख्या करने वाली उनकी पुस्तक इल्यूजन एंड रियैलिटी में भी यही परिप्रेक्ष्य देखा जा सकता है । काडवैल अपनी अंग्रेज़ी कविता की समीक्षा करते वक्त कवियों के बारे में काफ़ी सख्त हो गये हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि वे सारे के सारे बूर्जुआ प्रवृत्तियों के शिकार हैं, वे उनमें से बहुत कम को ही बख्शते हैं, क्योंकि उनके लिए वे सारे के सारे पूंजीपतिवर्ग की संतानें हैं । रचनाकारों के साथ इस तरह का बर्ताव हर देश में मार्क्‍सवादी आलोचना के प्रारंभिक दौर में होता रहा है । कवियों की आधी अधूरी या विकृत विश्वदृष्टि की आलोचना के पीछे काडवैल की सर्वहारावर्ग के प्रति वह ईमानदार प्रतिबद्धता काम कर रही थी जिसके चलते उन्होंने अपने प्राण भी निछावर कर दिये । तमाम दिवंगत कवियों से उनकी कोई व्यक्तिगत दुश्मनी तो थी नहीं । पूंजीपतिवर्ग के प्रति घनघोर नफ़रत के कारण जहां भी उन्हें किसी कवि में पूंजीपतिवर्ग की विकृति दिखायी पड़ती थी, वे उसकी आलोचना किये बग़ैर नहीं रह सकते थे । इंगलैंड में मार्क्‍सवादी आलोचना का यह बिल्कुल शुरूआती दौर था, और ये ग़लतियां होना स्वाभाविक ही था । उनकी आलोचना से न तो शेक्सपीयर बच सके और न मिल्टन । रोमांटिक कवियों के पीछे काम कर रही क्रांति की भावना का तो उन्होंने सही आकलन किया मगर उन्हें भी पूंजीपतिवर्ग के खाते में ही खतिया दिया । इस तरह के अतिवाद हमारी हिंदी आलोचना में तो आज भी होते रहते हैं, लेकिन उस युवा अंग्रेज़ चिंतक के लेखन की गहराई इस लिए अचंभित करती है, कि अंग्रेज़ी कविता की आलोचना का ऐसा प्रयास इंग्लैंड में पहली बार हो रहा था। इस किताब में ग्रीक कविता या नाटक से ले कर अपने समकालीन काव्यसृजन (स्पेंडर, सी डे लिविस आदि तक) की आलोचना तक का विराट् फलक लिया गया है, मगर उनकी तीखी नज़र से ऐसे कवि भी नहीं बच पाये हैं जो भ्रांति के शिकार हैं, भले ही उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले ली हो, जो अपने जीवन और अपने कलाकर्म में एक फांक पैदा किये हों ।
आज के समय को देखते हुए काडवैल की आलोचना पद्धति संकीर्णतावाद की कमज़ोरी से जकड़ी हुई लग सकती है, मगर उसके पीछे छिपे पवित्र मंतव्य पर सवालिया निशान लगाना मुमकिन नहीं । सर्वहारावर्ग के प्रति अपनी ईमानदार प्रतिबद्धता के कारण वे सारे मध्यवर्ग को, मुक्तिकामी हर वर्ग या व्यक्ति को क्रांति के पक्ष में पूरी तरह खड़े होने का आह्वान करते हैं, क्योंकि इतिहास ने अपनी विकास यात्राा में समाज को विकास की अगली मंजि़ल तक ले जाने की जि़म्मेदारी सर्वहारावर्ग पर डाली है, इसलिए काडवैल को लगता था कि सर्वहारावर्ग की विचारधारा यानी मार्क्‍सवाद–लेनिनवाद और उसकी राजनीति यानी उसकी पार्टी के साथ पूरी तरह अपनी प्रतिबद्धता स्थापित किये बग़ैर कोई कवि या कलाकार अपनी सामाजिक जि़म्मेदारी कैसे निभा सकता है । इस तरह की थोड़ी ज्यादतियां युवा काडवैल ने कर डाली हैं, फ़ासीवाद के खि़लाफ़ जंग में यदि वे शहीद न हुए होते तो फ़ासीवादविरोधी व्यापक मोर्चा की कार्यनीति के अनुभव से अपना नया और ज्यादा तर्कसंगत और उदार परिप्रेक्ष्य विकसित करते, इसमें कोई शक की गुंजाइश नहीं । मगर इन सीमाओं से काडवैल का विश्वसर्वहारावर्ग को दिया गया अवदान, कम करके नहीं आंका जा सकता, वह युवा हम सबका एक प्रेरणास्रोत था और बना रहेगा ।

शनिवार, 7 फ़रवरी 2009

मेरी ब्लागीय शुरूआत

तो लो भई मैंने भी आखिर अपनी ब्लागीय शुरुआत कर ही दी । बचपन से यह बुरी आदत रही कि नयी टेक्नालाजी के प्रति आकर्षण रहा, १९९८ से घर में आ गया कंप्यूटर, उससे पहले रहा टाइपराइटर, हिंदी और अंग्रेजी दोनों । दोनों पर काम करना अठारह साल की उम्र से ही सीख लिया था, सो कंप्यूटर आते ही अपन ने उसे सीख लिया, जनवादी लेखक संघ का ईमेल भी तभी से मेरे ही हाथों बना, और अब यह ब्लागीय शुरुआत । पिछले बरस ही बनाया था एक ब्लाग, वह ठीक से काम नहीं कर पर रहा था, सो यह नये सिरे से बनाया है, अशोक चक्रधर और वागेश्री का आभार, उन्होंने ससम्मान भेंट की, सुविधा नामक यूनीकोड सी डी, पहले बसेरा नामक वेबसाइट से काम चलाना पडता था।
तो यह नयी शुरुआत "जनवाद की अवधारणा" पर अपने लेख से करता हूं । यह लिखा तो पहले था, कुछ परिवर्तनों के साथ उसे मैं यहां दे रहा हूं ।



जनवाद की अवधारणा
चंचल चौहान

जनवाद शब्द का प्रयोग हिंदी साहित्य में इतने अमूर्त ढंग से और इतनी तरह से किया जाता है कि उसका कोई ठोस अर्थ नहीं निकल पाता । जिस तरह पूंजीवादी-सामंती राजनीतिज्ञ `जनता´ शब्द का प्रयोग नारे के बतौर अपने भाषण में करते हैं और उसके नाम पर `पार्टी´ भी बनाते हैं, उसी तरह हमारे साहित्य में `जन´ और उससे जुड़े `वाद´ का इस्तेमाल भी काफी ढीलेढाले ढंग से किया जाता है । ज्यादातर लोग `जनवाद´ को `मार्क्सवाद´ का पर्याय और `जनवादियों´ को `मार्क्सवादी´ मानते हैं । यह धारणा सही नहीं है । यह तो ठीक है कि एक मार्क्सवादी एक अच्छा `जनवादी´ यानी `डेमोक्रेट´ हो सकता है या उसे होना चाहिए, लेकिन ऐसे बहुत से तबके और व्यक्ति जो मार्क्सवाद के विज्ञान से लैस नहीं है, समाज के रूपांतरण में `डेमोक्रेटिक´ भूमिका निभाते हैं, इसलिए `जनवाद´ एक व्यापक अवधारणा है जिसके दायरे में समाज का बहुसंख्यक हिस्सा आता है । आज के उत्तरआधुनिक समय में तो इसके बहुलार्थक स्वरूप को ऐसा ही बनाये रखने की वकालत की जा सकती है, मगर मेरे विचार से समाज की सारी विचारप्रणालियों या हलचलों की व्याख्या की ही तरह `जनवाद´ को भी उसके वर्गीय विश्लेषण से और सामाजिक विकास की मंजिल के तहत ही समझा जाना चाहिए ।
हर समाज के विकास की कुछ मंजिलें होती हैं जिनसे हो कर वह गुजरता है । उस समाज के विकास की मजिल को उस में विकसित उत्पादन के साधनों और उत्पादन के रिश्ते से जाना जा सकता है । अगर किसी समाज में उत्पादन के साधन आदिम अवस्था में हैं तो उसे हम आदिम समाज कहेंगे । उत्पादन के साधनों के विकास से आगे जो समाज विकसित हुए तो दास व्यवस्था की मंजिल में प्रवेश कर गये जिसमें दास और स्वामी अस्तित्व में आये और समाज दो वर्गों में विभाजित हो गया । दास व्यवस्था से आगे उत्पादन के साधनों के विकास के साथ नये उत्पादन रिश्ते बने, और समाज सामंती अवस्था में दाखिल हुए जिसमें सामंत प्रभुवर्ग के रूप में और भूदास शोषितवर्ग के रूप में वजूद में रहे । सामंती व्यवस्था के गर्भ में जब उत्पादन के साधन और अधिक विकसित हुए और आधुनिक मशीनों का आविष्कार हुआ और आधुनिक ज्ञानविज्ञान ने उन्नति की तो पूंजीवादी समाज व्यवस्था ने सामंती समाज व्यवस्था को खत्म करके आधुनिक पूंजीवादी समाज की रचना की और उसमें पूंजीपतिवर्ग शासकवर्ग बन गया और शेष समाज शोषित वर्ग हुआ । विश्व में सबसे पहले 1789 में फ्रांसीसी क्रांति द्वारा पूंजीपतिवर्ग ने सामंतवाद को खत्म करके आधुनिक पूंजीवादी समाज की नींव डाली । यहीं से जनवाद की कहानी भी शुरू होती है क्योकि इस क्रांति के नारे थे---स्वाधीनता, समानता और भाईचारा । ये नारे ही जनवाद की आधारशिला है । चूंकि पूंजीवादी समाज भी शोषण पर आधारित था इसलिए आगे चल कर इन जनवादी मूल्यों का हनन उसने भी किया और आज भी कर रहा है, मगर ये मूल्य जनवादी मूल्यों के रूप में आज भी हमारे लिए प्रासंगिक हैं ।
पूंजीवादी समाज अपने साथ उत्पादन के साधनों को और अधिक विकसित करके साम्राज्यवाद की मंजिल में दाखिल हुआ और पिछडे़ देशों पर पहले उपनिवेशी कब्जा करके और बाद में उनके बाजार और कच्चे माल को किसी न किसी तरह हथिया कर खुद को मजबूत बनाता गया । साम्राज्यवाद और पूंजीवाद तथा अन्य शोषणपरक समाज व्यवस्थाओं का खात्मा सर्वहारावर्ग के नेतृत्व में उसकी वैज्ञानिक विचारधारा के सक्रिय अमल के माध्यम से हो सकता है, इसे 1917 की सोवियत क्रांति ने सिद्ध किया था और पूंजीवाद और साम्राज्यवाद के बाद की नयी मंजिल यानी समाजवाद में अपने समाज को दाखिल किया था । साम्राज्यवाद की चालों और उस समाज के नेतृत्व द्वारा की गयी कुछ भूलों के कारण कुछ देशों में प्रतिक्रांति सफल हो गयी और फिर से वहां समाजवाद की जगह पूंजीवाद का वर्चस्व कायम हो गया, मगर समाजवादी व्यवस्था का वजूद खत्म नहीं हुआ और न ही हो सकता है क्योंकि मानव समाज मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को सदा सदा के लिए बनाये नहीं रख सकता, उसका एक न एक दिन खात्मा होना ही है । मुक्तिबोध के शब्दों में `यह भवितव्य अटल है / इसको अंधियारे में झोंक न सकते´ । जिस तरह समाज के विकास में पहले की शोषण व्यवस्थाएं (दास व्यवस्था, सामंती व्यवस्था, उपनिवेशवादी व्यवस्था) नहीं रहीं, उसी तरह साम्राज्यवादी और पूंजीवादी शोषण की व्यवस्थाएं भी अमर नहीं हैं, इनका भी अंत तो होना ही है । समाजवाद के बाद विश्व में जब उत्पादन के साधन इतने अधिक विकसित अवस्था में पहुंच जायेंगे कि किसी भी तरह की निजी संपत्ति और उसकी निजी मिल्कियत की जरूरत ही नहीं रह जायेगी, तो विश्वमानवता साम्यवाद की मंजिल में प्रवेश कर जायेगी ।
सामाजिक विकास की विभिन्न मंजिलों की यहां चर्चा करने का मकसद यह था कि जनवाद, दर असल, तब वजूद में आया था जब पूंजीपतिवर्ग एक नये वर्ग के रूप में उभरा था और उसने हर स्तर पर वैज्ञानिक सोच और ज्ञानविज्ञान को बढ़ावा दिया था, भले ही मुनाफे की गरज से ही यह सब क्यों न हुआ हो । इस तरह उदीयमान पूंजीवाद एक प्रगतिशील युग अपने साथ लाया था । इसीलिए पूरे समाज को अपने पक्ष में करने के लिए उसने `स्वाधीनता, समानता और भाईचारा´ जैसे नारे दिये थे और संसदीय व्यवस्था और चुनावप्रणाली तथा जनता के मूलभूत अधिकारों आदि की नयी व्यवस्था स्थापित की थी जोकि निस्संदेह सामंतवादी व्यवस्था के मुकाबले बेहतर है। `जनवाद´, अग्रेजी के `डिमोक्रेसी´ (democracy) शब्द का हिंदी अनुवाद है, इसे कोई `लोकतंत्र´, तो कोई `जनतंत्र´ और कोई पिछड़ी मानसिकता से `प्रजातंत्र´ भी कहते हैं ।(`प्रजा´ की अवधारणा तो `राजा´ की अवधारणा के साथ ही मर जाती है या मर जानी चाहिए) शोषण की व्यवस्था बरकरार रखने के लिए पूंजीपतिवर्ग अपने उदयकाल में दिये गये नारों और `डिमोक्रेसी´ जैसी संस्थाओं को भी बाद में खत्म करने की कोशिश करने लगता है, या तो सैनिक तानाशाही द्वारा या अन्य तरह के तानाशाही हथकंडों द्वारा । `डिमोक्रेसी´ या जनवादी व्यवस्था पूंजीपतिवर्ग का जब तक हितसाधन करती है तब तक उसे चलने दिया जाता है और जैसे ही वह पूंजीवाद के हितों के आड़े आती है, पूंजीपतिवर्ग और सामंतवर्ग उसे नष्ट करने और जनवाद को मजबूत करने वाली लोकतांत्रिक संस्थाओं को विकृत करने लगते हैं या उनका खात्मा कर डालते हैं । विश्व इतिहास में इसके उदाहरण भरे पड़े हैं । हमारे यहां भी सत्तरोत्तरी बरसों में आपात्काल के रूप में इसी प्रक्रिया को देखा गया था । आज की पूंजीवादी सामंती वर्गों की सरकारें भी नये नये विधेयकों और अध्यादेशों से जनवाद पर हमला करती रहती हैं ।
इजारेदार पूंजीवाद जिस `जन´ का शोषण करता है, उसे भी ठीक से परिभाषित करना होगा। वैज्ञानिक विचारधारा के आधार पर परखें तो हम पायेंगे कि `जन´ की अवधारणा भी वर्गीय होती है। हमारी आजादी के दौर में समाज के विकास में अवरोध पैदा करने वाली ब्रिटिश साम्राज्यवादी शक्तियां और उनसे सहयोग करने वाली सामंती ताकतें भारतीय समाज की मुख्य दुश्मन थीं और देश के पूंजीपतियों से ले कर मजदूरवर्ग तक शोषितों की कतार में शामिल थे, इसलिए पूंजीपतियों समेत वे सारे वर्ग `जन´ की कोटि में आते थे, वे सब भारत की बहुसंख्यक `जनता´ थे जिन्हें ब्रिटिश साम्राज्यवाद से मुक्ति चाहिए थी । जब भारतेंदु हरिश्चंद्र ने लिखा था कि `आवहु सब मिलि रोवहु भारत भारत भाई´, तब इस `भारत भाई´ में नवोदित पूंजीपतिवर्ग समेत सारे वर्ग शामिल थे, क्योंकि `धन विदेस चलि जात यहै दुख भारी´ । मगर उस समय की भारतीय `जनता´ के वर्गीय चरित्र में आजादी के बाद तब्दीली हो गयी क्योंकि आजादी के बाद भारत का बड़ा पूंजीपतिवर्ग और बड़ा भूस्वामीवर्ग सत्ता में आ गया और उस गठजोड़ ने साम्राज्यवाद से सहयोग किया । यह एक नयी कतारबंदी थी जिसमें ब्रिटिश साम्राज्यवाद की जगह नया शासक बना इजारेदार पूंजीपतिवर्ग और सामंतवर्ग का गठजोड़ जिसने साम्राज्यवाद से अपना सहयोग जारी रखा, बाकी तमाम वर्ग शासित हो कर उनके द्वारा शोषित होने लगे । राजनीतिक सत्ता किसी भी पार्टी या व्यक्ति के हाथ में रही हो, और उसने नारे भले ही `समाजवादी ढांचे के समाज´ के दिये हों, पर्दे के पीछे असली शासक ये ही वर्ग थे । इसका प्रमाण यह है कि आजादी के बाद इजारेदार घरानों की परिसंपत्तियों में कई हजार गुना बढ़ोतरी हुई जबकि सबसे निर्धन तबके भूख से मौत का शिकार होने के लिए आज भी अभिशप्त हैं । आजादी के बाद के समाज के शासकवर्गों का यही वर्गीय यथार्थ है ।
`जन´ शब्द का इस्तेमाल करते समय इस नयी वर्गीय कतारबंदी को हमेशा ध्यान में रखना होगा क्योंकि इसी से हमारे समाज की शोषणप्रक्रिया को समझा जा सकता है और आजादी के बाद की `जनता´ की अवधारणा को भी साफतौर पर व्याख्यायित किया जा सकता है । इस यथार्थ को ध्यान में न रखने के कारण हिंदी के ज्यादातर साहित्यकार सिर्फ मजदूर और किसान को ही `जन´ की परिधि में लाते हैं या फिर उनके तई एक अमूर्त `साधारण जन´ निराकार ब्रह्म की तरह कहीं होता है जिससे जुड़ने या जिसके बीच में जाने की हांक साहित्य में लगायी जाती है। यह कसरत हिंदी लेखन में खूब होती रहती है । डा.रामविलास शर्मा जैसे लेखक तक इसी अवधारणा को अपने लेखन द्वारा व्यक्त करते रहे और उन्हीं की दोषपूर्ण लीक पर चलने वाले बहुत से लेखक जो खुद को मार्क्सवादी भी कहते और मानते हैं `जन´ की इसी संकुचित परिभाषा को आज भी पीटते रहते हैं और रचनाकारों को तरह तरह के उपदेश देते रहते हैं । आज के समाज को वैज्ञानिक आधार पर विश्लेषित करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि बड़े इजारेदार घरानों और बड़े भूस्वामियों के इस शासकीय गठजोड़ जो कि विश्व साम्राज्यवाद के साथ सहयोग की नीति पर चल रहा है के अलावा बाकी सारे वर्ग आज भी शोषित हो रहे हैं, यानी वे सारे वर्ग आज की `जनता´ के दायरे में आते हैं । इसलिए आजादी के बाद, `जनता´ के दायरे में आयेंगे : सभी श्रेणियों के मजदूर, सभी श्रेणियों के गरीब-अमीर किसान, मध्यवर्ग के लोग और गैरइजारेदार पूंजीपति भी । मेरे विचार से आज के दौर में ये सब `जन´ हैं जिनका एक साझा मोर्चा बने और जो आज के सबसे क्रांतिकारीवर्ग यानी सर्वहारावर्ग के नेतृत्व में, जिस पर इतिहास ने अग्रगामी समाजपरिवर्तन की जिम्मेदारी डाली है हमारे समाज को विकास की एक नयी मंजिल में ले जाये । इसका अर्थ यह है कि आज के पूंजीवादी-सामंतवादी लोकतंत्र की जगह वास्तविक लोकतंत्र जिसे `जनता का जनवाद भी कहा जाता है की स्थापना हो । ऐसी व्यवस्था ही इन तमाम शोषित वर्गों का हित साधन करेगी, आजादी के बाद यह एक नयी मंजिल होगी क्योंकि उसका वर्गचरित्र भिन्न होगा । आज हमारे यहां जो जनतंत्र है उसका नेतृत्व पूंजीवादी-सामंती वर्गों के हाथ में है जो साम्राज्यवाद के साथ भी समझौते करता है, इसलिए वे इस आधे अधूरे जनतंत्र को भी खत्म करने और उसकी जगह कोई नंगी तानाशाही व्यवस्था या राष्ट्रपति प्रणाली लाने की कोशिश करेंगे क्योंकि जनतांत्रिक प्रणाली से अपनी शोषणपरक व्यवस्था को चलाये रखना आज के शोषकवर्गों के लिए दिनों दिन मुश्किल होता जायेगा । इसलिए जनतंत्र की रक्षा और उसके विकास का दायित्व उन तमाम वर्गों पर है जो आजादी के बाद के नये शोषकशासकवर्गों के कारनामों से शोषण की चक्की के नीचे पिस रहे हैं । अब तक ये शोषकशासकवर्ग शोषण-दमन का यह काम अपनी राजनीतिक पार्टियों जैसे कांग्रेस, बी जे पी आदि पूंजीवादी-सामंती पार्टियों के माध्यम से और उन्हें सत्ता में ला कर करते रहे हैं इसलिए दो दलीय व्यवस्था कायम करने की फिराक में भी हैं जिससे उनके हितों पर आंच न आये और आम जन को इस जटिल और पर्दे के पीछे की असलियत का पता भी न लगे ।
ऐतिहासिक तौर पर देखें तो सामाजिक विकास की हर नयी मंजिल के लिए जो संघर्ष होता है उसकी अगुआई ऐसा वर्ग करता है जो शोषण की मार सीधे सीधे झेलता है । फ्रांस की क्रांति की अगुआई पूंजीपतिवर्ग ने की थी क्योंकि सामंती व्यवस्था उसे सबसे अधिक उत्पीड़ित कर रही थी और पूंजीवाद के विकास में रोड़ा बन रही थी । हमारी आजादी की लड़ाई का नेतृत्व हमारे देश का पूंजीपतिवर्ग कर रहा था क्योंकि ब्रिटिश साम्राज्यवाद से उसे अपने लिए भारतीय बाजार मुक्त कराना सबसे ज्यादा जरूरी था जिससे कि वह अधिक से अधिक मुनाफा कमा कर अपना विकास कर सके । इसी तरह आज के दौर में इजारेदार पूंजीपतिवर्ग की शोषण की क्रूर मार को मजदूरवर्ग सबसे प्रत्यक्ष तौर पर अनुभव करता और उसे झेलता है, इसलिए समाज के विकास को अगली मंजिल में ले जाने का ऐतिहासिक दायित्व इस दौर में सर्वहारावर्ग के कंधों पर आ गया है । आज सबसे ज्यादा उजाड़, (घरबार से उजाड़ना, नौकरी से छंटनी करके उजाड़ना, आधी अधूरी मजदूरी देकर और नकली दवाइयां और दारू आदि बनाकर उनका स्वास्थ्य उजाड़ना आदि) किसका हो रहा है? इस उजाड़ पर एक पूंजीवादपरस्त संघी नेता को भी घड़ियाली आंसू बहाते और अपनी ही उस वक्त की एनडीए सरकार को जुतियाते हुए उन दिनों देखा गया । इसीलिए सर्वहारावर्ग अपनी वैज्ञानिक विचारधारा (जिसे मार्क्सवाद के नाम से भी जाना जाता है) से लैस हो कर अपने राजनीतिक संगठनों, वर्गीय संगठनों और अन्य जनसंगठनों के माध्यम से समूचे शोषित जन की एकता कायम करके समाज को पहले `जनता के जनवाद´ की अवस्था में और बाद में `समाजवाद´ की मंजिल में ले जायेगा । शोषण से मुक्ति की ये नयी मंजिलें हैं जिनका नेतृत्व वैज्ञानिक समाजवाद की विचारधारा से लैस हो कर सर्वहारावर्ग ही कर सकता है । आज उसकी सबसे बड़ी चिंता इस आधे अधूरे पूंजीवादीसामंती वर्गों के जनतंत्र को बचाने और उसे अगली मंजिल के रूप में विकसित करने की है ।
आज के दौर में शोषकवर्गो का सबसे भयंकर हमला जनवाद पर ही है । सवाल पूंजीवादी-सामंती पार्टियों जैसे कांग्रेस या बी जे पी के सत्ता में आने जाने का नहीं है, जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि ये पार्टियां तो शोषकशासक वर्गों की चरणदासियां हैं जो उन वर्गों की सेवा में लगी हैं और उनका आर्थिक एजेंडा भी एक ही है जिससे शोषण पाप का परंपरा-क्रम अबाध रूप से चलता रहे । जनवादी अधिकारों का हनन कांग्रेस के माध्यम से भी उन्हीं वर्गों ने अनेक बार कराया और बाद देश की सबसे खतरनाक और प्रगतिविरोधी शक्तियों यानी आरएसएस-विश्वहिंदूपरिषद आदि की देशविभाजक सांप्रदायिक फासिस्ट विचारधारा पर चलने वाली भा ज पा के माध्यम से भी वे ही वर्ग जनवादी अधिकारों पर हमला करवाते रहे और आम जन के खून पसीने से बने मुनाफा देने वाले पब्लिक सेक्टर के उद्योगों को देशी विदेशी इजारेदारों को बेचने में लगे रहे । इजारेदारों को कम ब्याज पर पूंजी मुहैया करवाते रहे और बाकी सभी वर्गों की आमदनी में कटौती करते रहे, गरीबों की बचत या प्रोविडेंट फंड आदि पर बार बार कम ब्याज देने के कदम उठा कर उनकी जमापूंजी लूटी जाती रही । शेयरों में गरीबों की लगी पूंजी लूट खायी, उन दिनों सरकारी संस्था यू टी आई ने भी यू.एस 64 जैसी स्कीम के माध्यम से निवेशकों की छोटी मोटी रकम खा डाली । आखिर कहां गयी यह सारी पूंजी ?
इस तरह इजारेदारों और विदेशी कंपनियों के अलावा बाकी सभी वर्गों पर आर्थिक और शारीरिक हमला होता रहता है, कमजोर वर्ग और संप्रदाय उनके निशाने पर सबसे पहले रहते हैं । यह एक वर्गीय प्रक्रिया घटित हो रही है । चाहे कांग्रेस सत्ता में हो या कोई दूसरी पूंजीवादी पार्टी, तो भी इजारेदारों और साम्राज्यवादियों के फायदे के लिए ही नीतियां बनायी जाती हैं उद्योग बेचे जाते और उस पार्टी के माध्यम से भी जनवादी अधिकारों का हनन कराया जाता है। फिर भी सांप्रदायिक फासीवादी ताकतें जिनके हाथ में केंद्र की और कुछ राज्यों की सत्ता रही है जनवाद की सबसे बड़ी दुश्मन हैं क्योंकि संघी फासिस्ट विचारकों ने अपने लेखों और किताबों में अपनी इस दुश्मनी को साफ साफ लिखा है और हिटलर और मुसोलिनी को अपने गुरु के रूप में स्वीकार किया है जिन्होंने पूंजीवादी जनतंत्र का खात्मा करके नंगी पूंजीवादी तानाशाही कायम की थी और मानव सभ्यता को विश्व भर में अपने जंगलीपन से कलंकित किया था । (उदाहरण के लिए गुरु गोलवलकर की पुस्तक We Or Our Nation Defined,(1939) p.35 देखें! इसलिए आज के दौर में हिटलर मुसोलिनी की भारतीय औलादों से भारतीय जनतंत्र को सबसे बड़ा खतरा है, जनतंत्र या जनवाद में विश्वास रखने वालों को यह कभी नहीं भूलना चाहिए । भारतीय समाज के भावी विकास के ये सबसे बड़े दुश्मन हैं । एन डी ए के राज में दशहरे के पर्व पर इन फासिस्ट संगठनों के नेतृत्व ने लाठी की जगह घरों में राइफल या पिस्तौल आदि हथियार रखने का भी आह्वान किया, इस तरह ये संगठन भी अन्य आतंकवादी संगठनों की तरह ही खुद को आधुनिक हथियारों से लैस कर रहे हैं । बम विस्फोटों में उनकी भूमिका भी सामने आ रही है । भारतभूमि के सदियों के भाईचारे के मूल्य को वे भारतीयों के ही खून में डुबो देने लगे हैं । मोदी के राज में गुजरात को उन्होंने अपनी लेबोरेटरी बना कर अपने फासिस्ट चरित्र को पूरी तरह उजागर कर दिया है । हम तो बहुत पहले से इस चरित्र को बता रहे थे लेकिन अब लोगों ने अपनी आंखों से जनवाद और मानवता के हत्यारों को साफ साफ देख लिया है ।
इजारेदार पूंजीवाद और साम्राज्यवाद विश्वसमाज में ऐसी ही वहशी ताकतों को पालता पोसता है और जनवाद के खिलाफ उन्हें खड़ा करता रहा है । उनका मुख्य एजेंडा ही कला, संस्कृति और मानव श्रम के कलात्मक प्रतीकों के ध्वंस का होता है । हमारे देश में भाजपाई कठमुल्लाओं द्वारा किये गये बाबरी मिस्जद के ध्वंस और उससे पहले वहीं की सदियों पुरानी हनुमानगढ़ी को मटियामेट करने के शर्मनाक कांड को, बाद के कुछ बरसों में ताजमहल की सुदंर दीवारों को विद्रूपित करने और सुप्रीम कोर्ट की ऐसी तैसी करते हुए बाबरी मिस्जद परिसर के प्रतिबंधित क्षेत्र में घुसने की कारगुजारी और गुजरात में वली दक्खनी या वली गुजराती और अनेक कलाकारों, सगीतज्ञों की मजारों का ध्वंस संघियों के इसी ध्वंसात्मक सांस्कृतिक एजेडे के ही सबूत हैं ।
शिक्षा और संस्कृति के क्षेत्र में भी जो कुछ सत्यं, शिवं और सुंदरं है उसके प्रति यही ध्वंसात्मक रवैया है । इसी तरह अफगानिस्तान में साम्राज्यवाद द्वारा पालितपोषित तालिबानों का एजेंडा भी ध्वंस ही था, बामियान की बुद्धमूर्ति हो या महिलाओं के अधिकार, उनका ध्वंस ही उनकी उपलब्धि थी। मानवश्रम से बने विश्व व्यापार केंद्र पर किये गये आतंकवादी हमले में भी वहां काम करने वाले कर्मचारी ही ज्यादा मारे गये, मार्गन स्टेनले जैसी कंपनी जिसमें करोड़ों गरीब जनों का पैसा जमा था भी जल कर राख हो गयी और सारा लेखाजोखा नष्ट हो गया जिससे गरीब लोगों को पैसा भी शायद ही वापस मिले । भारत में भी उस कंपनी के पास जमा गरीबों की पूंजी के मूलधन में दूसरे ही दिन कटौती हो गयी । कश्मीर, पंजाब या देश के अन्य हिस्सों में सक्रिय धार्मिक तत्ववादी कठमुल्लाओं ने भी हमेशा कमजोरों और जनवादी हिस्सों को ही अपने हमले का निशाना बनाया । महिलाओं पर अत्याचार ये सबसे पहले करते हैं, दिल्ली में साहिबसिंह वर्मा ने अपने संघी दिमाग से अपने शासनकाल में स्कूली छात्राओं के स्कर्ट पहनने पर, मच्छरों के काटने से बचाने के नाम पर, पाबंदी लगायी थी (उन से पूछा गया कि उसी तर्क से खाकी नेकर पर पाबंदी क्यों नहीं?), वैलेंटाइन डे पर कानपुर आदि कुछ शहरों में लड़कियों पर भाजपाई हमले की घटनाएं हुईं, भाजपा नेताओं द्वारा सतीप्रथा को समर्थन देने की बात तो किसी से छिपी नहीं है । कर्नाटक में भी लडकियों पर हमले हो रहे हैं । इसी तरह इस्लाम को कलंकित कराने वाले तालिबान, कश्मीरी उग्रवादी संगठन आदि भी महिलाओं के अधिकारों का ध्वंस सबसे पहले करते हैं । ये सब जनवाद के शत्रु हैं । इनका न तो किसी धर्म, मजहब या संस्कृति या देश या राष्ट्रीयता से कोई संबंध है और न ही समाज के विकास की ही उन्हें कोई चिंता । इनमें से ज्यादातर साम्राज्यवाद के टुकडों पर पलने वाले भाड़े के टट्टू ही होते हैं ।(तहलका के टेप पर बी जेपी के भूतपूर्व अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण के डालरप्रेम को सभी ने देखा ही था, हवाला के माध्यम से भी आर एस एस के पास आडवाणी आदि के माध्यम से धन उन्हीं स्रोतों से आया था जहां से कश्मीर के उग्रवादियों के पास आता था ।) विश्व के इन तमाम प्रगतिविरोधी तत्वों का सरगना और उनका पालनहार अमेरिकी साम्राज्यवाद भी कमजोरों को ही सबसे पहले अपने हमले का निशाना बनाता है । आर्थिक संकट आते ही मजदूरों छंटनी शुरु हो जाती है । अफगानिस्तान में आतंकवाद मिटाने के नाम पर हुए अमरीकी हमलों से सबसे अधिक मौतें औरतों, बच्चों और बूढ़ों और अपाहिजों की ही हुई जो जान बचा कर कहीं सुरक्षित स्थानों तक भाग नहीं पाये । वहां पर रेडक्रास जैसी संस्था तक का ध्वंस कर डाला । हिरोशिमा नागासाकी रहा हो या वियतनाम, या पिछले बरसों में इराक पर की गयी बमबारी, अमरीका के मानवताविरोधी हमलों से कमजोर ही सबसे ज्यादा मरे । यह तो अब आधिकारिक तौर पर अमेरिकी प्रशासन और ब्रिटेन के शासकों ने भी स्वीकार कर लिया है कि ओसामा बिन लादेन को `जीवित या मृत´ पकड़ना उनके लिए आसान नहीं है, शायद असंभव भी हो । कोई बतायेगा, तब काबुल, कांधार आदि ऐतिहासिक शहरों का ध्वंस किसलिए किया गया? नंगे भूखे अफगान जनों को किस लिए आग में भूना गया? बुश के निजाम में ईरान और उत्तरी कोरिया पर हमले की धमकी दी जाती रही है, जबकि इजराइल जैसे दुष्ट प्रशासन को वह संरक्षण दे रहा है जो फिलिस्तीनी जनता को रोज ही तबाह कर रहा है । क्या कोई भी संवेदनशील लेखक, कलाकार या बुद्धिजीवी या समझदार शांतिकामी व्यक्ति ऐसे युद्ध का विरोध नहीं करेगा ? अंग्रेजी लेखिका सूज़न सौंटैग से ले कर हेराल्ड पिंटर और नोम चाम्स्की तक और अरुंधती राय समेत तमाम भारतीय लेखकों और करोड़ों शांतिकामी विश्वजन तक जिनमें हम भी शामिल हैं ऐसे वहशी युद्धों के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद कर और साम्राज्यवाद के असली मंसूबों को उजागर करके अपनी सही सामाजिक भूमिका और विश्वबंधुत्व की भावना का इजहार करते रहे हैं और सारी दुनिया को चिल्ला चिल्ला कर यह बता रहे हैं कि वहशीपन साम्राज्यवाद और इजारेदार पूंजीवाद-सामंतवाद की चारित्रिक विशेषता ही है, ये रक्तपायीवर्ग विश्वभर में जनवाद के सबसे बड़े दुश्मन हैं । इनसे संघर्ष करने वाली ताकतें ही विश्वसमाज में जनवादी ताकतें कहलाती हैं और प्रतिरोध की इन ताकतों की विचारधाराएं, कलाएं, साहित्य, विचार और दर्शन जनवादी कृतित्व की श्रेणी में गिने जायेंगे । इसलिए जनवाद एक बहुत ही व्यापक विचारप्रणाली है जिसे साहित्य और संस्कृति के संदर्भों में संकुचित नहीं होने देना चाहिए जैसा कि हिंदी साहित्य में अक्सर होते देखा गया है । ऐसा सारा लेखन जो विश्व स्तर पर हो रहे साम्राज्यवादी अत्याचारों के खिलाफ अपना रुख स्पष्ट करता है, देश के स्तर पर इजारेदार पूंजीवाद व सामंती वर्ग के अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाता है, इन वर्गों के अलावा (राष्ट्रीय पूंजीपतिवर्ग समेत) सभी वर्गों के प्रति मित्रतापूर्ण रवैया रखते हुए उनके सुखदुख और संवेदनाओं को अभिव्यक्त करता है, जनवाद के पक्ष का ही लेखन माना जायेगा, हिंदी आलोचना को अपनी इस कमजोरी से उबरना होगा , मौजूदा शोषण व्यवस्था से मुक्ति के लिए जनवाद के बहुत ही व्यापक मोर्चे की जरुरत है, संकीर्ण नजरिया अपनी अंतिम परिणति में जनवादविरोधी ही सिद्ध होगा ।