30-31 जनवरी 2010 को धनबाद में गांधी जी पुस्तिका, हिंद स्वराज की शती पर पी के राय मेमोरियल कालेज ने एक राष्ट्रीय सेमिनार आयोजित किया जिसमें मुझे भी आमंत्रित किया गया। मैंने वहां जो आलेख पेश किया उसे जहां तहां थोड़ा संशोधित करके यहां पेश कर रहा हूं:
गांधी जी की हिंद स्वराज: वैयक्तिक परिप्रेक्ष्य
चंचल चौहान
गांधी जी की बीस अध्यायी छोटी सी पुस्तिका, हिंद स्वराज पर अपने आलेख को प्रस्तुत करते हुए एक स्पष्टीकरण देना जरूरी है । गांधी जी के प्रति मेरे मन में उतनी ही श्रद्धा है जितनी आप सब लोगों के मन में है क्योंकि वे देश के करोड़ों लोगों के जननेता थे और आजादी के संघर्ष का नेतृत्व करने वाले राजनीतिक संगठन के अहम हिस्सा थे। मगर इस पुस्तिका के लेखक मोहनदास करमचंद गांधी को मैं चालीस बरस के एक ऐसे भारतीय नौजवान की तरह देखता हूं जो लंदन में मिले बहुत से ऐसे भारतीय नौजवानों की बातें सुनकर उत्तेजित था क्योंकि वे भारत की आज़ादी के लिए अंग्रेज शासकों को हिंसा के बल पर देश से खदेड़ देने का फलसफा प्रचारित कर रहे थे। वहां से लौटते वक्त जहाजयात्रा के दौरान दस दिनों में लिखी यह किताब मेरे लिए एक “पाठ” है और मेरा ध्यान केवल और केवल इसी के पर्सपेक्टिव को वर्गीय नज़रिये से व्याख्यायित करने पर है, गांधी जी के संपूर्ण व्यक्तित्व का या उनकी विचारधारा का विश्लेषण इसे न समझा जाये, ऐसा मेरा अनुरोध है।
बीस अध्यायों में लिखी इस पुस्तिका पर अनेक भाषाओं में उसके प्रकाशन काल से लेकर अब तक इन सौ बरसों में इतना लिखा गया है जिसे अगर एक जगह रखा जाये तो, मेरा अनुमान है, शायद एक लाइब्रेरी भी कम पड़े। यह पुस्तिका इतनी विचारोत्तेजक है कि तोल्सतोय, मिडिलटन मरे से लेकर गोपालकष्ण गोखले और नेहरू तक इसके प्रकाशन काल में और अनगिनत लेखक और बुद्धिजीवी आज के दिन भी इस पर बहस रहे हैं। ऐसे में मेरे विचार भी किसी ने ज़रूर कह दिये होंगे, ऐसा भी हो सकता है, मैं इन्हें मौलिक समझ कर लिख रहा हूं।
दुनिया में सभ्यता के विकास से ही समाज की बेहतरी के लिए दो तरह के नज़रिये पेश किये जाते रहे हैं, एक नज़रिया तो वैयक्तिक या माइक्रोकास्मिक रहा है जिसके मुताबिक़ सुधार व्यक्ति से शुरू हो और समूह तक हो जायेगा, इस तरह समाज बदल जायेगा, दूसरा नज़रिया सामाजिक रहा है जो मैक्रोकास्मिक कहा जा सकता है जिसके मुताबिक़ परिवर्तन सामूहिक होता है और फिर इकाइयों तक फैलता है। प्लेटो अपने रिपब्लिक की रचना में व्यक्ति पर नज़र टिकाता है, व्यक्तिगत नैतिकता पर ज़ोर देता है और भाववादी दर्शन की नींव रखता है जिसमें आइडिया सत्य है, भौतिक जगत मिथ्या है। गांधी जी ने प्लेटो को पढ़ा था, और उनके भाववादी दर्शन का बीजवपन वहीं से हुआ जिसे हमारे यहां के बहुप्रचलित भाववादी दर्शन से खादपानी मिला जिसमें “ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या” की गुहार थी, और तुलसीदास आदि सगुणमार्गी संतों ने उसे जगह जगह घूमघूम कर प्रचारित किया था, “उमा कहहुं मैं अनुभव अपना/सत हरिभजन जगत सब सपना” या “गो गोचर जहं लगि मन जाई/सो सब माया जानेहु भाई” या “यह संसार फूल सेमल को” आदि आदि। आज भी तमाम साधू संत इसी भाववादी दर्शन का राग जगह जगह अलापते नज़र आते हैं, अनेक चैनलों पर यही संदेश पिलाया जा रहा है कि यह भौतिक जगत नाशवान है, हर आदमी धर्म के रास्ते पर चले तो संसार सुखी हो जायेगा। हर आदमी का चरित्र ठीक हो जाये तो पूरा समाज सुधर जायेगा। इस तरह के उपदेश, भारत के अतीत की दुहाई, भारतीय संस्कति के भाववादी पक्ष का अतिवादी प्रचार आज भी हम सवेरे से शाम तक देखते सुनते हैं।
गांधी जी को भारत की इस धार्मिक आत्मा की पहचान थी, इसी का इस्तेमाल विवेकानंद ने किया था, इसी के इस्तेमाल से वे भारत की बहुसंख्यक जनता को लामबंद कर सकते थे, इसका उन्हें अहसास था, इसीलिए वे किसान के जीवन को महिमा मंडित कर रहे थे और उसी को आदर्श बता कर वे आधुनिक औद्योगिक सभ्यता के विनाश का स्वप्न देख रहे थे । भारत के किसान समुदाय में भी भाववादी दर्शन का अच्छा खा़सा असर है, इसलिए उन्हें लामबंद करने में भी वह विचारधारा काम आ सकती थी । सहजानंद सरस्वती ने भी संत बन कर किसानों को लामबंद किया था। भारत में धार्मिकता के विस्तार को समझते हुए गांधी जी ने उसी में से अहिंसा, प्रेम आदि की मानववादी मूल्यव्यवस्था का सार ग्रहण किया था जिससे सांप्रदायिक सदभाव और अवाम की एकता का़यम की जा सकती थी, उन सभी धर्मों में भाववाद यानी भौतिकजगत के प्रति उदासीनता भी समाहित थी, इसलिए गांधी के दर्शन के साथ उसका तालमेल भी बैठता था।
गांधी जी में उपनिवेशवादविरोधी भावना उसी तरह तीव्र थी जिस तरह अनेक राष्ट्रवादियों में थी, मगर वे समझते थे कि हिंसा का रास्ता सही नहीं। लंदन में एक रेस्त्रां में उन्होंने सावरकर का उत्तेजक भाषण सुना था, उसी से उत्तेजित हो कर वहां से लौटते वक्त यह पुस्तिका उन्होंने लिखी, हिंसा के रास्ते की पराजय का इतिहास उन्हें शायद ज्ञात था, 1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम सफल नहीं हो पाया था, 1905 में रूस में भी जनवादी क्रांति या उससे बहुत पहले पेरिस कम्यून आदि की नाकायाबी के बारे में शायद उन्हें मालूम हो। लेकिन ये घटनाएं उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं थीं, उनका सरोकार उपनिवेशवादी सभ्यता से था, जिसका उन्मूलन सदियों से चली आ रही अजर अमर भारतीय सभ्यता को अपनाने से ही हो सकता था, ऐसा वे मानते थे । इसीलिए वे कह रहे थे, अगर अंग्रेज़ हमने भगा भी दिये और उनकी सभ्यता यहां बनी रही, तो “हिंदुस्तान” तब भी “इंग्लिश्तान” ही रहेगा, उनका ज़ोर हर व्यक्ति की चेतना बदल देने पर था। वे तो अंग्रेज़ को भी भारत में बने रहने देने के पक्ष में थे, बशर्ते वह भारतीय सभ्यता अपना ले । उनका ज़ोर तो “आत्म” पर था। बस “आत्म” बदल जाये तो फिर सारी समस्याएं दूर ।
गांधी जी के बनने में उस दौर की बहुत सी रचनाओं का भी योगदान था, पश्चिम में भी भौतिकवादी सभ्यता की तीव्र आलोचना हो रही थी, उसी आलोचना का प्रतिफलन बाद में टी एस एलियट के “वेस्टलैंड” में हुआ और आज़ादी के बाद शुरू के दशकों में हमारे यहां के “आधुनिकतावादी” रचनाकारों ने भी वही परिप्रेक्ष्य अपनाया। ये सभी रचनाकार भी व्यक्तिसुधार का फ़लसफा़ ही पेश कर रहे थे। टी एस एलियट ने भी हमारे यहां के बृहदकारण्य उपनिषद के तीन शब्द, “दत्ता, दयाध्वाम्, दमयत्” उधार ले कर पश्चिमी सभ्यता के “वेस्टलैंड” के उपचार का नुस्खा पेश किया। ज्यादातर “आधुनिकतावादी” आधुनिकता के खिलाफ़ थे और डिमोक्रेसी को “वेश्या” समझते थे, अग्रेज़ी कवि डब्ल्यू बी येट्स और एज़रा पाउंड के विचार इस बारे में देखे जा सकते हैं। ये कवि विश्वयुद्ध की विभीषिका देख चुके थे, जिसमें हिंसा से भौतिक विनाश ही नहीं, नैतिकता और मानवमूल्यों का भी संहार हुआ था। उन्हीं कवियों से प्रेरणा ले कर हमारे यहां के आधुनिकतावादी कवि धर्मवीर भारती ने अंधायु्ग, कनुप्रिया, नरेश मेहता ने संशय की एक रात और कुंवरनारायण ने आत्मजयी जैसी रचनाएं लिखी थीं। गांधी जी को भी अपनी शिक्षादीक्षा, संस्कारों और स्वाध्याय से प्राप्त किये नज़रिये से यही लगता था कि हिंसा मानवसभ्यता के खिलाफ़ एक घिनौनी हरकत है और उसे तरजीह नहीं दी जानी चाहिए। उन्हें शायद यह डर भी था कि अगर हिंसा के खिलाफ़ चेतना पैदा न की गयी तो भारत के सांप्रदायिक तत्व भारतवासियों को आपस में ही लड़वा कर एकता पैदा नहीं होने देंगे। देश में एकता लाने के लिए भी इस नीति की ज़रूरत थी। उनका यह डर सही भी निकला। वही सावरकर जो लंदन के एक रेस्त्रां में भारतमुक्ति के लिए अंग्रेज़ों के खिलाफ़ व्यक्तिहिंसा पर पुरजोश तक़रीर कर रहे थे, भारत में सांप्रदायिक फ़ासीवाद के प्रणेता बन कर देश की एकता तोड़ने वाला ज़हर घोलने लगे जिससे भारत का विभाजन हुआ और जो आज भी भारत के राष्ट्रवाद को खोखला कर रहा है और उसकी प्रगति में बाधा डाल रहा है।
इसलिए मेरे विचार में हिंद स्वराज में व्यक्त विचारों में से दो की अहमियत आज भी है वे हमारे काम के हैं : एक तो साम्राज्यवाद का विरोध और दूसरे भारत की एकता को बरकरार रखने वाली विचारधारा धर्मनिरपेक्षता या सर्वधर्मसमभाव को भारत की सामाजिक काया में बनाये रखने का आग्रह । बाक़ी बातें जो कि सदियों से चली आ रही भाववादी दर्शनधारा का ही दुहराव हैं और हर तरफ़ उपदेशकों और कथावाचकों के मुंह से लाउडस्पीकर पर या चैनलों पर सुनायी देती हैं, हमारे काम की नहीं हैं और वे सामाजिक विकास की प्रक्रिया में खुद ही नाकारा साबित हो रही हैं। जिसे वे भौतिकवादी सभ्यता समझते हैं, और जो उनकी नजर में मशीनी उत्पादन का नतीजा है, दर असल पूंजीवादी स्वामित्व के युग की देन है और जिसके शोषणपरक और उपनिवेशवादी पहलू पर ही गांधी जी की नजर है। मार्क्स ने वैज्ञानिक तरीके से उसके दोनों पहलुओं पर नजर डाली, सामाजिक विकास में पूंजीवाद के सकारात्मक कदमों को उन्होंने नकारा नहीं, और उसके उन पहलुओं की गांधीजी से ज्यादा तीखे तरीके से आलोचना की जो शोषणपरक उत्पादनसंबंधों और वर्गविषमता से पैदा हो रहे थे । मार्क्स इसलिए बीमारी की जड़ भाववादी दर्शन के तहत व्यक्तिनैतिकता या “आत्म” में नहीं, भौतिक परिस्थितियों में तलाशते हैं और उस भौतिक आधार को बदलने की सलाह देते हैं जिस पर नैतिकता और सभ्यता की इमारत खड़ी होती है।
सामाजिक विकास के अपने नियम हैं और भारत में भी वे नियम ही काम करते रहे, और कर रहे हैं, इसलिए हमारे यहां भी गांधी जी के विचार का समाज नहीं बना, जैसे रूस में तोल्सतोय के विचार का समाज नहीं बन पाया। सभी समाजों में परिवर्तन हो रहे हैं, गांधी जी भौतिकवाद को दुश्मन मानते थे, और पश्चिम की नकल पर बने लोकतंत्र को नकारते थे, मगर उनके न चाहते हुए भी भारत को उसी तरह का संविधान और उसी तरह का लोकतंत्र कायम करना पड़ा क्योंकि उसी तरह की पूंजीवादी उत्पादनप्रणाली और उसी तरह के उत्पादनसंबंध गांधी जी के जीवन काल में ही कायम हो चुके थे । यहां भी उसी तरह की उपरिसंरचना कायम हो गयी जैसा कि भौतिक आधार बना और यह आधार भी इसलिए बना क्योंकि भारत में इसी आधार के वस्तुगत हालात थे। हमारे पड़ोसी देश चीन में वस्तुगत हालात दूसरी तरह के थे, इसलिए वहां दूसरे तरह का समाज बना।
वर्गीय नजरिये से हालात को देखें तो सचाई समझ में आ सकती है। चीन में देशज पूंजीवाद बहुत कमजोर था इसलिए उसे दलालपूंजीपति की भूमिका निभानी पड़ रही थी, वह साम्राज्यवाद के खिलाफ़ संघर्ष की अगुआई करने की हालत में नहीं था, इसलिए वहां का नेतत्व सर्वहारावर्ग की विचारधारा के तहत कम्युनिस्ट पार्टी को हासिल हो गया और चीन 1949 में एक जनवादी गणराज्य बन गया जो अपने विकास के लिए सभी तरह की उन्नत उत्पादनप्रणालियों का इस्तेमाल आज कर रहा है (जिनमें पूंजीवादी दुनिया की प्रणालियां शामिल हैं) और अपने समाज के विकास की प्रक्रिया आगे बढ़ा रहा है।
हमारे यहां उन्नीसवीं सदी के आखिर में देशज पूंजीवाद का उदय हुआ और जल्दी ही यहां आधुनिक मशीनों के माध्यम से उत्पादन की नयी प्रणाली शुरू हुई, धीरे धीरे हमारे यहां का पूंजीवाद मजबूत हो गया, इसलिए आजादी की लड़ाई की अगुआई उसी वर्ग के हाथ आयी, भले ही नवोदित पूंजीपतिवर्ग समझौतापरस्ती दिखाता था मगर वह चीनी पूंजीपतियों की तरह दलाल पूंजीपति की भूमिका नहीं अपना रहा था। उसने अपने कलकारखाने और उत्पादन आदि के नये साधन अपनाये और स्वतंत्रता की कामना व राष्ट्रवाद आदि की विचारधारा का सूत्रपात किया। हमारे यहां के नक्सलवादी इस हकीकत को नजरअंदाज करते हैं, वे आज भी इस गलत समझ के शिकार हैं कि भारत दलाल पूंजीवाद के अधीन राज्य है जबकि असलियत साफ है कि हमारी समाज व्यवस्था इजारेदारपूंजीवाद और सामंतवाद के गठबंधन के अधीन है जो साम्राज्यवाद से आज भी समझौता करता रहता है। इस वर्गीय वर्चस्व के कारण ही गांधीजी के न चाहते हुए भी हमारे यहां संसद वजूद में आयी जिसे गांधी जी पतिता समझते थे और व्यर्थ मानते थे । रेल ही नहीं, अन्य तमाम संचार साधन विकसित होने लगे जिसे गांधी जी इस पुस्तिका में बहुत बुरा कह रहे थे, वह सारी सरकारी मशीनरी, न्यायप्रणाली, उपचारसाधन और भौतिकवादी तामझाम भी अस्तित्व में आ गया जिसे वे कोस रहे थे। वह अंग्रेजी भी राज कर रही है जिसे वे भारतीय भाषाओं से अपदस्थ करना चाहते थे । उनके किसान जरूर उसी बदहाली में जी रहे हैं जिसमें वे उन्हें शायद खुश दिखते थे और जिनकी गरीबी को वे अपनी इस पुस्तिका में महिमामंडित कर रहे थे और उन्हें साक्षर करने तक की जरूरत नहीं समझते थे, और शायद इसी विचारधारा से प्रभावित हो कर मुंशी प्रेमचंद ने रंगभूमि जैसे उपन्यास की रचना की थी । गांधी जी ने अपनी पुस्तिका में वकीलों पर और डाक्टरों पर गुस्से का इजहार किया, वे वकील और डाक्टर भी खूब फल फूल रहे हैं । वे जो नहीं चाहते थे वह सब हो रहा है।
इससे यह तो स्पष्ट है कि समाज की गति भौतिक आधार से परिचालित होती है और आधार बदले जाने पर ही नैतिकता और मूल्य और सभ्यता में तब्दीली होती है, यह परिवर्तन व्यक्तिइच्छा से परिचालित नहीं होता। इसी तरह व्यक्ति व्यक्ति को मार देने से भी व्यवस्था नहीं बदलती जैसा आज माओ या मार्क्स व लेनिन के नाम पर नक्सलवादी कर रहे हैं जिसे लेनिन ने “बचकाना मर्ज़” कहा था और माओ ने भी अपने यहां के अतिवामपंथी तत्वों की कठोर आलोचना की थी । इसी तरह की व्यक्तिहिंसा धर्म के नाम पर तरह तरह के आतंकवादी भी करते रहते हैं और भोलेभाले लोगों को मौत का शिकार बनाते रहते हैं । सावरकर लंदन के रेस्त्रां में जो रास्ता सुझा रहे थे, वह व्यक्तिहिंसा का था और गांधी जी ठीक ही अपने विवेक के कारण उत्तेजित हो रहे थे । मगर व्यक्ति व्यक्ति को नैतिकता का उपदेश दे कर या भारतीय सभ्यता में रंग देने से भी व्यवस्था नहीं बदलती है जैसा कि गांधी जी हिंद स्वराज में सुझा रहे थे । हिंद स्वराज के आधार पर हमारा समाज नहीं बन पाया तो उसकी कमजोरी उसके व्यक्तिपरक परिप्रेक्ष्य में है। देश में बहुत से समूह अभी इस उम्मीद में जुटे हैं कि वे गांधी जी का हिंद स्वराज कायम कर लेंगे, लेकिन उनकी परिणति एक एन जी ओ बन जाने में और कुछ फंड हासिल कर लेने में या कुछ भौतिक परिसंपतियां जुटा लेने में होती है, जैसे तमाम साधु संतों और शंकराचार्यों का वैराग्य उन सभी आधुनिक भौतिक संसाधनों पर कब्जा कर लेने में परिणत होता है जो भौतिकवाद की देन हैं जिसके खिलाफ सदियों से भारतीय सभ्यता के भाववादी मीमांसक बोलते लिखते रहे हैं ।
तब क्या गांधी जी के ये विचार हमारे किसी काम के नहीं हैं । मेरा मानना है कि हमें अपने आलोचनात्मक विवेक से वही करना चाहिए जिसे कबीर ने एक ज़माने में कहा था कि “सार सार को गहि रहै थोथा देय उड़ाय”। जो विचार एक आधुनिक समाज की रचना में सहायक हों, उन्हें प्रचारित प्रसारित किया जाये जैसे उपनिवेशवादविरोध, सांप्रदायिक सदभाव और भारतीय सभ्यता के बहुत से वैज्ञानिक मानवतावादी पहलू जैसे अहिंसा, प्रेम, बहुलतावाद आदि, और जो अवैज्ञानिक और असंगत है, उसे उड़ा देने में कोई हर्ज नहीं, और आप न भी उड़ायें, थोथा तो सामाजिक विकास की प्रक्रिया में उड़ ही जाता है, बंदरिया कब तक मरे हुए बच्चे को चिपकाये रख सकती है।
गांधी जी की बीस अध्यायी छोटी सी पुस्तिका, हिंद स्वराज पर अपने आलेख को प्रस्तुत करते हुए एक स्पष्टीकरण देना जरूरी है । गांधी जी के प्रति मेरे मन में उतनी ही श्रद्धा है जितनी आप सब लोगों के मन में है क्योंकि वे देश के करोड़ों लोगों के जननेता थे और आजादी के संघर्ष का नेतृत्व करने वाले राजनीतिक संगठन के अहम हिस्सा थे। मगर इस पुस्तिका के लेखक मोहनदास करमचंद गांधी को मैं चालीस बरस के एक ऐसे भारतीय नौजवान की तरह देखता हूं जो लंदन में मिले बहुत से ऐसे भारतीय नौजवानों की बातें सुनकर उत्तेजित था क्योंकि वे भारत की आज़ादी के लिए अंग्रेज शासकों को हिंसा के बल पर देश से खदेड़ देने का फलसफा प्रचारित कर रहे थे। वहां से लौटते वक्त जहाजयात्रा के दौरान दस दिनों में लिखी यह किताब मेरे लिए एक “पाठ” है और मेरा ध्यान केवल और केवल इसी के पर्सपेक्टिव को वर्गीय नज़रिये से व्याख्यायित करने पर है, गांधी जी के संपूर्ण व्यक्तित्व का या उनकी विचारधारा का विश्लेषण इसे न समझा जाये, ऐसा मेरा अनुरोध है।
बीस अध्यायों में लिखी इस पुस्तिका पर अनेक भाषाओं में उसके प्रकाशन काल से लेकर अब तक इन सौ बरसों में इतना लिखा गया है जिसे अगर एक जगह रखा जाये तो, मेरा अनुमान है, शायद एक लाइब्रेरी भी कम पड़े। यह पुस्तिका इतनी विचारोत्तेजक है कि तोल्सतोय, मिडिलटन मरे से लेकर गोपालकष्ण गोखले और नेहरू तक इसके प्रकाशन काल में और अनगिनत लेखक और बुद्धिजीवी आज के दिन भी इस पर बहस रहे हैं। ऐसे में मेरे विचार भी किसी ने ज़रूर कह दिये होंगे, ऐसा भी हो सकता है, मैं इन्हें मौलिक समझ कर लिख रहा हूं।
दुनिया में सभ्यता के विकास से ही समाज की बेहतरी के लिए दो तरह के नज़रिये पेश किये जाते रहे हैं, एक नज़रिया तो वैयक्तिक या माइक्रोकास्मिक रहा है जिसके मुताबिक़ सुधार व्यक्ति से शुरू हो और समूह तक हो जायेगा, इस तरह समाज बदल जायेगा, दूसरा नज़रिया सामाजिक रहा है जो मैक्रोकास्मिक कहा जा सकता है जिसके मुताबिक़ परिवर्तन सामूहिक होता है और फिर इकाइयों तक फैलता है। प्लेटो अपने रिपब्लिक की रचना में व्यक्ति पर नज़र टिकाता है, व्यक्तिगत नैतिकता पर ज़ोर देता है और भाववादी दर्शन की नींव रखता है जिसमें आइडिया सत्य है, भौतिक जगत मिथ्या है। गांधी जी ने प्लेटो को पढ़ा था, और उनके भाववादी दर्शन का बीजवपन वहीं से हुआ जिसे हमारे यहां के बहुप्रचलित भाववादी दर्शन से खादपानी मिला जिसमें “ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या” की गुहार थी, और तुलसीदास आदि सगुणमार्गी संतों ने उसे जगह जगह घूमघूम कर प्रचारित किया था, “उमा कहहुं मैं अनुभव अपना/सत हरिभजन जगत सब सपना” या “गो गोचर जहं लगि मन जाई/सो सब माया जानेहु भाई” या “यह संसार फूल सेमल को” आदि आदि। आज भी तमाम साधू संत इसी भाववादी दर्शन का राग जगह जगह अलापते नज़र आते हैं, अनेक चैनलों पर यही संदेश पिलाया जा रहा है कि यह भौतिक जगत नाशवान है, हर आदमी धर्म के रास्ते पर चले तो संसार सुखी हो जायेगा। हर आदमी का चरित्र ठीक हो जाये तो पूरा समाज सुधर जायेगा। इस तरह के उपदेश, भारत के अतीत की दुहाई, भारतीय संस्कति के भाववादी पक्ष का अतिवादी प्रचार आज भी हम सवेरे से शाम तक देखते सुनते हैं।
गांधी जी को भारत की इस धार्मिक आत्मा की पहचान थी, इसी का इस्तेमाल विवेकानंद ने किया था, इसी के इस्तेमाल से वे भारत की बहुसंख्यक जनता को लामबंद कर सकते थे, इसका उन्हें अहसास था, इसीलिए वे किसान के जीवन को महिमा मंडित कर रहे थे और उसी को आदर्श बता कर वे आधुनिक औद्योगिक सभ्यता के विनाश का स्वप्न देख रहे थे । भारत के किसान समुदाय में भी भाववादी दर्शन का अच्छा खा़सा असर है, इसलिए उन्हें लामबंद करने में भी वह विचारधारा काम आ सकती थी । सहजानंद सरस्वती ने भी संत बन कर किसानों को लामबंद किया था। भारत में धार्मिकता के विस्तार को समझते हुए गांधी जी ने उसी में से अहिंसा, प्रेम आदि की मानववादी मूल्यव्यवस्था का सार ग्रहण किया था जिससे सांप्रदायिक सदभाव और अवाम की एकता का़यम की जा सकती थी, उन सभी धर्मों में भाववाद यानी भौतिकजगत के प्रति उदासीनता भी समाहित थी, इसलिए गांधी के दर्शन के साथ उसका तालमेल भी बैठता था।
गांधी जी में उपनिवेशवादविरोधी भावना उसी तरह तीव्र थी जिस तरह अनेक राष्ट्रवादियों में थी, मगर वे समझते थे कि हिंसा का रास्ता सही नहीं। लंदन में एक रेस्त्रां में उन्होंने सावरकर का उत्तेजक भाषण सुना था, उसी से उत्तेजित हो कर वहां से लौटते वक्त यह पुस्तिका उन्होंने लिखी, हिंसा के रास्ते की पराजय का इतिहास उन्हें शायद ज्ञात था, 1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम सफल नहीं हो पाया था, 1905 में रूस में भी जनवादी क्रांति या उससे बहुत पहले पेरिस कम्यून आदि की नाकायाबी के बारे में शायद उन्हें मालूम हो। लेकिन ये घटनाएं उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं थीं, उनका सरोकार उपनिवेशवादी सभ्यता से था, जिसका उन्मूलन सदियों से चली आ रही अजर अमर भारतीय सभ्यता को अपनाने से ही हो सकता था, ऐसा वे मानते थे । इसीलिए वे कह रहे थे, अगर अंग्रेज़ हमने भगा भी दिये और उनकी सभ्यता यहां बनी रही, तो “हिंदुस्तान” तब भी “इंग्लिश्तान” ही रहेगा, उनका ज़ोर हर व्यक्ति की चेतना बदल देने पर था। वे तो अंग्रेज़ को भी भारत में बने रहने देने के पक्ष में थे, बशर्ते वह भारतीय सभ्यता अपना ले । उनका ज़ोर तो “आत्म” पर था। बस “आत्म” बदल जाये तो फिर सारी समस्याएं दूर ।
गांधी जी के बनने में उस दौर की बहुत सी रचनाओं का भी योगदान था, पश्चिम में भी भौतिकवादी सभ्यता की तीव्र आलोचना हो रही थी, उसी आलोचना का प्रतिफलन बाद में टी एस एलियट के “वेस्टलैंड” में हुआ और आज़ादी के बाद शुरू के दशकों में हमारे यहां के “आधुनिकतावादी” रचनाकारों ने भी वही परिप्रेक्ष्य अपनाया। ये सभी रचनाकार भी व्यक्तिसुधार का फ़लसफा़ ही पेश कर रहे थे। टी एस एलियट ने भी हमारे यहां के बृहदकारण्य उपनिषद के तीन शब्द, “दत्ता, दयाध्वाम्, दमयत्” उधार ले कर पश्चिमी सभ्यता के “वेस्टलैंड” के उपचार का नुस्खा पेश किया। ज्यादातर “आधुनिकतावादी” आधुनिकता के खिलाफ़ थे और डिमोक्रेसी को “वेश्या” समझते थे, अग्रेज़ी कवि डब्ल्यू बी येट्स और एज़रा पाउंड के विचार इस बारे में देखे जा सकते हैं। ये कवि विश्वयुद्ध की विभीषिका देख चुके थे, जिसमें हिंसा से भौतिक विनाश ही नहीं, नैतिकता और मानवमूल्यों का भी संहार हुआ था। उन्हीं कवियों से प्रेरणा ले कर हमारे यहां के आधुनिकतावादी कवि धर्मवीर भारती ने अंधायु्ग, कनुप्रिया, नरेश मेहता ने संशय की एक रात और कुंवरनारायण ने आत्मजयी जैसी रचनाएं लिखी थीं। गांधी जी को भी अपनी शिक्षादीक्षा, संस्कारों और स्वाध्याय से प्राप्त किये नज़रिये से यही लगता था कि हिंसा मानवसभ्यता के खिलाफ़ एक घिनौनी हरकत है और उसे तरजीह नहीं दी जानी चाहिए। उन्हें शायद यह डर भी था कि अगर हिंसा के खिलाफ़ चेतना पैदा न की गयी तो भारत के सांप्रदायिक तत्व भारतवासियों को आपस में ही लड़वा कर एकता पैदा नहीं होने देंगे। देश में एकता लाने के लिए भी इस नीति की ज़रूरत थी। उनका यह डर सही भी निकला। वही सावरकर जो लंदन के एक रेस्त्रां में भारतमुक्ति के लिए अंग्रेज़ों के खिलाफ़ व्यक्तिहिंसा पर पुरजोश तक़रीर कर रहे थे, भारत में सांप्रदायिक फ़ासीवाद के प्रणेता बन कर देश की एकता तोड़ने वाला ज़हर घोलने लगे जिससे भारत का विभाजन हुआ और जो आज भी भारत के राष्ट्रवाद को खोखला कर रहा है और उसकी प्रगति में बाधा डाल रहा है।
इसलिए मेरे विचार में हिंद स्वराज में व्यक्त विचारों में से दो की अहमियत आज भी है वे हमारे काम के हैं : एक तो साम्राज्यवाद का विरोध और दूसरे भारत की एकता को बरकरार रखने वाली विचारधारा धर्मनिरपेक्षता या सर्वधर्मसमभाव को भारत की सामाजिक काया में बनाये रखने का आग्रह । बाक़ी बातें जो कि सदियों से चली आ रही भाववादी दर्शनधारा का ही दुहराव हैं और हर तरफ़ उपदेशकों और कथावाचकों के मुंह से लाउडस्पीकर पर या चैनलों पर सुनायी देती हैं, हमारे काम की नहीं हैं और वे सामाजिक विकास की प्रक्रिया में खुद ही नाकारा साबित हो रही हैं। जिसे वे भौतिकवादी सभ्यता समझते हैं, और जो उनकी नजर में मशीनी उत्पादन का नतीजा है, दर असल पूंजीवादी स्वामित्व के युग की देन है और जिसके शोषणपरक और उपनिवेशवादी पहलू पर ही गांधी जी की नजर है। मार्क्स ने वैज्ञानिक तरीके से उसके दोनों पहलुओं पर नजर डाली, सामाजिक विकास में पूंजीवाद के सकारात्मक कदमों को उन्होंने नकारा नहीं, और उसके उन पहलुओं की गांधीजी से ज्यादा तीखे तरीके से आलोचना की जो शोषणपरक उत्पादनसंबंधों और वर्गविषमता से पैदा हो रहे थे । मार्क्स इसलिए बीमारी की जड़ भाववादी दर्शन के तहत व्यक्तिनैतिकता या “आत्म” में नहीं, भौतिक परिस्थितियों में तलाशते हैं और उस भौतिक आधार को बदलने की सलाह देते हैं जिस पर नैतिकता और सभ्यता की इमारत खड़ी होती है।
सामाजिक विकास के अपने नियम हैं और भारत में भी वे नियम ही काम करते रहे, और कर रहे हैं, इसलिए हमारे यहां भी गांधी जी के विचार का समाज नहीं बना, जैसे रूस में तोल्सतोय के विचार का समाज नहीं बन पाया। सभी समाजों में परिवर्तन हो रहे हैं, गांधी जी भौतिकवाद को दुश्मन मानते थे, और पश्चिम की नकल पर बने लोकतंत्र को नकारते थे, मगर उनके न चाहते हुए भी भारत को उसी तरह का संविधान और उसी तरह का लोकतंत्र कायम करना पड़ा क्योंकि उसी तरह की पूंजीवादी उत्पादनप्रणाली और उसी तरह के उत्पादनसंबंध गांधी जी के जीवन काल में ही कायम हो चुके थे । यहां भी उसी तरह की उपरिसंरचना कायम हो गयी जैसा कि भौतिक आधार बना और यह आधार भी इसलिए बना क्योंकि भारत में इसी आधार के वस्तुगत हालात थे। हमारे पड़ोसी देश चीन में वस्तुगत हालात दूसरी तरह के थे, इसलिए वहां दूसरे तरह का समाज बना।
वर्गीय नजरिये से हालात को देखें तो सचाई समझ में आ सकती है। चीन में देशज पूंजीवाद बहुत कमजोर था इसलिए उसे दलालपूंजीपति की भूमिका निभानी पड़ रही थी, वह साम्राज्यवाद के खिलाफ़ संघर्ष की अगुआई करने की हालत में नहीं था, इसलिए वहां का नेतत्व सर्वहारावर्ग की विचारधारा के तहत कम्युनिस्ट पार्टी को हासिल हो गया और चीन 1949 में एक जनवादी गणराज्य बन गया जो अपने विकास के लिए सभी तरह की उन्नत उत्पादनप्रणालियों का इस्तेमाल आज कर रहा है (जिनमें पूंजीवादी दुनिया की प्रणालियां शामिल हैं) और अपने समाज के विकास की प्रक्रिया आगे बढ़ा रहा है।
हमारे यहां उन्नीसवीं सदी के आखिर में देशज पूंजीवाद का उदय हुआ और जल्दी ही यहां आधुनिक मशीनों के माध्यम से उत्पादन की नयी प्रणाली शुरू हुई, धीरे धीरे हमारे यहां का पूंजीवाद मजबूत हो गया, इसलिए आजादी की लड़ाई की अगुआई उसी वर्ग के हाथ आयी, भले ही नवोदित पूंजीपतिवर्ग समझौतापरस्ती दिखाता था मगर वह चीनी पूंजीपतियों की तरह दलाल पूंजीपति की भूमिका नहीं अपना रहा था। उसने अपने कलकारखाने और उत्पादन आदि के नये साधन अपनाये और स्वतंत्रता की कामना व राष्ट्रवाद आदि की विचारधारा का सूत्रपात किया। हमारे यहां के नक्सलवादी इस हकीकत को नजरअंदाज करते हैं, वे आज भी इस गलत समझ के शिकार हैं कि भारत दलाल पूंजीवाद के अधीन राज्य है जबकि असलियत साफ है कि हमारी समाज व्यवस्था इजारेदारपूंजीवाद और सामंतवाद के गठबंधन के अधीन है जो साम्राज्यवाद से आज भी समझौता करता रहता है। इस वर्गीय वर्चस्व के कारण ही गांधीजी के न चाहते हुए भी हमारे यहां संसद वजूद में आयी जिसे गांधी जी पतिता समझते थे और व्यर्थ मानते थे । रेल ही नहीं, अन्य तमाम संचार साधन विकसित होने लगे जिसे गांधी जी इस पुस्तिका में बहुत बुरा कह रहे थे, वह सारी सरकारी मशीनरी, न्यायप्रणाली, उपचारसाधन और भौतिकवादी तामझाम भी अस्तित्व में आ गया जिसे वे कोस रहे थे। वह अंग्रेजी भी राज कर रही है जिसे वे भारतीय भाषाओं से अपदस्थ करना चाहते थे । उनके किसान जरूर उसी बदहाली में जी रहे हैं जिसमें वे उन्हें शायद खुश दिखते थे और जिनकी गरीबी को वे अपनी इस पुस्तिका में महिमामंडित कर रहे थे और उन्हें साक्षर करने तक की जरूरत नहीं समझते थे, और शायद इसी विचारधारा से प्रभावित हो कर मुंशी प्रेमचंद ने रंगभूमि जैसे उपन्यास की रचना की थी । गांधी जी ने अपनी पुस्तिका में वकीलों पर और डाक्टरों पर गुस्से का इजहार किया, वे वकील और डाक्टर भी खूब फल फूल रहे हैं । वे जो नहीं चाहते थे वह सब हो रहा है।
इससे यह तो स्पष्ट है कि समाज की गति भौतिक आधार से परिचालित होती है और आधार बदले जाने पर ही नैतिकता और मूल्य और सभ्यता में तब्दीली होती है, यह परिवर्तन व्यक्तिइच्छा से परिचालित नहीं होता। इसी तरह व्यक्ति व्यक्ति को मार देने से भी व्यवस्था नहीं बदलती जैसा आज माओ या मार्क्स व लेनिन के नाम पर नक्सलवादी कर रहे हैं जिसे लेनिन ने “बचकाना मर्ज़” कहा था और माओ ने भी अपने यहां के अतिवामपंथी तत्वों की कठोर आलोचना की थी । इसी तरह की व्यक्तिहिंसा धर्म के नाम पर तरह तरह के आतंकवादी भी करते रहते हैं और भोलेभाले लोगों को मौत का शिकार बनाते रहते हैं । सावरकर लंदन के रेस्त्रां में जो रास्ता सुझा रहे थे, वह व्यक्तिहिंसा का था और गांधी जी ठीक ही अपने विवेक के कारण उत्तेजित हो रहे थे । मगर व्यक्ति व्यक्ति को नैतिकता का उपदेश दे कर या भारतीय सभ्यता में रंग देने से भी व्यवस्था नहीं बदलती है जैसा कि गांधी जी हिंद स्वराज में सुझा रहे थे । हिंद स्वराज के आधार पर हमारा समाज नहीं बन पाया तो उसकी कमजोरी उसके व्यक्तिपरक परिप्रेक्ष्य में है। देश में बहुत से समूह अभी इस उम्मीद में जुटे हैं कि वे गांधी जी का हिंद स्वराज कायम कर लेंगे, लेकिन उनकी परिणति एक एन जी ओ बन जाने में और कुछ फंड हासिल कर लेने में या कुछ भौतिक परिसंपतियां जुटा लेने में होती है, जैसे तमाम साधु संतों और शंकराचार्यों का वैराग्य उन सभी आधुनिक भौतिक संसाधनों पर कब्जा कर लेने में परिणत होता है जो भौतिकवाद की देन हैं जिसके खिलाफ सदियों से भारतीय सभ्यता के भाववादी मीमांसक बोलते लिखते रहे हैं ।
तब क्या गांधी जी के ये विचार हमारे किसी काम के नहीं हैं । मेरा मानना है कि हमें अपने आलोचनात्मक विवेक से वही करना चाहिए जिसे कबीर ने एक ज़माने में कहा था कि “सार सार को गहि रहै थोथा देय उड़ाय”। जो विचार एक आधुनिक समाज की रचना में सहायक हों, उन्हें प्रचारित प्रसारित किया जाये जैसे उपनिवेशवादविरोध, सांप्रदायिक सदभाव और भारतीय सभ्यता के बहुत से वैज्ञानिक मानवतावादी पहलू जैसे अहिंसा, प्रेम, बहुलतावाद आदि, और जो अवैज्ञानिक और असंगत है, उसे उड़ा देने में कोई हर्ज नहीं, और आप न भी उड़ायें, थोथा तो सामाजिक विकास की प्रक्रिया में उड़ ही जाता है, बंदरिया कब तक मरे हुए बच्चे को चिपकाये रख सकती है।
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