कुछ महीने पहले एक छोटी सी पत्रिका में किसी चौधरी का एक लेख पढा था जिसमें साहित्य अकादमी द्वारा सामसुंग के साथ गठजोड का विरोध करने वालों की निंदा करते हुए लेखक ने सामसुंग का पक्ष लिया था, उस लेख पर मैंने जो अपनी टिप्पणी लिखी थी उसे मैं अपने ब्लाग पाठकों के लिए यहां पेश कर रहा हूं:
सामसुंग के चारण
दक्षिण कोरियाई बहुराष्ट्रीय कंपनी सामसुंग के साहित्य अकादमी के साथ गठबंधन का हिंदी के लेखकों ने जो विरोध किया उसे ले कर कुछ लेखकों के पेट में इतना दर्द हुआ हे कि वह उनकी लेखनी से अभिव्यक्त हो रहा है । शंभुनाथ, उमाशंकर चौधरी आदि कई लेखकों ने लेख लिखकर सामसुंग के चारण के रूप में अपनी छवि बनायी है क्योंकि उन्होंने हिंदी के लेखकों और संगठनों द्वारा किये गये प्रतिरोध को ग़लत ठहराते हुए उनकी लानत मलानत की है। ऐसा हमेशा और हर जगह होता आया है कि कुछ लेखक हमेशा शोषकशासकवर्गों की चरणवंदना करते रहे हैं, शाहेवक्त़ की वंदना करना उनके ख़ून में होता है, उन्हें उम्मीद बनी रहती है कि बहुराष्ट्रीय रसगुल्ला किसी न किसी दिन उनके मुंह में भी गिरेगा ही, पुरस्कार अब चारणवृत्ति से भी अर्जित किये जा सकते हैं। विरोध करने वालों से वे कुछ ज्य़ादा ही खफा हैं, वे जानेजाने बहुराष्ट्रीय कंपनी सामसुंग के चरणदास बन कर प्रतिरोध करने वालों को गरिया रहे हैं । सामसुंग के चारण लेखक महोदय यह तो मानते हैं कि 'लोकतंत्र में और उससे भी अधिक आधुनिक साहित्य में प्रतिरोध ज़रूरी है , आधुनिक साहित्य का तो यह पैमाना ही है', फिर भी वे सामसुंग का प्रतिरोध करने वालों को गरियाते हैं, वे लिखते हैं कि 'हिंदी के लेखकों ने इसके विरोध में आसमान सिर पर उठा लिया था' और 'अंतत: इन बेचारों की आवाज़ नक्कारखाने में तूती की आवाज़ बन कर रह जाती है।' वे इसलिए भी खुश हैं कि इन बेचारे लेखकों की कुछ भी नहीं चली और पूरी शानोशौकत के साथ एक दक्षिण कोरियाई महारानी (प्रथम महिला) के हाथों पुरस्कार वितरण हो गया और सरकार या अकादमी ने इन बेचारों की ओर कोई गौर नहीं किया । इन चारण महोदय ने सिर्फ़ अपनी खुशी का इज़हार ही किया, सामसुंग की वकालत करते समय कोई उसके पक्ष में तर्क पेश नहीं किया । संस्कृति की बहुलतावादी व्याख्या पर एक लेक्चर पाठकों को पिला दिया जिसका मुख्य मुद्दे से कोई ताल्लुक नहीं । क्या सामसुंग के साथ एक अकादमी के समझौते से कोरियाई संस्कृति का भारतीय संस्कृति में मिश्रण हो गया, क्या किसी भी विदेशी समाज की सांस्कृतिक धरोहर वहां की बहुराष्ट्रीय कंपनी के पास रखी है जो किसी दूसरे देश में जाकर वहां की संस्कृति में घोल दी जा सकती है? क्या इसी तरह संस्कृतियों का मिश्रण हुआ है? हमारे हिंदी चारणों का यह बौद्धिक दिवालियापन नहीं तो और क्या है कि सामसुंग साहित्य अकादमी के साथ मिल कर टैगोर पुरस्कार बांटेगा तो दो देशों की संस्कृतियां एक दूसरे में घुल मिल जायेंगी।'
सामसुंग के पैरोकार सबसे पहले उसके उद्देश्य को पूरा करने में जुट गये, यह उन्हें खुद भी नहीं मालूम । बहुराष्ट्रीय कंपनियां जहां भी धन लगा रही हैं, वहां उनका सबसे बड़ा लक्ष्य है साम्राज्यवाद के खिलाफ प्रतिरोध की ताकत को निरस्त करना और अवाम के जनवादी अधिकारों का साम दाम दंड भेद की नीति से दमन करना । हिंदी के हमारे ऐसे चौधरियों को शायद याद नहीं कि गुडग़ांव में इसी तरह की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी ने संगठित मज़दूरों की मामूली सी मांग पर चलने वाले आंदोलन को कुचलने के लिए किस तरह की वहशी दमनकारी कार्रवाई की थी, उसका वीडियो टेप अभी तक टी वी चैनलों पर सुरक्षित होगा। क्या इन तमाम बहुराष्ट्रीय निगमों में काम करने वालों को ट्रेड यूनियन अधिकार हैं जो कि हमारा संवैधानिक अधिकार है और जिसे ये निगम अपने पैसे के बल पर जूते की नोंक पर रखते हैं। ऐसे इन निगमों का विरोध हिंदी लेखक करते हैं तो यह उनकी साम्राज्यवादविरोधी चेतना का परिचायक है और इस चेतना की एक लंबी परंपरा है जिस पर हमें गर्व होना चाहिए।
1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के बाद महारानी विक्टोरिया की लुभावनी घोषणाओं के असर में भी हिंदी के बहुत से लेखक उस प्रतिरोध के प्रति इसी तरह की हिकारत की नज़र रखते थे और उसे उन्होंने अपने लेखन में उद्घाटित भी किया, अंग्रेज़ राज सुख साज बताया, उसके प्रति चारणवृत्ति दिखायी, आज के लेखकों के एक छोटे हिस्से में आज भी वह कलंकमयी परंपरा जीवित है, यह अफ़सोसनाक तो है ही, ख़तरानाक भी है। बहुराष्ट्रीय निगमों की यह साम्राज्यवादी कोशिश है कि बुद्धिजीवी हिस्सों में उन्हें और उनकी इस देश में उपस्थिति को स्वीकार्यता हासिल हो जाये । उनका आलोचनात्मक विवेक नष्ट या कुंद कर दिया जाये और वे भूल जायें कि साम्राज्यवाद जैसी भी कोई चीज़ भारत की छाती पर बैठी है। ज़ाहिर है कि इसके लिए उनके पास धनबल के अलावा और क्या है, मज़दूरों को तो दमनतंत्र से वश में किया जा सकता है, आलोचनात्मक विवेक से लैस लेखकों को तो पैसे के लोभ से ही चारण बनाया जा सकता है।
आखिऱ हुआ भी वही । सामसुंग का निशाना सही जगह बैठा और शंभुनाथ समेत कई चौधरी उसके शिकार हो गये । इस समय सामसुंग या किसी भी बहुराष्ट्रीय निगम के गैरसंवैधानिक क़दमों की आलोचना को हिकारत की नजऱ से देखना उसी तरह की चेतना का द्योतक है जिस तरह की पिछड़ी चेतना ब्रिटिश साम्राज्यवाद के चारण कुछ हिंदी लेखकों या बांग्ला लेखकों या अन्य भारतीय लेखकों ने 19वीं और 20वीं सदी के गुलामी के दौर में दिखायी थी। जो लेखक अपनी मासूमियत में सामसुंग समझौते या उसके पैसे से दिये गये पुरस्कारों को स्वीकार्यता प्रदान कराने की ताबड़तोड़ कोशिश में लगे हैं, वे यह नहीं जानते कि आज के हालात में भी साम्राज्यवादी ताक़तें, खासतौर से वित्तीय पूंजी के माध्यम से, हमारे देश को अपने अधीन बनाने की कोशिश में लगी हैं जिससे कि वे यहां के कच्चे माल, सस्ते श्रम और व्यापक बाज़ार पर अपना कब्ज़ा बनाये रख सकें और भारतीय अवाम का शोषण करके अपने अपने देशों की चमक दमक बरकरार रख सकें। हिंदी-उर्दू के बहुसंख्यक लेखक आज भी साम्राज्यवादविरोधी चेतना से लैस हैं और इसी लिए उनकी संवेदनशीलता इस तरह के प्रतिरोधों में झलकती है जिसे समझने में बहुत से चारणचेतना में आबद्ध लेखक असमर्थ हैं और उन्हें यह प्रतिरोध नक्कारखाने में तूती की आवाज़ लगता है। उनकी चारणवृत्ति उन्हें मुबारक !
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