मार्कंडेय जी एक साहित्यिक पत्रिका निकालते थे जिसका नाम था: कथा । उनके निधन के बाद भी उनके परिवार जन इस पत्रिका का एक अंक निकालने जा रहे हैं, उनकी एक बेटी, स्वस्ति का आग्रह था कि एक लेख मैं भी मार्कंडेय जी पर लिखूं, तो यह लेख लिख डाला। कथा में तो यह प्रकाशित होगा ही, अपने ब्लाग के पाठकों के लिए इसे यहां दे रहा हूं- चंचल चौहान
मार्कंडेय जी के निधन की खबर रात में जिस समय मुझे मिली उस समय मैं रेलगाड़ी में था, झारखंड राज्य इकाई के जमशेदपुर में होने वाले सम्मेलन में भाग लेने जा रहा था। जनवादी लेखक संघ के स्थापना वर्ष यानी सन् 1982 से अब तक का हमारा साथ रहा, उसमें आने वाले इस चिर व्यवधान से सदमा तो पहुंचना ही था। हमारी देर तक मुलाक़ातें मुख्य रूप से दिल्ली में ही हुईं, बदकि़स्मती से उनकी दो बीमारियों के इलाज के दौरान ही। साहित्य या संगठन पर जो भी चर्चाएं हुईं, वे संगठन की बैठकों या सेमिनारों में ही। उनके लिखे को पढ़ता रहा, मगर कभी उनके रचनात्मक अवदान पर लिखने का मौक़ा नहीं मिल पाया। जलेस के बनारस सम्मेलन (1984) से ले कर अब तक संगठनात्मक जिम्मेदारियों के निर्वाह में मेरा लेखन कुछ शिथिल तो हुआ ही है, सो यह अफ़सोस रहा कि मार्कंडेय जी के जीवनकाल में उनके कथासाहित्य पर कुछ नहीं लिख पाया, सिर्फ मौखिक चर्चाएं जरूर होती रहीं, ग़लत व्याख्याओं से जनित उत्तेजक बहसों में ही। इधर उनकी सारी कहानियां एक साथ पढ़ने का समय निकाला, तो उनके भीतर एक सूत्र तलाश किया, जिसे मुक्तिबोध संवेदनात्मक उद्देश्य कहा करते थे। अब मार्कंडेय जी का रचना व्यक्तित्व हमारे सामने रहेगा, शरीर तो हम सभी का नाशवान है, इसलिए हर कहानी अपने में अब एक टैक्स्ट, एक पाठ है जिसकी व्याख्या के लिए पाठक स्वतंत्र है, अपनी इसी स्वतंत्रता का निर्वाह करते हुए उन्हें अपनी निजी श्रृद्धांजलि के रूप में यह लेख प्रस्तुत है। हमारे पाठक भी इस पाठ या कुपाठ से सहमत या असहमत हो सकते हैं, यह जनवादी स्वतंत्रता उन्हें भी है ही।
आज़ादी के बाद के दौर में हिंदी कहानी में जिन रचनाकारों ने नये सामाजिक यथार्थ को अपनी वैचारिक पक्षधरता के साथ चित्रित किया उनमें मार्कंडेय का नाम भी अग्रणी पंक्ति में माना जाता है । जहां राजेंद्र यादव, कमलेश्वर, मोहन राकेश, मन्नू भंडारी, भीष्म साहनी आदि ने शहर के निम्नमध्यवर्ग की मनोचेतना की तस्वीरें पेश कीं, मार्कंडेय ने अपनी कहानियों मे ज्यादातर भारत के देहाती जीवन की चित्ररचना की । अंग्रेज़ी के रोमानी कवि विलियम ब्लेक ने अपने गीतों की पुस्तक का नाम रखा था, सांग्स आफ़ इन्नोसेंस एंड सांग्स आफ़ एक्सपीरियेंस, उसका उपशीर्षक दिया, ‘मन की दो परस्परविरोधी दशाए’। नयी कहानी के दौर की भी ये दो परस्परविरोधी मनोदशाएं थीं, शहरी जीवन के यथार्थ में आधुनिकतावादी कथानायक चालाक, काइयां और अवसरवादी होता था, चाहे वह ‘चीफ़ की दावत’ में चित्रित हो, या ‘टूटना’ में या ‘जिंदगी और जोंक’ में चित्रित मध्यवर्ग । ये सब ‘सांग्स आफ़ एक्सपीरियेंस’ के कथानायक थे और शहरी कहानी का नारा भी यही था, अनुभूति की प्रामाणिकता और भोगा हुआ यथार्थ । उस दौर के तीन कहानीकार (फणीश्वरनाथ ‘रेणु’, शेखर जोशी और मार्कंडेय) ‘सांग्स आफ़ इन्नोसेंस’ के रचनाकार हैं, इनकी कहानियों के कथानायकों की मासूमियत या तो छली जाती है, या अपनी अस्मिता खो बैठती है, इनमें ‘मारे गये गुलफाम’ की केंद्रीय थीम ध्वनित होती रहती है, भारतीय समाज में ऐसे पात्र जो मासूमियत की नुमाइंदगी करते हैं, आज़ादी के बाद के समाज में किस तरह जी पाते हैं या मर जाते हैं, उनके शरीर और मनोचेतना के विश्वसनीय खाके़ इन कहानीकारों ने ही रचे। मार्कंडेय की कहानियों की केंद्रीय थीम मासूमियत ही है, यहां तक कि शहरी जीवन पर लिखी कहानियो में भी, मसलन ‘प्रिया सैनी’ जैसी कहानी तक में, जिसे बिना ठीक से समझे, डा. चंद्रभूषण तिवारी मज़ाक का विषय बनाया करते थे, मार्कंडेय जी को चिढ़ाने के लिए।
मार्कंडेय जी के सात कहानी–संग्रह प्रकाशित हुए जो बाद में एक जिल्द में ‘मार्कंडेय की कहानियां’ शीर्षक से लोकभारती ने छापे। ‘पान फूल’ उनका पहला कहानी संग्रह था, मार्कंडेय जी के मुताबिक़ वह पहले पहल 1954 में और फिर 1957 में छपा था, उसकी पहली ही कहानी एक मशहूर कहानी बन गयी थी––‘गुलरा के बाबा’ । जैसा कि मैंने कहा कि उनकी कहानियां ‘सांग्स आफ़ इन्नोसेंस’ हैं, जिन गीतों के केंद्र में मासूमियत का प्रतीक ‘बच्चा’ या उसका बिंब रहा था, गुलरा के बाबा के अंदर भी आप उस बच्चे को देख सकते हैं। कहानी के ठीक बीचोंबीच उस बच्चे का बिंब आता है : ‘उस समय बाबा बच्चे थे।’ (मार्कंडेय की कहानियां, लोकभारती, पृ. 5) एक मासूम बच्चे के रूप में एक वेश्या की जिस मासूम लड़की के साथ खेल रहे थे, वह जवान हो कर बाबा के पास प्रणय निवेदन के साथ आती है, तो बाबा बाबा ही बने रहते हैं, निर्विकार, उनकी जगह शहरी मध्यवर्ग का कोई आधुनिक पात्र, भले ही वह हिंदी का प्रोफे़सर ही होता, उस लड़की को खुशी खुशी उपकृत कर देता। बाबा के साथ जो दो नवयुवक रहते हैं, उन्हें भी ‘बच्चे’ के बिंब से चित्रित किया गया है जिनके साथ मिल कर उन्होंने उस सिल्ली को चीरने के लिए खड़ा कर दिया जिसे ‘दस आराकस और आठ चरवाहे और लोहार––कुल अठारह’ लोग भी टस से मस न कर सके। जब लोगों ने बाबा की ताक़त की तारीफ़ की तो बाबा ने कहा कि यह ज़ोर तो उन्हीं दो लड़कों का था । यह सुन कर ‘बच्चे हंस पड़े । लोहार ने कहा, ‘नहीं बाबा, ये सब बच्चे हैं, क्या ज़ोर लगायेंगे।’ कहानी का अंत जिस घटना से होता है, वह भी मासूमियत का ही उदाहरण है, बाबा अपना परोसा खाना छोड़ कर चैतू की टूटी टांग सेट करने चले जाते हैं, और उसकी टूटी छान देख कर इतने द्रवित हो जाते हैं कि दूसरे ही दिन गुलरा की सरपत कटवाने के लिए पच्चीस मज़दूर लगा देते हैं, किस लिए, ‘चैतुआ की छान्ह टूट गयी है’।(मार्कंडेय की कहानियां, लोकभारती, पृ. 8) यह बालसुलभ मासूमियत तो आज के गांवों में भी अब नहीं मिलती
उक्त संकलन की ही शीर्षक कहानी, ‘पान फूल’ को भी आप ‘सांग आफ़ इन्नोसेंस’ की तरह पढ़ सकते हैं। यह कहानी तो है ही बच्चों की मासूमियत के बारे में। जानकी की बच्ची नीली, और उसके यहां काम करने वाली पारो की बच्ची रीती, की यह त्रासद कहानी है। इनकी मासूमियत को पूरी कहानी में तरह तरह के ‘फूलों’ के बिंबों से सजाया गया है, उनकी मासूमियत को ‘सेलीब्रेट’ करने के लिए जब गांव के लोग बाउली पर पहुंचते हैं, तो वे दोनों बच्चियां बाउली में डूब चुकी होती हैं, पानी की सतह पर तैरते पान फूल ही लोगों को दिखायी देते हैं, नीली और रीती नहीं। दर असल, आज़ादी के बाद के माहौल में चालाकी, छल, फरेब, बेईमानी और कलह आदि से भरे भवसागर में मासूमियत डूब रही थी, कुछ कहानीकारों ने जिनका जि़क्र मैंने ऊपर किया है, इस मासूमियत को ही रेखांकित करने की रचनात्मक कोशिश की थी, वे इसी लोप होती मासूमियत की ट्रेजिडी रच रहे थे। मार्कंडेय की कहानियों की तो केंद्रीय थीम ही यह है। हिंदी के कथा आलोचकों ने इस केंद्रीय थीम को पहचाना ही नहीं, इन कहानियों में कोरी भावुकता ही देखी।
मार्कंडेय जी की सारी कहानियों का विवेचन इस छोटे से आलेख मे संभव नहीं, उसके लिए तो एक पूरे शोध ग्रंथ की दरकार होगी, और कोई न कोई शोधार्थी किसी न किसी विश्वविद्यालय में यह काम करेगा ही या शायद कर रहा होगा। मैं कुछ एक कहानियों और ख़ासकर उनके संकलनों की शीर्षक कहानियों की पड़ताल करते हुए उनमे ‘सेलीब्रेट’ की गयी मासूमियत को ही रेखांकित करना चाहूंगा। उनके दूसरे संकलन, ‘महुए का पेड़’, की शीर्षक कहानी को इस नज़र से देखा जाये। यह कहानी दुखना नामक एक ग़रीब विधवा के महुए के पेड़ की कहानी है, जिसके ‘फूल क्या होते हैं जैसे मिश्री के दाने। गांव के लोग उसे मिसिरहवा कहते हैं।’ दुखना का इस पेड़ से ‘बड़ा निकट संबंध है।’ ‘दुखना कभी उसे अपना बच्चा समझती थी।’ अंग्रेजी कवि वर्डस्वर्थ ने जब अपने काव्यशास्त्र की रचना की तो उसमे भी मासूमियत के प्रतीक दुखना जैसे पात्रों को चुनने की सलाह दी क्योंकि ‘उनका प्रकृति के साथ निकट का संबंध होता है’। इस कहानी में भी बच्चों के बिंब बार बार आते हैं। दुखना जब तीर्थ यात्रा के लिए कुछ पैसे उधार लेने के लिए अपने किसी रिश्तेदार के यहां जाती है तो यह अफवाह उड़ जाती है कि दुखना तो कहीं चली गयी और गांव के ज़मीदार को मौक़ा मिल गया, उसने उसका महुए का पेंड़ कटवा दिया जो उसकी झोंपड़ी पर ही गिर पड़ा और जब दुखना लौट कर आयी तो उसने वह विध्वंस देखा । उसकी बेबसी, उसकी करुण दशा का चित्र कहानीकार ने सहज ही खींच दिया है, मासूमियत की प्रतीक दुखना के अवसान की कहानी है ‘महुए का पेड़’।
मार्कंडेय जी का तीसरा संकलन, था, ‘हंसा जाई अकेला’ । इस संकलन की शीर्षक कहानी की व्याख्या आधुनिकतावादियों की नज़र से भी की जा सकती है, क्योंकि इसमें हंसा नामक कथानायक का अकेलापन रेणु के हीरामन के अकेलेपन की तरह ही चित्रित किया गया है। लेकिन मैं इसे भी अकेलेपन के बजाय हंसा की मासूमियत की कहानी के रूप में देखता हूं। रतौंधी का शिकार हंसा रात के वक्त कहीं से गांव के ही लोगों के साथ लौट रहा था, रास्ते में एक नौजवान बहू से अंधेरे मे टकरा गया तो उसे गिरने से बचाने के लिए उसने अपनी बांहों में रोक लिया और उसके चीखने पर पास में बैठा एक बुढ्ढा लाठी ले कर उसकी तरफ़ दौड़ा और भागने के इस क्रम में वह कांटों में गिरता पड़ता गांव पहुंचा। हंसा की जो तस्वीर रचनाकार ने खींची है, वह भोले भाले ग्रामीण की ही है जिससे बच्चे चिपटते रहते हैं। बच्चों के बिंब यहां भी खूब है । जब हंसा ढोलक लेकर गांव में कांग्रेस की सभा मे सुशीला जी के गायन की मुनादी करता घूमता है तो वहां, ‘दल–के–दल लरिका–बच्चा सब...बोलो, बोलो, गन्हीं बाबा की जय।’ इसी तरह जब हंसा सुशीला का प्यार पा कर कांग्रेस का कार्यकर्ता बन कर गांव में चुनाव प्रचार करता घूमता है तो ‘गांव के बच्चे हंसा दादा के पीछे...’। जब सुशीला की निमोनिया से मौत हो जाती है तो उसके प्यार का संसार सूना हो जाता है, और वह पागल हो जाता है, तब भी बच्चे उसके साथ घूमते हैं। इस तरह इस मासूमियत की कहानी का अंत ट्रैजिक है।
मार्कंडेय जी का चौथा संकलन पहले ‘माई’ शीर्षक से छपा था जिसे उन्होंने बाद मे ‘भूदान’ शीर्षक से प्रकाशित करवाया। राजनीतिक चेतना के दबाव में शायद भूदान के खोखलेपन को उजागर करने के विचार से उन्होंने इस कहानी को केंद्र में लाना उचित समझा होगा। लेंकिन ‘माई’ के केंद्र में वही मासूमियत है जिसे मैं उनकी संवेदनात्मक अभिव्यक्ति की धुरी मानता हूं और जिसकी वजह से वे अलग कि़स्म के रचनाकार दिखते हैं। मासूमियत ‘भूदान’ कहानी में भी छली जाती है जिसमें रामजतन जैसे भोलेभाले किसान को ज़मीदार ठग लेता है, और ज़मीन हड़प कर उसे भूदान के माध्यम से ज़मीन दिलवाने का झुनझुना थमा देता है, और इस तरह वह मासूम ग़रीब किसान ठगा जाता है। लेकिन ‘माई’ तो कहानी ही बच्चों की मासूमियत की है जिनमें से एक मासूम, बीरू, ज्यादा संवेदनशील होने की वजह से क्रोधी और तोड़फोड़ करने वाला और साथ ही बीमार रहने वाला बच्चा बन जाता है, मगर माई उसे अपने स्नेह से वंचित करने को तैयार नहीं। यहां माई के लिए सभी बच्चे बराबर हैं, बीरू के प्रति उसका प्यार कम नहीं, जबकि उस उग्रपंथी बच्चे से बाक़ी सभी को शिकायत है। माई जानती है कि जो पढ़ लिख जायेंगे वे तो साहब बन जायेंगे, बीरू का तो उसके अलावा और कोई नहीं होगा। इसलिए माई उसके प्रति अपने मोह में कमी नहीं दिखाती। यहां मासूमियत एक मानवमूल्य के रूप में दिखायी गयी है, माई भी उसी मासूमियत की प्रतीक है।
मार्कंडेय जी का पांचवां सकलन, ‘माही’ है जिसमें उनकी मशहूर कहानी, ‘दूध और दवा’ भी शामिल है । उनकी यह कहानी अपने शिल्प में अलग तरह की कहानी है, इसमें कोई पारंपरिक तरह का प्लाट या चरित्रचित्रण नहीं है, निम्नमध्यवर्ग का वह यथार्थ है जो उस समय की एक सचाई था, आज तो वह नवधनाढ्य वर्ग में तब्दील हो चुका है। उस समय सचमुच ही उसके लिए अपनी बच्ची के इलाज के लिए पैसे जुटा पाना आसान नहीं था। वह अपनी बेबसी का गुस्सा अपनी पत्नी पर उतारता था, क्योंकि उसकी पत्नी और मजदूर की हालत एक जैसी थी। कहानी में बार बार एक वाक्य आता है, ‘मैं समझ नहीं पाता कि स्त्रियां और मजदूर मालिकों को क्यों ओढ़े हुए हैं, महज इतनी सी बात के लिए, या मुन्नी की आंखों के मांड़े की दवा या उसके दूध के लिए’। यदि गहराई में उतर कर देखें तो यहां भी कहानी के वाचक की यह दशा उसकी अपनी मासूमियत ही है, उसके पास वह छल या तिकड़म नहीं है जो उसे एक सफल इंसान बनाने में मदद करती है, वह लेखन से क्या कमाई कर लेगा, वह अपनी बेटी की मासूमियत को भी जिंदा रखना चाहता है, उसका सपना है उसे पेंटर बनाने का, ‘मेरी बेटी, मैं चाहता हूं, वह पेंटर बने...’ उन दिनों पेंटिंग का भी आज की तरह बाज़ार नहीं था, कम से कम धनी बनने का साधन तो कला थी ही नहीं। बच्ची की चिंता और उसकी मासूमियत को दर्शाने वाले कथन कहानी में जगह जगह उभारे गये हैं, उसी तरह के बिंब कहानी में पिरोये गये हैं, इसमें कहानीपन कम और कवितापन ज्यादा देखा जा सकता है, निर्मल वर्मा की तरह का ‘नयी कहानी’ का शिल्प अपने अलग अंदाज़ में अपनी अलग विचारधारात्मक झलक देता हुआ इस कहानी में मार्कंडेय जी ने अपनाया जो नये शिल्प पर उनकी पकड़ को भी रेखांकित करता है। इस संकलन की शीर्षक कहानी, ‘माही’, भी अलग कि़स्म की छोटी सी कहानी है, इसमें दो सहेलियां अपनी अपनी मासूमियत जी रही हैं और एक तरह का अंदरूनी अकेलापन झेल रही हैं। एक रुक्मी जो ब्याहता है और अपने मायके आयी हुई है, यहीं उसकी सहेली माही है जिसके जीवन की एक झलक उस पत्र से मिलती है जिसे रुक्मी पोस्टमैन से लपक लेती है और उसे खोल कर पढ़ लेती है। इन युवतियों की मासूमियत के लिए इस कहानी में भी ‘बच्चे’ के बिंब पिरोये गये हैं। रुक्मी के मायके आने पर ‘बच्चे उसके आंचल से चिपके रहते हैं...’ कहानी की की शुरू की ही पंक्तियों में रुक्मी अपनी सहेली माही को सलाह देती है कि वह अपने अकेलेपन को काटने के लिए बच्चों के साथ कोई खेल ही खेल लिया करे। ‘घर में बच्चे हैं।’ कहानी का बड़ा भाग किसी प्रीतीश को माही के लिए लिखा गया पत्र है जिसमें प्यार से कहीं ज्यादा अलगाव रेखांकित किया गया है, दो अलग अलग वजूद हैं, जिनमें सामंजस्य की संभावना नहीं है। कहानी छिपे तौर पर यह रेखांकित करती है कि माही की मासूमियत प्रीतीश द्वारा छली जा रही है, दूर होने का बहाना तलाश किया जा रहा है, इस छलना को रुक्मी भी पत्र पढ़ने के बाद अपने जीवन में महसूस करने लगती है। इसी संकलन में एक कहानी ‘सूर्या’ है जिसमें सूर्या की मासूमियत का विश्लेषण है, सूर्या का लगाव जगजीत से है जिसे उसकी मां ने कभी नौकर के रूप में रखा था, और बाद में सुनील से उसका प्यार हुआ क्यों कि वह ‘बच्चा’ चाहती थी। मगर जिंदगी के एक मोड़ पर उसे फिर से जगजीत ही मिल जाता है जब वह एक स्कूल में ‘गुरु जी’ बन कर पहुंचती हैं। सतही तौर पर देखने में यह कहानी एक फि़ल्मी अंदाज़ की अविश्वसनीय कहानी लगती है, लेकिन इसे उसी नज़रिये से देखें तो इसके केंद्र में भी सूर्या और जगजीत की मासूमियत ही है, इसे मासूमियत की कहानी के रूप में ही व्याख्यायित कर सकते हैं। महरी सूर्या को जब उनसे पहले वाली मास्टरनी के बारे में बताती है तो इसी थीम का संकेत देती है: ‘आपके पहले वाली गुरु जी तो इसी क्वार्टर में आठ बरस रह गयीं...यहीं ब्याह किया और यहीं उनके बच्चे भी हुए। उन्हीं ने तो जगजीत को रखा था । घर द्वार का कुछ पता नहीं बेचारे का, बचपन से मारा मारा फिरता था। कुछ दिन शहर में किसी के यहां काम कर चुका था...’ महरी को यह पता नहीं कि यह जगजीत सूर्या के ही घर पर काम कर चुका था जब वह सत्तरह–अठारह बरस की थी और उससे वह गर्भवती भी हुई थी। कहानीकार ने कहानी के ‘टैक्स्ट’ में एक जगह सूर्या के लिए ‘भोली बच्चा सूर्या’ पद का इस्तेमाल किया है। इस मासूम को अब सुनील से शादी करने का सपना भयाक्रांत करता हे, उसकी स्वतंत्रता खंडित हो जायेगी और फिर से उसके मन में जगजीत नौकर के लिए एक चाहत पैदा हो जाती है। यह मासूमियत के प्रति मासूमियत का आकर्षण है।
‘माही’ के बाद उनका अगला संकलन,‘सहज और शुभ’ नाम से आया। इसकी शीर्षक कहानी ‘सहज और शुभ’ में वाचक अपने बचपन और अपनी चचेरी बहिन सविता के बचपन के दौरान की मासूमियत को अपनी स्मृति में जीता है। वाचक और सविता एक चिडि़या पकड़ते हैं और उसी के बहाने अपनी मासूमियत की अंतर्कथा पेश करते हैं। एक ओर रमोला दादी हैं जो पिंजड़ों में पक्षियों को कैद किये हुए हैं, दूसरी ओर वह ‘मासूम’ चिडि़या है जो मासूम सविता के कंधे पर बैठती है और उसकी हो जाती है। रिबन से बंध जाने पर भी वह नीबू की एक टहनी से दूसरी टहनी पर फुदकती रही है। यहां पिंजरा नहीं है, नीबू की टहनी पर ही तो है, अपने जैसे मासूम बच्चों के साथ। वाचक इस चिडि़या के लिए ‘मासूम जान’ शब्द का इस्तेमाल करता है।
मार्कंडेय जी का सातवां संकलन था, ‘बीच के लोग’ । वैसे तो बीच के लोग से मध्यवर्ग का अर्थ लिया जाता है। शील जी की एक मशहूर कविता भी इसी शीर्षक से थी जिसे वे ज़रूर सुनाया करते थे, ‘बीच में लटके बीच के लोग’। मार्कंडेय जी की पूरी कहानी मध्यवर्गीय पात्रों की कहानी नहीं है। वह गांव के वर्गीय अंतर्विरोध उभारती है और सिर्फ कहानी के अंत में एक बयान से कहानी के संवेदनात्मक उद्देश्य को उजागर कर देती है कि ‘ज़रूरत तो ऐसी ही है । अच्छा हो दुनिया को जस जस–की–तस बनाये रहने वाले लोग अगर हमारा साथ नहीं दे सकते तो बीच से हट जायें, नहीं तो सबसे पहले उन्हीं को हटाना होगा, क्योंकि जिस बदलाव के लिए हम इस रण को रोपे हुए हैं, वे उसी को रोके रहना चाहते हैं।’ यह बयान एक भूमिहीन किसान, बुझावन के बेटे मनरा के मुंह से दिलवाया गया है जो लाल झंडा पार्टी की किसान सभा का उत्साही युवा कार्यकर्ता है। ऐसा बयान एक क्रांतिकारी युवा के मुंह से कहलवा कर मार्कंडेय ने एक ऐसे यथार्थ को रेखांकित कर दिया जो हमारे देश में अविकसित क्रांतिकारी चेतना का परिचायक है। मनरा की चेतना का स्तर यह है कि मध्यवर्ग क्रांति में आड़े आयेगा तो सर्वहारावर्ग उसे पहले खत्म कर देगा, यह संकीर्णतावादी सोच है, भारतीय क्रांति में मध्यवर्ग की सहभागिता और उसे क्रांति के पक्ष में करने की कठिन प्रक्रिया से बचना या इस तरह का अतिवादी रवैया अख्तियार करना घातक ही हो सकता है, मुक्तिबोध इस कठिन जिम्मेदारी को समझते थे और उन्होंने अपने रचनाकर्म से मध्यवर्ग को सर्वहारा के पक्ष में खड़ा होने के लिए प्रेरित किया, और उन भौतिक परिस्थितियों को भी अपनी रचनाओं में रखा जिनके दवाब में मध्यवर्ग को एक ऐतिहासिक मोड़ पर क्रांतिकारी शक्तियों के साथ आना होगा, अन्यथा समाज का भावी विकास रुक जायेगा। आज पूंजीवाद की विकसनशील क्षमता के बने रहने के दौर में भले ही यह प्रक्रिया मंद या असंभव लगे, मगर मुक्तिबोध के ही शब्दों में, ‘यह भवितव्य अटल है इसको अंधियारे में झोंक न सकते’। ‘बीच के लोग’ कहानी में यह राजनीतिक चेतना का कच्चापन भले ही अंत में झलकता हो, कहानी की बुनावट में उस मासूमियत को बरकरार रखा गया जिसकी चर्चा इस आलेख में हो रही है। गांव में जो उत्पादन के रिश्ते हैं, उनमें एक समरसता बनाये रखने में उस मासूमियत का रोल यहां भी है, जिसे ‘फउदी बाबा की पोती बुचिया’ के बिंब से कहानी के केंद्र में रखा गया है, उस बच्ची के लिए गरीब बुझावन उस खेत में बचे खुचे आलू बीन रहा है जिसके सारे आलू ठाकुर ने चोरी से रात में अपने आदमी लगा कर निकलवा लिये थे और उस चोरी की वजह से गांव में खूनी संघर्ष होने वाला था, मगर गरीब बुझावन जिसका बेटा किसान सभा का कार्यकर्ता है, फउदी दादा की पोती उस बच्ची की मासूमियत और उसके प्रति लगाव के कारण संघर्ष को होने से बचा लेता है। भारतीय गांवों की इस विचित्र संरचना में शोषित और शोषक के बीच के रिश्तों की यह जटिलता है, यहां हर जाति धर्म के लोगों में आपस में पारिवारिक रिश्ते ही बने हुए हैं, यहां धोबिन चाची या ताई हो जाती है, कुम्हार या नाई सभी इसी तरह के रिश्ते से पुकारे जाते हैं। भारत देश में ही यह संभव है कि सब एक जन नेता गांधी को ‘बापू’ के नाम से पुकारने लगते हैं, नेहरू को ‘चाचा’ बना लेते हैं, यह रिश्ते जोड़ने की परंपरा गांवों से ही ली गयी है। इस परंपरा में भी एक मासूमियत ही छिपी हुई है, वरना अपने बापू के अलावा किसी और को बापू बनाना खुद को ही गाली देने जैसा होता।
इसी संकलन में मार्कंडेय जी की एक और मशहूर कहानी है, ‘प्रिया सैनी’। यह कहानी इस संकलन की अंतिम कहानी भी है। नयी कहानी के गैर रोमांटिक तामझाम से बने परिवेश में यह कहानी कई आलोचकों को लिजलिजी भावुकता से भरी हुई कहानी लगती रही। मैंने भी नयी दिल्ली के अपोलो हास्पिटल में उनके दिल के आपरेशन के बाद उनके डाक्टर से मज़ाक में पूछा कि आपरेशन के वक्त कुछ प्रेमिकाओं के फोटो तो दिल में नहीं मिले, यदि मिले हों तो दिखाये जायें, मार्कंडेय जी मुस्कराये। प्रिया सैनी से अलग होने के बाद जो टीस वाचक झेलता है, उसके बारे में कहानी की शुरुआत में ही कहा गया है, ‘मुझे लगता है कि कलेजे की सीयन ही टूट जायेगी...’। और दर्द को बयान करने के लिए कहानी फ्लैशबैक की तकनीक से शुरू होती है। वाचक ‘आज के जीवन में संवेगों की परिवर्तित प्रकृति पर खोज’ कर रहा है और प्रिया सैनी से मुलाकात, उनसे इस बारे में कुछ जानने के लिए करता है। प्रिया सैनी नृत्य की टीचर है और उसके पिता भी ‘आकाशवाणी में ठेके पर कलाकार हैं’। मां नहीं है। पिता के बारे में वह बताती है कि ‘पिता पूर्णत: संत हैं।’ वाचक प्रिया सैनी के लिए भी जिन बिंबों का या उपमाओं का इस्तेमाल करता है उनसे उसकी मासूमियत की ही छवि उभरती है, ‘छोटी सी नदी की तरह स्वच्छ जलधार और मधुर, धीमी ध्वनि का वह संस्कार जिसे सिर्फ प्रिया के चित्र के साथ ही जोड़ा जा सकता है।’ वाचक की दूसरी मुलाकात तब होती है जब उसे प्रिया सैनी की एक नृत्य नाटिका, ‘इंसान की खोज’ देखने के लिए निमंत्रण कार्ड डाक से मिलता है और वहां जाने पर उसका स्वागत प्रिया के प्रेमी या भावी पति के रूप में होता है। नृत्य के बाद जब वह उससे मिलता है तो वहां प्रिया की मासूमियत का बिंब रचनाकार ने पिरो दिया है: ‘प्रिया दोनों हथेलियों को परस्पर बांध कर इस तरह मुस्काराने लगी जैसे कोई नन्हीं सी बच्ची हो।’और उसके बाद उनका मिलन जुलना बढ़ता ही गया जो वास्तविक प्रेम में बदल गया लेकिन इस मासूम प्रिया के जीवन में एक अन्य घटना भी घटी जिसका मर्म जानने के लिए वाचक लगातार प्रिया पर दवाब डालता रहा । उसके पेट में एक शिशु पल रहा था और वह किसका था, इसका उत्तर न मिल पाने की हालत में वह उसे छोड़कर गांव और फिर बंगाल आदि जगहों पर भटकता रहा और जब लौट कर आया तो उसे प्रिया सैनी का एक पत्र मिला जिसमें उस घटना की जानकारी थी जिसमें एक हड़ताली मजदूर उसी तरह उसके कमरे में दाखिल होता है जैसा कि बर्नार्ड शा के नाटक ‘आम्स एंड द मैन’ में रायना के कमरे में एक घायल सिपाही और उस सिपाही से रायना का इश्क। प्रिया का भी उस मजदूर से इश्क और फिर रतिक्रिया और उसी के फलस्वरूप उसका गर्भधारण। उस पत्र से सारी जानकारी हासिल तो हो गयी लेकिन प्रिया सैनी हमेशा हमेशा के लिए उससे ‘अलविदा’ कह गयी। यह दंश वाचक को लगातार सालता है।
अंग्रेज़ी के कई कथाकार मासूमियत के प्रतीक पात्रों को ऐसी स्थिति में दिखाते हैं कि उनके लिए यह छल छद्म से भरा संसार जीने लायक नहीं। टामस हार्डी के पात्र इसी तरह चित्रित किये गये थे। ‘टैस’ नाम उपन्यास में टैस के साथ भी यही होता है। वह भी मासूमियत की प्रतीक है। अंत में जब वह उस प्रेमी की हत्या कर देती है जो उसे झूठ और फरेब से अपनी पत्नी बना लेता है तो उसे फांसी की सज़ा सुनायी जाती है और उपन्यास का वाचक व्यंग्य से लिखता है कि ‘लो न्याय होगया । उपन्यास के पहले ही पृष्ठ पर शेक्सपीयर की एक पंक्ति छपी थी जिसका अर्थ था ‘मेरा दिल ही तुम्हारे रहने की जगह है’ यानी छल फरेब झूठ, अन्याय और मारधाड़ से लबालब इस संसार में मासूमियत के लिए कोई जगह नहीं, जो मासूम होंगे वे मारे जायेंगे।
मेरे विचार से मार्कंडेय जी ने अपनी कहानियों में इसी मासूमियत को अपनी रचनाशीलता का विषय बनाया और उसकी जरूरत को रेखांकित किया, क्योंकि मुक्तिबोध की तरह वे भी जानते थे कि ‘भोले भाव की करुणा क्रांतिकारी सिद्ध होती है।
मंगलवार, 27 जुलाई 2010
मंगलवार, 6 जुलाई 2010
सामसुंग के चारण
कुछ महीने पहले एक छोटी सी पत्रिका में किसी चौधरी का एक लेख पढा था जिसमें साहित्य अकादमी द्वारा सामसुंग के साथ गठजोड का विरोध करने वालों की निंदा करते हुए लेखक ने सामसुंग का पक्ष लिया था, उस लेख पर मैंने जो अपनी टिप्पणी लिखी थी उसे मैं अपने ब्लाग पाठकों के लिए यहां पेश कर रहा हूं:
सामसुंग के चारण
दक्षिण कोरियाई बहुराष्ट्रीय कंपनी सामसुंग के साहित्य अकादमी के साथ गठबंधन का हिंदी के लेखकों ने जो विरोध किया उसे ले कर कुछ लेखकों के पेट में इतना दर्द हुआ हे कि वह उनकी लेखनी से अभिव्यक्त हो रहा है । शंभुनाथ, उमाशंकर चौधरी आदि कई लेखकों ने लेख लिखकर सामसुंग के चारण के रूप में अपनी छवि बनायी है क्योंकि उन्होंने हिंदी के लेखकों और संगठनों द्वारा किये गये प्रतिरोध को ग़लत ठहराते हुए उनकी लानत मलानत की है। ऐसा हमेशा और हर जगह होता आया है कि कुछ लेखक हमेशा शोषकशासकवर्गों की चरणवंदना करते रहे हैं, शाहेवक्त़ की वंदना करना उनके ख़ून में होता है, उन्हें उम्मीद बनी रहती है कि बहुराष्ट्रीय रसगुल्ला किसी न किसी दिन उनके मुंह में भी गिरेगा ही, पुरस्कार अब चारणवृत्ति से भी अर्जित किये जा सकते हैं। विरोध करने वालों से वे कुछ ज्य़ादा ही खफा हैं, वे जानेजाने बहुराष्ट्रीय कंपनी सामसुंग के चरणदास बन कर प्रतिरोध करने वालों को गरिया रहे हैं । सामसुंग के चारण लेखक महोदय यह तो मानते हैं कि 'लोकतंत्र में और उससे भी अधिक आधुनिक साहित्य में प्रतिरोध ज़रूरी है , आधुनिक साहित्य का तो यह पैमाना ही है', फिर भी वे सामसुंग का प्रतिरोध करने वालों को गरियाते हैं, वे लिखते हैं कि 'हिंदी के लेखकों ने इसके विरोध में आसमान सिर पर उठा लिया था' और 'अंतत: इन बेचारों की आवाज़ नक्कारखाने में तूती की आवाज़ बन कर रह जाती है।' वे इसलिए भी खुश हैं कि इन बेचारे लेखकों की कुछ भी नहीं चली और पूरी शानोशौकत के साथ एक दक्षिण कोरियाई महारानी (प्रथम महिला) के हाथों पुरस्कार वितरण हो गया और सरकार या अकादमी ने इन बेचारों की ओर कोई गौर नहीं किया । इन चारण महोदय ने सिर्फ़ अपनी खुशी का इज़हार ही किया, सामसुंग की वकालत करते समय कोई उसके पक्ष में तर्क पेश नहीं किया । संस्कृति की बहुलतावादी व्याख्या पर एक लेक्चर पाठकों को पिला दिया जिसका मुख्य मुद्दे से कोई ताल्लुक नहीं । क्या सामसुंग के साथ एक अकादमी के समझौते से कोरियाई संस्कृति का भारतीय संस्कृति में मिश्रण हो गया, क्या किसी भी विदेशी समाज की सांस्कृतिक धरोहर वहां की बहुराष्ट्रीय कंपनी के पास रखी है जो किसी दूसरे देश में जाकर वहां की संस्कृति में घोल दी जा सकती है? क्या इसी तरह संस्कृतियों का मिश्रण हुआ है? हमारे हिंदी चारणों का यह बौद्धिक दिवालियापन नहीं तो और क्या है कि सामसुंग साहित्य अकादमी के साथ मिल कर टैगोर पुरस्कार बांटेगा तो दो देशों की संस्कृतियां एक दूसरे में घुल मिल जायेंगी।'
सामसुंग के पैरोकार सबसे पहले उसके उद्देश्य को पूरा करने में जुट गये, यह उन्हें खुद भी नहीं मालूम । बहुराष्ट्रीय कंपनियां जहां भी धन लगा रही हैं, वहां उनका सबसे बड़ा लक्ष्य है साम्राज्यवाद के खिलाफ प्रतिरोध की ताकत को निरस्त करना और अवाम के जनवादी अधिकारों का साम दाम दंड भेद की नीति से दमन करना । हिंदी के हमारे ऐसे चौधरियों को शायद याद नहीं कि गुडग़ांव में इसी तरह की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी ने संगठित मज़दूरों की मामूली सी मांग पर चलने वाले आंदोलन को कुचलने के लिए किस तरह की वहशी दमनकारी कार्रवाई की थी, उसका वीडियो टेप अभी तक टी वी चैनलों पर सुरक्षित होगा। क्या इन तमाम बहुराष्ट्रीय निगमों में काम करने वालों को ट्रेड यूनियन अधिकार हैं जो कि हमारा संवैधानिक अधिकार है और जिसे ये निगम अपने पैसे के बल पर जूते की नोंक पर रखते हैं। ऐसे इन निगमों का विरोध हिंदी लेखक करते हैं तो यह उनकी साम्राज्यवादविरोधी चेतना का परिचायक है और इस चेतना की एक लंबी परंपरा है जिस पर हमें गर्व होना चाहिए।
1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के बाद महारानी विक्टोरिया की लुभावनी घोषणाओं के असर में भी हिंदी के बहुत से लेखक उस प्रतिरोध के प्रति इसी तरह की हिकारत की नज़र रखते थे और उसे उन्होंने अपने लेखन में उद्घाटित भी किया, अंग्रेज़ राज सुख साज बताया, उसके प्रति चारणवृत्ति दिखायी, आज के लेखकों के एक छोटे हिस्से में आज भी वह कलंकमयी परंपरा जीवित है, यह अफ़सोसनाक तो है ही, ख़तरानाक भी है। बहुराष्ट्रीय निगमों की यह साम्राज्यवादी कोशिश है कि बुद्धिजीवी हिस्सों में उन्हें और उनकी इस देश में उपस्थिति को स्वीकार्यता हासिल हो जाये । उनका आलोचनात्मक विवेक नष्ट या कुंद कर दिया जाये और वे भूल जायें कि साम्राज्यवाद जैसी भी कोई चीज़ भारत की छाती पर बैठी है। ज़ाहिर है कि इसके लिए उनके पास धनबल के अलावा और क्या है, मज़दूरों को तो दमनतंत्र से वश में किया जा सकता है, आलोचनात्मक विवेक से लैस लेखकों को तो पैसे के लोभ से ही चारण बनाया जा सकता है।
आखिऱ हुआ भी वही । सामसुंग का निशाना सही जगह बैठा और शंभुनाथ समेत कई चौधरी उसके शिकार हो गये । इस समय सामसुंग या किसी भी बहुराष्ट्रीय निगम के गैरसंवैधानिक क़दमों की आलोचना को हिकारत की नजऱ से देखना उसी तरह की चेतना का द्योतक है जिस तरह की पिछड़ी चेतना ब्रिटिश साम्राज्यवाद के चारण कुछ हिंदी लेखकों या बांग्ला लेखकों या अन्य भारतीय लेखकों ने 19वीं और 20वीं सदी के गुलामी के दौर में दिखायी थी। जो लेखक अपनी मासूमियत में सामसुंग समझौते या उसके पैसे से दिये गये पुरस्कारों को स्वीकार्यता प्रदान कराने की ताबड़तोड़ कोशिश में लगे हैं, वे यह नहीं जानते कि आज के हालात में भी साम्राज्यवादी ताक़तें, खासतौर से वित्तीय पूंजी के माध्यम से, हमारे देश को अपने अधीन बनाने की कोशिश में लगी हैं जिससे कि वे यहां के कच्चे माल, सस्ते श्रम और व्यापक बाज़ार पर अपना कब्ज़ा बनाये रख सकें और भारतीय अवाम का शोषण करके अपने अपने देशों की चमक दमक बरकरार रख सकें। हिंदी-उर्दू के बहुसंख्यक लेखक आज भी साम्राज्यवादविरोधी चेतना से लैस हैं और इसी लिए उनकी संवेदनशीलता इस तरह के प्रतिरोधों में झलकती है जिसे समझने में बहुत से चारणचेतना में आबद्ध लेखक असमर्थ हैं और उन्हें यह प्रतिरोध नक्कारखाने में तूती की आवाज़ लगता है। उनकी चारणवृत्ति उन्हें मुबारक !
सामसुंग के चारण
दक्षिण कोरियाई बहुराष्ट्रीय कंपनी सामसुंग के साहित्य अकादमी के साथ गठबंधन का हिंदी के लेखकों ने जो विरोध किया उसे ले कर कुछ लेखकों के पेट में इतना दर्द हुआ हे कि वह उनकी लेखनी से अभिव्यक्त हो रहा है । शंभुनाथ, उमाशंकर चौधरी आदि कई लेखकों ने लेख लिखकर सामसुंग के चारण के रूप में अपनी छवि बनायी है क्योंकि उन्होंने हिंदी के लेखकों और संगठनों द्वारा किये गये प्रतिरोध को ग़लत ठहराते हुए उनकी लानत मलानत की है। ऐसा हमेशा और हर जगह होता आया है कि कुछ लेखक हमेशा शोषकशासकवर्गों की चरणवंदना करते रहे हैं, शाहेवक्त़ की वंदना करना उनके ख़ून में होता है, उन्हें उम्मीद बनी रहती है कि बहुराष्ट्रीय रसगुल्ला किसी न किसी दिन उनके मुंह में भी गिरेगा ही, पुरस्कार अब चारणवृत्ति से भी अर्जित किये जा सकते हैं। विरोध करने वालों से वे कुछ ज्य़ादा ही खफा हैं, वे जानेजाने बहुराष्ट्रीय कंपनी सामसुंग के चरणदास बन कर प्रतिरोध करने वालों को गरिया रहे हैं । सामसुंग के चारण लेखक महोदय यह तो मानते हैं कि 'लोकतंत्र में और उससे भी अधिक आधुनिक साहित्य में प्रतिरोध ज़रूरी है , आधुनिक साहित्य का तो यह पैमाना ही है', फिर भी वे सामसुंग का प्रतिरोध करने वालों को गरियाते हैं, वे लिखते हैं कि 'हिंदी के लेखकों ने इसके विरोध में आसमान सिर पर उठा लिया था' और 'अंतत: इन बेचारों की आवाज़ नक्कारखाने में तूती की आवाज़ बन कर रह जाती है।' वे इसलिए भी खुश हैं कि इन बेचारे लेखकों की कुछ भी नहीं चली और पूरी शानोशौकत के साथ एक दक्षिण कोरियाई महारानी (प्रथम महिला) के हाथों पुरस्कार वितरण हो गया और सरकार या अकादमी ने इन बेचारों की ओर कोई गौर नहीं किया । इन चारण महोदय ने सिर्फ़ अपनी खुशी का इज़हार ही किया, सामसुंग की वकालत करते समय कोई उसके पक्ष में तर्क पेश नहीं किया । संस्कृति की बहुलतावादी व्याख्या पर एक लेक्चर पाठकों को पिला दिया जिसका मुख्य मुद्दे से कोई ताल्लुक नहीं । क्या सामसुंग के साथ एक अकादमी के समझौते से कोरियाई संस्कृति का भारतीय संस्कृति में मिश्रण हो गया, क्या किसी भी विदेशी समाज की सांस्कृतिक धरोहर वहां की बहुराष्ट्रीय कंपनी के पास रखी है जो किसी दूसरे देश में जाकर वहां की संस्कृति में घोल दी जा सकती है? क्या इसी तरह संस्कृतियों का मिश्रण हुआ है? हमारे हिंदी चारणों का यह बौद्धिक दिवालियापन नहीं तो और क्या है कि सामसुंग साहित्य अकादमी के साथ मिल कर टैगोर पुरस्कार बांटेगा तो दो देशों की संस्कृतियां एक दूसरे में घुल मिल जायेंगी।'
सामसुंग के पैरोकार सबसे पहले उसके उद्देश्य को पूरा करने में जुट गये, यह उन्हें खुद भी नहीं मालूम । बहुराष्ट्रीय कंपनियां जहां भी धन लगा रही हैं, वहां उनका सबसे बड़ा लक्ष्य है साम्राज्यवाद के खिलाफ प्रतिरोध की ताकत को निरस्त करना और अवाम के जनवादी अधिकारों का साम दाम दंड भेद की नीति से दमन करना । हिंदी के हमारे ऐसे चौधरियों को शायद याद नहीं कि गुडग़ांव में इसी तरह की एक बहुराष्ट्रीय कंपनी ने संगठित मज़दूरों की मामूली सी मांग पर चलने वाले आंदोलन को कुचलने के लिए किस तरह की वहशी दमनकारी कार्रवाई की थी, उसका वीडियो टेप अभी तक टी वी चैनलों पर सुरक्षित होगा। क्या इन तमाम बहुराष्ट्रीय निगमों में काम करने वालों को ट्रेड यूनियन अधिकार हैं जो कि हमारा संवैधानिक अधिकार है और जिसे ये निगम अपने पैसे के बल पर जूते की नोंक पर रखते हैं। ऐसे इन निगमों का विरोध हिंदी लेखक करते हैं तो यह उनकी साम्राज्यवादविरोधी चेतना का परिचायक है और इस चेतना की एक लंबी परंपरा है जिस पर हमें गर्व होना चाहिए।
1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम के बाद महारानी विक्टोरिया की लुभावनी घोषणाओं के असर में भी हिंदी के बहुत से लेखक उस प्रतिरोध के प्रति इसी तरह की हिकारत की नज़र रखते थे और उसे उन्होंने अपने लेखन में उद्घाटित भी किया, अंग्रेज़ राज सुख साज बताया, उसके प्रति चारणवृत्ति दिखायी, आज के लेखकों के एक छोटे हिस्से में आज भी वह कलंकमयी परंपरा जीवित है, यह अफ़सोसनाक तो है ही, ख़तरानाक भी है। बहुराष्ट्रीय निगमों की यह साम्राज्यवादी कोशिश है कि बुद्धिजीवी हिस्सों में उन्हें और उनकी इस देश में उपस्थिति को स्वीकार्यता हासिल हो जाये । उनका आलोचनात्मक विवेक नष्ट या कुंद कर दिया जाये और वे भूल जायें कि साम्राज्यवाद जैसी भी कोई चीज़ भारत की छाती पर बैठी है। ज़ाहिर है कि इसके लिए उनके पास धनबल के अलावा और क्या है, मज़दूरों को तो दमनतंत्र से वश में किया जा सकता है, आलोचनात्मक विवेक से लैस लेखकों को तो पैसे के लोभ से ही चारण बनाया जा सकता है।
आखिऱ हुआ भी वही । सामसुंग का निशाना सही जगह बैठा और शंभुनाथ समेत कई चौधरी उसके शिकार हो गये । इस समय सामसुंग या किसी भी बहुराष्ट्रीय निगम के गैरसंवैधानिक क़दमों की आलोचना को हिकारत की नजऱ से देखना उसी तरह की चेतना का द्योतक है जिस तरह की पिछड़ी चेतना ब्रिटिश साम्राज्यवाद के चारण कुछ हिंदी लेखकों या बांग्ला लेखकों या अन्य भारतीय लेखकों ने 19वीं और 20वीं सदी के गुलामी के दौर में दिखायी थी। जो लेखक अपनी मासूमियत में सामसुंग समझौते या उसके पैसे से दिये गये पुरस्कारों को स्वीकार्यता प्रदान कराने की ताबड़तोड़ कोशिश में लगे हैं, वे यह नहीं जानते कि आज के हालात में भी साम्राज्यवादी ताक़तें, खासतौर से वित्तीय पूंजी के माध्यम से, हमारे देश को अपने अधीन बनाने की कोशिश में लगी हैं जिससे कि वे यहां के कच्चे माल, सस्ते श्रम और व्यापक बाज़ार पर अपना कब्ज़ा बनाये रख सकें और भारतीय अवाम का शोषण करके अपने अपने देशों की चमक दमक बरकरार रख सकें। हिंदी-उर्दू के बहुसंख्यक लेखक आज भी साम्राज्यवादविरोधी चेतना से लैस हैं और इसी लिए उनकी संवेदनशीलता इस तरह के प्रतिरोधों में झलकती है जिसे समझने में बहुत से चारणचेतना में आबद्ध लेखक असमर्थ हैं और उन्हें यह प्रतिरोध नक्कारखाने में तूती की आवाज़ लगता है। उनकी चारणवृत्ति उन्हें मुबारक !
सोमवार, 1 फ़रवरी 2010
गांधी जी की पुस्तिका, हिंद स्वराज
30-31 जनवरी 2010 को धनबाद में गांधी जी पुस्तिका, हिंद स्वराज की शती पर पी के राय मेमोरियल कालेज ने एक राष्ट्रीय सेमिनार आयोजित किया जिसमें मुझे भी आमंत्रित किया गया। मैंने वहां जो आलेख पेश किया उसे जहां तहां थोड़ा संशोधित करके यहां पेश कर रहा हूं:
गांधी जी की हिंद स्वराज: वैयक्तिक परिप्रेक्ष्य
चंचल चौहान
गांधी जी की बीस अध्यायी छोटी सी पुस्तिका, हिंद स्वराज पर अपने आलेख को प्रस्तुत करते हुए एक स्पष्टीकरण देना जरूरी है । गांधी जी के प्रति मेरे मन में उतनी ही श्रद्धा है जितनी आप सब लोगों के मन में है क्योंकि वे देश के करोड़ों लोगों के जननेता थे और आजादी के संघर्ष का नेतृत्व करने वाले राजनीतिक संगठन के अहम हिस्सा थे। मगर इस पुस्तिका के लेखक मोहनदास करमचंद गांधी को मैं चालीस बरस के एक ऐसे भारतीय नौजवान की तरह देखता हूं जो लंदन में मिले बहुत से ऐसे भारतीय नौजवानों की बातें सुनकर उत्तेजित था क्योंकि वे भारत की आज़ादी के लिए अंग्रेज शासकों को हिंसा के बल पर देश से खदेड़ देने का फलसफा प्रचारित कर रहे थे। वहां से लौटते वक्त जहाजयात्रा के दौरान दस दिनों में लिखी यह किताब मेरे लिए एक “पाठ” है और मेरा ध्यान केवल और केवल इसी के पर्सपेक्टिव को वर्गीय नज़रिये से व्याख्यायित करने पर है, गांधी जी के संपूर्ण व्यक्तित्व का या उनकी विचारधारा का विश्लेषण इसे न समझा जाये, ऐसा मेरा अनुरोध है।
बीस अध्यायों में लिखी इस पुस्तिका पर अनेक भाषाओं में उसके प्रकाशन काल से लेकर अब तक इन सौ बरसों में इतना लिखा गया है जिसे अगर एक जगह रखा जाये तो, मेरा अनुमान है, शायद एक लाइब्रेरी भी कम पड़े। यह पुस्तिका इतनी विचारोत्तेजक है कि तोल्सतोय, मिडिलटन मरे से लेकर गोपालकष्ण गोखले और नेहरू तक इसके प्रकाशन काल में और अनगिनत लेखक और बुद्धिजीवी आज के दिन भी इस पर बहस रहे हैं। ऐसे में मेरे विचार भी किसी ने ज़रूर कह दिये होंगे, ऐसा भी हो सकता है, मैं इन्हें मौलिक समझ कर लिख रहा हूं।
दुनिया में सभ्यता के विकास से ही समाज की बेहतरी के लिए दो तरह के नज़रिये पेश किये जाते रहे हैं, एक नज़रिया तो वैयक्तिक या माइक्रोकास्मिक रहा है जिसके मुताबिक़ सुधार व्यक्ति से शुरू हो और समूह तक हो जायेगा, इस तरह समाज बदल जायेगा, दूसरा नज़रिया सामाजिक रहा है जो मैक्रोकास्मिक कहा जा सकता है जिसके मुताबिक़ परिवर्तन सामूहिक होता है और फिर इकाइयों तक फैलता है। प्लेटो अपने रिपब्लिक की रचना में व्यक्ति पर नज़र टिकाता है, व्यक्तिगत नैतिकता पर ज़ोर देता है और भाववादी दर्शन की नींव रखता है जिसमें आइडिया सत्य है, भौतिक जगत मिथ्या है। गांधी जी ने प्लेटो को पढ़ा था, और उनके भाववादी दर्शन का बीजवपन वहीं से हुआ जिसे हमारे यहां के बहुप्रचलित भाववादी दर्शन से खादपानी मिला जिसमें “ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या” की गुहार थी, और तुलसीदास आदि सगुणमार्गी संतों ने उसे जगह जगह घूमघूम कर प्रचारित किया था, “उमा कहहुं मैं अनुभव अपना/सत हरिभजन जगत सब सपना” या “गो गोचर जहं लगि मन जाई/सो सब माया जानेहु भाई” या “यह संसार फूल सेमल को” आदि आदि। आज भी तमाम साधू संत इसी भाववादी दर्शन का राग जगह जगह अलापते नज़र आते हैं, अनेक चैनलों पर यही संदेश पिलाया जा रहा है कि यह भौतिक जगत नाशवान है, हर आदमी धर्म के रास्ते पर चले तो संसार सुखी हो जायेगा। हर आदमी का चरित्र ठीक हो जाये तो पूरा समाज सुधर जायेगा। इस तरह के उपदेश, भारत के अतीत की दुहाई, भारतीय संस्कति के भाववादी पक्ष का अतिवादी प्रचार आज भी हम सवेरे से शाम तक देखते सुनते हैं।
गांधी जी को भारत की इस धार्मिक आत्मा की पहचान थी, इसी का इस्तेमाल विवेकानंद ने किया था, इसी के इस्तेमाल से वे भारत की बहुसंख्यक जनता को लामबंद कर सकते थे, इसका उन्हें अहसास था, इसीलिए वे किसान के जीवन को महिमा मंडित कर रहे थे और उसी को आदर्श बता कर वे आधुनिक औद्योगिक सभ्यता के विनाश का स्वप्न देख रहे थे । भारत के किसान समुदाय में भी भाववादी दर्शन का अच्छा खा़सा असर है, इसलिए उन्हें लामबंद करने में भी वह विचारधारा काम आ सकती थी । सहजानंद सरस्वती ने भी संत बन कर किसानों को लामबंद किया था। भारत में धार्मिकता के विस्तार को समझते हुए गांधी जी ने उसी में से अहिंसा, प्रेम आदि की मानववादी मूल्यव्यवस्था का सार ग्रहण किया था जिससे सांप्रदायिक सदभाव और अवाम की एकता का़यम की जा सकती थी, उन सभी धर्मों में भाववाद यानी भौतिकजगत के प्रति उदासीनता भी समाहित थी, इसलिए गांधी के दर्शन के साथ उसका तालमेल भी बैठता था।
गांधी जी में उपनिवेशवादविरोधी भावना उसी तरह तीव्र थी जिस तरह अनेक राष्ट्रवादियों में थी, मगर वे समझते थे कि हिंसा का रास्ता सही नहीं। लंदन में एक रेस्त्रां में उन्होंने सावरकर का उत्तेजक भाषण सुना था, उसी से उत्तेजित हो कर वहां से लौटते वक्त यह पुस्तिका उन्होंने लिखी, हिंसा के रास्ते की पराजय का इतिहास उन्हें शायद ज्ञात था, 1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम सफल नहीं हो पाया था, 1905 में रूस में भी जनवादी क्रांति या उससे बहुत पहले पेरिस कम्यून आदि की नाकायाबी के बारे में शायद उन्हें मालूम हो। लेकिन ये घटनाएं उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं थीं, उनका सरोकार उपनिवेशवादी सभ्यता से था, जिसका उन्मूलन सदियों से चली आ रही अजर अमर भारतीय सभ्यता को अपनाने से ही हो सकता था, ऐसा वे मानते थे । इसीलिए वे कह रहे थे, अगर अंग्रेज़ हमने भगा भी दिये और उनकी सभ्यता यहां बनी रही, तो “हिंदुस्तान” तब भी “इंग्लिश्तान” ही रहेगा, उनका ज़ोर हर व्यक्ति की चेतना बदल देने पर था। वे तो अंग्रेज़ को भी भारत में बने रहने देने के पक्ष में थे, बशर्ते वह भारतीय सभ्यता अपना ले । उनका ज़ोर तो “आत्म” पर था। बस “आत्म” बदल जाये तो फिर सारी समस्याएं दूर ।
गांधी जी के बनने में उस दौर की बहुत सी रचनाओं का भी योगदान था, पश्चिम में भी भौतिकवादी सभ्यता की तीव्र आलोचना हो रही थी, उसी आलोचना का प्रतिफलन बाद में टी एस एलियट के “वेस्टलैंड” में हुआ और आज़ादी के बाद शुरू के दशकों में हमारे यहां के “आधुनिकतावादी” रचनाकारों ने भी वही परिप्रेक्ष्य अपनाया। ये सभी रचनाकार भी व्यक्तिसुधार का फ़लसफा़ ही पेश कर रहे थे। टी एस एलियट ने भी हमारे यहां के बृहदकारण्य उपनिषद के तीन शब्द, “दत्ता, दयाध्वाम्, दमयत्” उधार ले कर पश्चिमी सभ्यता के “वेस्टलैंड” के उपचार का नुस्खा पेश किया। ज्यादातर “आधुनिकतावादी” आधुनिकता के खिलाफ़ थे और डिमोक्रेसी को “वेश्या” समझते थे, अग्रेज़ी कवि डब्ल्यू बी येट्स और एज़रा पाउंड के विचार इस बारे में देखे जा सकते हैं। ये कवि विश्वयुद्ध की विभीषिका देख चुके थे, जिसमें हिंसा से भौतिक विनाश ही नहीं, नैतिकता और मानवमूल्यों का भी संहार हुआ था। उन्हीं कवियों से प्रेरणा ले कर हमारे यहां के आधुनिकतावादी कवि धर्मवीर भारती ने अंधायु्ग, कनुप्रिया, नरेश मेहता ने संशय की एक रात और कुंवरनारायण ने आत्मजयी जैसी रचनाएं लिखी थीं। गांधी जी को भी अपनी शिक्षादीक्षा, संस्कारों और स्वाध्याय से प्राप्त किये नज़रिये से यही लगता था कि हिंसा मानवसभ्यता के खिलाफ़ एक घिनौनी हरकत है और उसे तरजीह नहीं दी जानी चाहिए। उन्हें शायद यह डर भी था कि अगर हिंसा के खिलाफ़ चेतना पैदा न की गयी तो भारत के सांप्रदायिक तत्व भारतवासियों को आपस में ही लड़वा कर एकता पैदा नहीं होने देंगे। देश में एकता लाने के लिए भी इस नीति की ज़रूरत थी। उनका यह डर सही भी निकला। वही सावरकर जो लंदन के एक रेस्त्रां में भारतमुक्ति के लिए अंग्रेज़ों के खिलाफ़ व्यक्तिहिंसा पर पुरजोश तक़रीर कर रहे थे, भारत में सांप्रदायिक फ़ासीवाद के प्रणेता बन कर देश की एकता तोड़ने वाला ज़हर घोलने लगे जिससे भारत का विभाजन हुआ और जो आज भी भारत के राष्ट्रवाद को खोखला कर रहा है और उसकी प्रगति में बाधा डाल रहा है।
इसलिए मेरे विचार में हिंद स्वराज में व्यक्त विचारों में से दो की अहमियत आज भी है वे हमारे काम के हैं : एक तो साम्राज्यवाद का विरोध और दूसरे भारत की एकता को बरकरार रखने वाली विचारधारा धर्मनिरपेक्षता या सर्वधर्मसमभाव को भारत की सामाजिक काया में बनाये रखने का आग्रह । बाक़ी बातें जो कि सदियों से चली आ रही भाववादी दर्शनधारा का ही दुहराव हैं और हर तरफ़ उपदेशकों और कथावाचकों के मुंह से लाउडस्पीकर पर या चैनलों पर सुनायी देती हैं, हमारे काम की नहीं हैं और वे सामाजिक विकास की प्रक्रिया में खुद ही नाकारा साबित हो रही हैं। जिसे वे भौतिकवादी सभ्यता समझते हैं, और जो उनकी नजर में मशीनी उत्पादन का नतीजा है, दर असल पूंजीवादी स्वामित्व के युग की देन है और जिसके शोषणपरक और उपनिवेशवादी पहलू पर ही गांधी जी की नजर है। मार्क्स ने वैज्ञानिक तरीके से उसके दोनों पहलुओं पर नजर डाली, सामाजिक विकास में पूंजीवाद के सकारात्मक कदमों को उन्होंने नकारा नहीं, और उसके उन पहलुओं की गांधीजी से ज्यादा तीखे तरीके से आलोचना की जो शोषणपरक उत्पादनसंबंधों और वर्गविषमता से पैदा हो रहे थे । मार्क्स इसलिए बीमारी की जड़ भाववादी दर्शन के तहत व्यक्तिनैतिकता या “आत्म” में नहीं, भौतिक परिस्थितियों में तलाशते हैं और उस भौतिक आधार को बदलने की सलाह देते हैं जिस पर नैतिकता और सभ्यता की इमारत खड़ी होती है।
सामाजिक विकास के अपने नियम हैं और भारत में भी वे नियम ही काम करते रहे, और कर रहे हैं, इसलिए हमारे यहां भी गांधी जी के विचार का समाज नहीं बना, जैसे रूस में तोल्सतोय के विचार का समाज नहीं बन पाया। सभी समाजों में परिवर्तन हो रहे हैं, गांधी जी भौतिकवाद को दुश्मन मानते थे, और पश्चिम की नकल पर बने लोकतंत्र को नकारते थे, मगर उनके न चाहते हुए भी भारत को उसी तरह का संविधान और उसी तरह का लोकतंत्र कायम करना पड़ा क्योंकि उसी तरह की पूंजीवादी उत्पादनप्रणाली और उसी तरह के उत्पादनसंबंध गांधी जी के जीवन काल में ही कायम हो चुके थे । यहां भी उसी तरह की उपरिसंरचना कायम हो गयी जैसा कि भौतिक आधार बना और यह आधार भी इसलिए बना क्योंकि भारत में इसी आधार के वस्तुगत हालात थे। हमारे पड़ोसी देश चीन में वस्तुगत हालात दूसरी तरह के थे, इसलिए वहां दूसरे तरह का समाज बना।
वर्गीय नजरिये से हालात को देखें तो सचाई समझ में आ सकती है। चीन में देशज पूंजीवाद बहुत कमजोर था इसलिए उसे दलालपूंजीपति की भूमिका निभानी पड़ रही थी, वह साम्राज्यवाद के खिलाफ़ संघर्ष की अगुआई करने की हालत में नहीं था, इसलिए वहां का नेतत्व सर्वहारावर्ग की विचारधारा के तहत कम्युनिस्ट पार्टी को हासिल हो गया और चीन 1949 में एक जनवादी गणराज्य बन गया जो अपने विकास के लिए सभी तरह की उन्नत उत्पादनप्रणालियों का इस्तेमाल आज कर रहा है (जिनमें पूंजीवादी दुनिया की प्रणालियां शामिल हैं) और अपने समाज के विकास की प्रक्रिया आगे बढ़ा रहा है।
हमारे यहां उन्नीसवीं सदी के आखिर में देशज पूंजीवाद का उदय हुआ और जल्दी ही यहां आधुनिक मशीनों के माध्यम से उत्पादन की नयी प्रणाली शुरू हुई, धीरे धीरे हमारे यहां का पूंजीवाद मजबूत हो गया, इसलिए आजादी की लड़ाई की अगुआई उसी वर्ग के हाथ आयी, भले ही नवोदित पूंजीपतिवर्ग समझौतापरस्ती दिखाता था मगर वह चीनी पूंजीपतियों की तरह दलाल पूंजीपति की भूमिका नहीं अपना रहा था। उसने अपने कलकारखाने और उत्पादन आदि के नये साधन अपनाये और स्वतंत्रता की कामना व राष्ट्रवाद आदि की विचारधारा का सूत्रपात किया। हमारे यहां के नक्सलवादी इस हकीकत को नजरअंदाज करते हैं, वे आज भी इस गलत समझ के शिकार हैं कि भारत दलाल पूंजीवाद के अधीन राज्य है जबकि असलियत साफ है कि हमारी समाज व्यवस्था इजारेदारपूंजीवाद और सामंतवाद के गठबंधन के अधीन है जो साम्राज्यवाद से आज भी समझौता करता रहता है। इस वर्गीय वर्चस्व के कारण ही गांधीजी के न चाहते हुए भी हमारे यहां संसद वजूद में आयी जिसे गांधी जी पतिता समझते थे और व्यर्थ मानते थे । रेल ही नहीं, अन्य तमाम संचार साधन विकसित होने लगे जिसे गांधी जी इस पुस्तिका में बहुत बुरा कह रहे थे, वह सारी सरकारी मशीनरी, न्यायप्रणाली, उपचारसाधन और भौतिकवादी तामझाम भी अस्तित्व में आ गया जिसे वे कोस रहे थे। वह अंग्रेजी भी राज कर रही है जिसे वे भारतीय भाषाओं से अपदस्थ करना चाहते थे । उनके किसान जरूर उसी बदहाली में जी रहे हैं जिसमें वे उन्हें शायद खुश दिखते थे और जिनकी गरीबी को वे अपनी इस पुस्तिका में महिमामंडित कर रहे थे और उन्हें साक्षर करने तक की जरूरत नहीं समझते थे, और शायद इसी विचारधारा से प्रभावित हो कर मुंशी प्रेमचंद ने रंगभूमि जैसे उपन्यास की रचना की थी । गांधी जी ने अपनी पुस्तिका में वकीलों पर और डाक्टरों पर गुस्से का इजहार किया, वे वकील और डाक्टर भी खूब फल फूल रहे हैं । वे जो नहीं चाहते थे वह सब हो रहा है।
इससे यह तो स्पष्ट है कि समाज की गति भौतिक आधार से परिचालित होती है और आधार बदले जाने पर ही नैतिकता और मूल्य और सभ्यता में तब्दीली होती है, यह परिवर्तन व्यक्तिइच्छा से परिचालित नहीं होता। इसी तरह व्यक्ति व्यक्ति को मार देने से भी व्यवस्था नहीं बदलती जैसा आज माओ या मार्क्स व लेनिन के नाम पर नक्सलवादी कर रहे हैं जिसे लेनिन ने “बचकाना मर्ज़” कहा था और माओ ने भी अपने यहां के अतिवामपंथी तत्वों की कठोर आलोचना की थी । इसी तरह की व्यक्तिहिंसा धर्म के नाम पर तरह तरह के आतंकवादी भी करते रहते हैं और भोलेभाले लोगों को मौत का शिकार बनाते रहते हैं । सावरकर लंदन के रेस्त्रां में जो रास्ता सुझा रहे थे, वह व्यक्तिहिंसा का था और गांधी जी ठीक ही अपने विवेक के कारण उत्तेजित हो रहे थे । मगर व्यक्ति व्यक्ति को नैतिकता का उपदेश दे कर या भारतीय सभ्यता में रंग देने से भी व्यवस्था नहीं बदलती है जैसा कि गांधी जी हिंद स्वराज में सुझा रहे थे । हिंद स्वराज के आधार पर हमारा समाज नहीं बन पाया तो उसकी कमजोरी उसके व्यक्तिपरक परिप्रेक्ष्य में है। देश में बहुत से समूह अभी इस उम्मीद में जुटे हैं कि वे गांधी जी का हिंद स्वराज कायम कर लेंगे, लेकिन उनकी परिणति एक एन जी ओ बन जाने में और कुछ फंड हासिल कर लेने में या कुछ भौतिक परिसंपतियां जुटा लेने में होती है, जैसे तमाम साधु संतों और शंकराचार्यों का वैराग्य उन सभी आधुनिक भौतिक संसाधनों पर कब्जा कर लेने में परिणत होता है जो भौतिकवाद की देन हैं जिसके खिलाफ सदियों से भारतीय सभ्यता के भाववादी मीमांसक बोलते लिखते रहे हैं ।
तब क्या गांधी जी के ये विचार हमारे किसी काम के नहीं हैं । मेरा मानना है कि हमें अपने आलोचनात्मक विवेक से वही करना चाहिए जिसे कबीर ने एक ज़माने में कहा था कि “सार सार को गहि रहै थोथा देय उड़ाय”। जो विचार एक आधुनिक समाज की रचना में सहायक हों, उन्हें प्रचारित प्रसारित किया जाये जैसे उपनिवेशवादविरोध, सांप्रदायिक सदभाव और भारतीय सभ्यता के बहुत से वैज्ञानिक मानवतावादी पहलू जैसे अहिंसा, प्रेम, बहुलतावाद आदि, और जो अवैज्ञानिक और असंगत है, उसे उड़ा देने में कोई हर्ज नहीं, और आप न भी उड़ायें, थोथा तो सामाजिक विकास की प्रक्रिया में उड़ ही जाता है, बंदरिया कब तक मरे हुए बच्चे को चिपकाये रख सकती है।
गांधी जी की बीस अध्यायी छोटी सी पुस्तिका, हिंद स्वराज पर अपने आलेख को प्रस्तुत करते हुए एक स्पष्टीकरण देना जरूरी है । गांधी जी के प्रति मेरे मन में उतनी ही श्रद्धा है जितनी आप सब लोगों के मन में है क्योंकि वे देश के करोड़ों लोगों के जननेता थे और आजादी के संघर्ष का नेतृत्व करने वाले राजनीतिक संगठन के अहम हिस्सा थे। मगर इस पुस्तिका के लेखक मोहनदास करमचंद गांधी को मैं चालीस बरस के एक ऐसे भारतीय नौजवान की तरह देखता हूं जो लंदन में मिले बहुत से ऐसे भारतीय नौजवानों की बातें सुनकर उत्तेजित था क्योंकि वे भारत की आज़ादी के लिए अंग्रेज शासकों को हिंसा के बल पर देश से खदेड़ देने का फलसफा प्रचारित कर रहे थे। वहां से लौटते वक्त जहाजयात्रा के दौरान दस दिनों में लिखी यह किताब मेरे लिए एक “पाठ” है और मेरा ध्यान केवल और केवल इसी के पर्सपेक्टिव को वर्गीय नज़रिये से व्याख्यायित करने पर है, गांधी जी के संपूर्ण व्यक्तित्व का या उनकी विचारधारा का विश्लेषण इसे न समझा जाये, ऐसा मेरा अनुरोध है।
बीस अध्यायों में लिखी इस पुस्तिका पर अनेक भाषाओं में उसके प्रकाशन काल से लेकर अब तक इन सौ बरसों में इतना लिखा गया है जिसे अगर एक जगह रखा जाये तो, मेरा अनुमान है, शायद एक लाइब्रेरी भी कम पड़े। यह पुस्तिका इतनी विचारोत्तेजक है कि तोल्सतोय, मिडिलटन मरे से लेकर गोपालकष्ण गोखले और नेहरू तक इसके प्रकाशन काल में और अनगिनत लेखक और बुद्धिजीवी आज के दिन भी इस पर बहस रहे हैं। ऐसे में मेरे विचार भी किसी ने ज़रूर कह दिये होंगे, ऐसा भी हो सकता है, मैं इन्हें मौलिक समझ कर लिख रहा हूं।
दुनिया में सभ्यता के विकास से ही समाज की बेहतरी के लिए दो तरह के नज़रिये पेश किये जाते रहे हैं, एक नज़रिया तो वैयक्तिक या माइक्रोकास्मिक रहा है जिसके मुताबिक़ सुधार व्यक्ति से शुरू हो और समूह तक हो जायेगा, इस तरह समाज बदल जायेगा, दूसरा नज़रिया सामाजिक रहा है जो मैक्रोकास्मिक कहा जा सकता है जिसके मुताबिक़ परिवर्तन सामूहिक होता है और फिर इकाइयों तक फैलता है। प्लेटो अपने रिपब्लिक की रचना में व्यक्ति पर नज़र टिकाता है, व्यक्तिगत नैतिकता पर ज़ोर देता है और भाववादी दर्शन की नींव रखता है जिसमें आइडिया सत्य है, भौतिक जगत मिथ्या है। गांधी जी ने प्लेटो को पढ़ा था, और उनके भाववादी दर्शन का बीजवपन वहीं से हुआ जिसे हमारे यहां के बहुप्रचलित भाववादी दर्शन से खादपानी मिला जिसमें “ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या” की गुहार थी, और तुलसीदास आदि सगुणमार्गी संतों ने उसे जगह जगह घूमघूम कर प्रचारित किया था, “उमा कहहुं मैं अनुभव अपना/सत हरिभजन जगत सब सपना” या “गो गोचर जहं लगि मन जाई/सो सब माया जानेहु भाई” या “यह संसार फूल सेमल को” आदि आदि। आज भी तमाम साधू संत इसी भाववादी दर्शन का राग जगह जगह अलापते नज़र आते हैं, अनेक चैनलों पर यही संदेश पिलाया जा रहा है कि यह भौतिक जगत नाशवान है, हर आदमी धर्म के रास्ते पर चले तो संसार सुखी हो जायेगा। हर आदमी का चरित्र ठीक हो जाये तो पूरा समाज सुधर जायेगा। इस तरह के उपदेश, भारत के अतीत की दुहाई, भारतीय संस्कति के भाववादी पक्ष का अतिवादी प्रचार आज भी हम सवेरे से शाम तक देखते सुनते हैं।
गांधी जी को भारत की इस धार्मिक आत्मा की पहचान थी, इसी का इस्तेमाल विवेकानंद ने किया था, इसी के इस्तेमाल से वे भारत की बहुसंख्यक जनता को लामबंद कर सकते थे, इसका उन्हें अहसास था, इसीलिए वे किसान के जीवन को महिमा मंडित कर रहे थे और उसी को आदर्श बता कर वे आधुनिक औद्योगिक सभ्यता के विनाश का स्वप्न देख रहे थे । भारत के किसान समुदाय में भी भाववादी दर्शन का अच्छा खा़सा असर है, इसलिए उन्हें लामबंद करने में भी वह विचारधारा काम आ सकती थी । सहजानंद सरस्वती ने भी संत बन कर किसानों को लामबंद किया था। भारत में धार्मिकता के विस्तार को समझते हुए गांधी जी ने उसी में से अहिंसा, प्रेम आदि की मानववादी मूल्यव्यवस्था का सार ग्रहण किया था जिससे सांप्रदायिक सदभाव और अवाम की एकता का़यम की जा सकती थी, उन सभी धर्मों में भाववाद यानी भौतिकजगत के प्रति उदासीनता भी समाहित थी, इसलिए गांधी के दर्शन के साथ उसका तालमेल भी बैठता था।
गांधी जी में उपनिवेशवादविरोधी भावना उसी तरह तीव्र थी जिस तरह अनेक राष्ट्रवादियों में थी, मगर वे समझते थे कि हिंसा का रास्ता सही नहीं। लंदन में एक रेस्त्रां में उन्होंने सावरकर का उत्तेजक भाषण सुना था, उसी से उत्तेजित हो कर वहां से लौटते वक्त यह पुस्तिका उन्होंने लिखी, हिंसा के रास्ते की पराजय का इतिहास उन्हें शायद ज्ञात था, 1857 का पहला स्वतंत्रता संग्राम सफल नहीं हो पाया था, 1905 में रूस में भी जनवादी क्रांति या उससे बहुत पहले पेरिस कम्यून आदि की नाकायाबी के बारे में शायद उन्हें मालूम हो। लेकिन ये घटनाएं उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं थीं, उनका सरोकार उपनिवेशवादी सभ्यता से था, जिसका उन्मूलन सदियों से चली आ रही अजर अमर भारतीय सभ्यता को अपनाने से ही हो सकता था, ऐसा वे मानते थे । इसीलिए वे कह रहे थे, अगर अंग्रेज़ हमने भगा भी दिये और उनकी सभ्यता यहां बनी रही, तो “हिंदुस्तान” तब भी “इंग्लिश्तान” ही रहेगा, उनका ज़ोर हर व्यक्ति की चेतना बदल देने पर था। वे तो अंग्रेज़ को भी भारत में बने रहने देने के पक्ष में थे, बशर्ते वह भारतीय सभ्यता अपना ले । उनका ज़ोर तो “आत्म” पर था। बस “आत्म” बदल जाये तो फिर सारी समस्याएं दूर ।
गांधी जी के बनने में उस दौर की बहुत सी रचनाओं का भी योगदान था, पश्चिम में भी भौतिकवादी सभ्यता की तीव्र आलोचना हो रही थी, उसी आलोचना का प्रतिफलन बाद में टी एस एलियट के “वेस्टलैंड” में हुआ और आज़ादी के बाद शुरू के दशकों में हमारे यहां के “आधुनिकतावादी” रचनाकारों ने भी वही परिप्रेक्ष्य अपनाया। ये सभी रचनाकार भी व्यक्तिसुधार का फ़लसफा़ ही पेश कर रहे थे। टी एस एलियट ने भी हमारे यहां के बृहदकारण्य उपनिषद के तीन शब्द, “दत्ता, दयाध्वाम्, दमयत्” उधार ले कर पश्चिमी सभ्यता के “वेस्टलैंड” के उपचार का नुस्खा पेश किया। ज्यादातर “आधुनिकतावादी” आधुनिकता के खिलाफ़ थे और डिमोक्रेसी को “वेश्या” समझते थे, अग्रेज़ी कवि डब्ल्यू बी येट्स और एज़रा पाउंड के विचार इस बारे में देखे जा सकते हैं। ये कवि विश्वयुद्ध की विभीषिका देख चुके थे, जिसमें हिंसा से भौतिक विनाश ही नहीं, नैतिकता और मानवमूल्यों का भी संहार हुआ था। उन्हीं कवियों से प्रेरणा ले कर हमारे यहां के आधुनिकतावादी कवि धर्मवीर भारती ने अंधायु्ग, कनुप्रिया, नरेश मेहता ने संशय की एक रात और कुंवरनारायण ने आत्मजयी जैसी रचनाएं लिखी थीं। गांधी जी को भी अपनी शिक्षादीक्षा, संस्कारों और स्वाध्याय से प्राप्त किये नज़रिये से यही लगता था कि हिंसा मानवसभ्यता के खिलाफ़ एक घिनौनी हरकत है और उसे तरजीह नहीं दी जानी चाहिए। उन्हें शायद यह डर भी था कि अगर हिंसा के खिलाफ़ चेतना पैदा न की गयी तो भारत के सांप्रदायिक तत्व भारतवासियों को आपस में ही लड़वा कर एकता पैदा नहीं होने देंगे। देश में एकता लाने के लिए भी इस नीति की ज़रूरत थी। उनका यह डर सही भी निकला। वही सावरकर जो लंदन के एक रेस्त्रां में भारतमुक्ति के लिए अंग्रेज़ों के खिलाफ़ व्यक्तिहिंसा पर पुरजोश तक़रीर कर रहे थे, भारत में सांप्रदायिक फ़ासीवाद के प्रणेता बन कर देश की एकता तोड़ने वाला ज़हर घोलने लगे जिससे भारत का विभाजन हुआ और जो आज भी भारत के राष्ट्रवाद को खोखला कर रहा है और उसकी प्रगति में बाधा डाल रहा है।
इसलिए मेरे विचार में हिंद स्वराज में व्यक्त विचारों में से दो की अहमियत आज भी है वे हमारे काम के हैं : एक तो साम्राज्यवाद का विरोध और दूसरे भारत की एकता को बरकरार रखने वाली विचारधारा धर्मनिरपेक्षता या सर्वधर्मसमभाव को भारत की सामाजिक काया में बनाये रखने का आग्रह । बाक़ी बातें जो कि सदियों से चली आ रही भाववादी दर्शनधारा का ही दुहराव हैं और हर तरफ़ उपदेशकों और कथावाचकों के मुंह से लाउडस्पीकर पर या चैनलों पर सुनायी देती हैं, हमारे काम की नहीं हैं और वे सामाजिक विकास की प्रक्रिया में खुद ही नाकारा साबित हो रही हैं। जिसे वे भौतिकवादी सभ्यता समझते हैं, और जो उनकी नजर में मशीनी उत्पादन का नतीजा है, दर असल पूंजीवादी स्वामित्व के युग की देन है और जिसके शोषणपरक और उपनिवेशवादी पहलू पर ही गांधी जी की नजर है। मार्क्स ने वैज्ञानिक तरीके से उसके दोनों पहलुओं पर नजर डाली, सामाजिक विकास में पूंजीवाद के सकारात्मक कदमों को उन्होंने नकारा नहीं, और उसके उन पहलुओं की गांधीजी से ज्यादा तीखे तरीके से आलोचना की जो शोषणपरक उत्पादनसंबंधों और वर्गविषमता से पैदा हो रहे थे । मार्क्स इसलिए बीमारी की जड़ भाववादी दर्शन के तहत व्यक्तिनैतिकता या “आत्म” में नहीं, भौतिक परिस्थितियों में तलाशते हैं और उस भौतिक आधार को बदलने की सलाह देते हैं जिस पर नैतिकता और सभ्यता की इमारत खड़ी होती है।
सामाजिक विकास के अपने नियम हैं और भारत में भी वे नियम ही काम करते रहे, और कर रहे हैं, इसलिए हमारे यहां भी गांधी जी के विचार का समाज नहीं बना, जैसे रूस में तोल्सतोय के विचार का समाज नहीं बन पाया। सभी समाजों में परिवर्तन हो रहे हैं, गांधी जी भौतिकवाद को दुश्मन मानते थे, और पश्चिम की नकल पर बने लोकतंत्र को नकारते थे, मगर उनके न चाहते हुए भी भारत को उसी तरह का संविधान और उसी तरह का लोकतंत्र कायम करना पड़ा क्योंकि उसी तरह की पूंजीवादी उत्पादनप्रणाली और उसी तरह के उत्पादनसंबंध गांधी जी के जीवन काल में ही कायम हो चुके थे । यहां भी उसी तरह की उपरिसंरचना कायम हो गयी जैसा कि भौतिक आधार बना और यह आधार भी इसलिए बना क्योंकि भारत में इसी आधार के वस्तुगत हालात थे। हमारे पड़ोसी देश चीन में वस्तुगत हालात दूसरी तरह के थे, इसलिए वहां दूसरे तरह का समाज बना।
वर्गीय नजरिये से हालात को देखें तो सचाई समझ में आ सकती है। चीन में देशज पूंजीवाद बहुत कमजोर था इसलिए उसे दलालपूंजीपति की भूमिका निभानी पड़ रही थी, वह साम्राज्यवाद के खिलाफ़ संघर्ष की अगुआई करने की हालत में नहीं था, इसलिए वहां का नेतत्व सर्वहारावर्ग की विचारधारा के तहत कम्युनिस्ट पार्टी को हासिल हो गया और चीन 1949 में एक जनवादी गणराज्य बन गया जो अपने विकास के लिए सभी तरह की उन्नत उत्पादनप्रणालियों का इस्तेमाल आज कर रहा है (जिनमें पूंजीवादी दुनिया की प्रणालियां शामिल हैं) और अपने समाज के विकास की प्रक्रिया आगे बढ़ा रहा है।
हमारे यहां उन्नीसवीं सदी के आखिर में देशज पूंजीवाद का उदय हुआ और जल्दी ही यहां आधुनिक मशीनों के माध्यम से उत्पादन की नयी प्रणाली शुरू हुई, धीरे धीरे हमारे यहां का पूंजीवाद मजबूत हो गया, इसलिए आजादी की लड़ाई की अगुआई उसी वर्ग के हाथ आयी, भले ही नवोदित पूंजीपतिवर्ग समझौतापरस्ती दिखाता था मगर वह चीनी पूंजीपतियों की तरह दलाल पूंजीपति की भूमिका नहीं अपना रहा था। उसने अपने कलकारखाने और उत्पादन आदि के नये साधन अपनाये और स्वतंत्रता की कामना व राष्ट्रवाद आदि की विचारधारा का सूत्रपात किया। हमारे यहां के नक्सलवादी इस हकीकत को नजरअंदाज करते हैं, वे आज भी इस गलत समझ के शिकार हैं कि भारत दलाल पूंजीवाद के अधीन राज्य है जबकि असलियत साफ है कि हमारी समाज व्यवस्था इजारेदारपूंजीवाद और सामंतवाद के गठबंधन के अधीन है जो साम्राज्यवाद से आज भी समझौता करता रहता है। इस वर्गीय वर्चस्व के कारण ही गांधीजी के न चाहते हुए भी हमारे यहां संसद वजूद में आयी जिसे गांधी जी पतिता समझते थे और व्यर्थ मानते थे । रेल ही नहीं, अन्य तमाम संचार साधन विकसित होने लगे जिसे गांधी जी इस पुस्तिका में बहुत बुरा कह रहे थे, वह सारी सरकारी मशीनरी, न्यायप्रणाली, उपचारसाधन और भौतिकवादी तामझाम भी अस्तित्व में आ गया जिसे वे कोस रहे थे। वह अंग्रेजी भी राज कर रही है जिसे वे भारतीय भाषाओं से अपदस्थ करना चाहते थे । उनके किसान जरूर उसी बदहाली में जी रहे हैं जिसमें वे उन्हें शायद खुश दिखते थे और जिनकी गरीबी को वे अपनी इस पुस्तिका में महिमामंडित कर रहे थे और उन्हें साक्षर करने तक की जरूरत नहीं समझते थे, और शायद इसी विचारधारा से प्रभावित हो कर मुंशी प्रेमचंद ने रंगभूमि जैसे उपन्यास की रचना की थी । गांधी जी ने अपनी पुस्तिका में वकीलों पर और डाक्टरों पर गुस्से का इजहार किया, वे वकील और डाक्टर भी खूब फल फूल रहे हैं । वे जो नहीं चाहते थे वह सब हो रहा है।
इससे यह तो स्पष्ट है कि समाज की गति भौतिक आधार से परिचालित होती है और आधार बदले जाने पर ही नैतिकता और मूल्य और सभ्यता में तब्दीली होती है, यह परिवर्तन व्यक्तिइच्छा से परिचालित नहीं होता। इसी तरह व्यक्ति व्यक्ति को मार देने से भी व्यवस्था नहीं बदलती जैसा आज माओ या मार्क्स व लेनिन के नाम पर नक्सलवादी कर रहे हैं जिसे लेनिन ने “बचकाना मर्ज़” कहा था और माओ ने भी अपने यहां के अतिवामपंथी तत्वों की कठोर आलोचना की थी । इसी तरह की व्यक्तिहिंसा धर्म के नाम पर तरह तरह के आतंकवादी भी करते रहते हैं और भोलेभाले लोगों को मौत का शिकार बनाते रहते हैं । सावरकर लंदन के रेस्त्रां में जो रास्ता सुझा रहे थे, वह व्यक्तिहिंसा का था और गांधी जी ठीक ही अपने विवेक के कारण उत्तेजित हो रहे थे । मगर व्यक्ति व्यक्ति को नैतिकता का उपदेश दे कर या भारतीय सभ्यता में रंग देने से भी व्यवस्था नहीं बदलती है जैसा कि गांधी जी हिंद स्वराज में सुझा रहे थे । हिंद स्वराज के आधार पर हमारा समाज नहीं बन पाया तो उसकी कमजोरी उसके व्यक्तिपरक परिप्रेक्ष्य में है। देश में बहुत से समूह अभी इस उम्मीद में जुटे हैं कि वे गांधी जी का हिंद स्वराज कायम कर लेंगे, लेकिन उनकी परिणति एक एन जी ओ बन जाने में और कुछ फंड हासिल कर लेने में या कुछ भौतिक परिसंपतियां जुटा लेने में होती है, जैसे तमाम साधु संतों और शंकराचार्यों का वैराग्य उन सभी आधुनिक भौतिक संसाधनों पर कब्जा कर लेने में परिणत होता है जो भौतिकवाद की देन हैं जिसके खिलाफ सदियों से भारतीय सभ्यता के भाववादी मीमांसक बोलते लिखते रहे हैं ।
तब क्या गांधी जी के ये विचार हमारे किसी काम के नहीं हैं । मेरा मानना है कि हमें अपने आलोचनात्मक विवेक से वही करना चाहिए जिसे कबीर ने एक ज़माने में कहा था कि “सार सार को गहि रहै थोथा देय उड़ाय”। जो विचार एक आधुनिक समाज की रचना में सहायक हों, उन्हें प्रचारित प्रसारित किया जाये जैसे उपनिवेशवादविरोध, सांप्रदायिक सदभाव और भारतीय सभ्यता के बहुत से वैज्ञानिक मानवतावादी पहलू जैसे अहिंसा, प्रेम, बहुलतावाद आदि, और जो अवैज्ञानिक और असंगत है, उसे उड़ा देने में कोई हर्ज नहीं, और आप न भी उड़ायें, थोथा तो सामाजिक विकास की प्रक्रिया में उड़ ही जाता है, बंदरिया कब तक मरे हुए बच्चे को चिपकाये रख सकती है।
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