नया पथ के जनवरी मार्च 2009 के अंक में मैंने एक लेख इंग्लैंड के एक युवा मार्क्सवादी चिंतक क्रिस्टोफर काडवैल पर दिया है । उसे मैं यहां अपने ब्लाग पर भी दे रहा हूं ।
क्रिस्टोफ़र काडवेल : एक प्रेरक मार्क्सवादी युवा चिंतक
चंचल चौहान
क्रिस्टोफर काडवैल पर चर्चा करते ही 1970 के आसपास का वह माहौल अचानक याद आ जाता है जब मैंने अंग्रेज़ी साहित्य में दिल्ली विश्वविद्यालय से एम ए करने के बाद और एक सांध्य कालेज में प्राध्यापक की नौकरी पाने के बाद अपनी लेखकीय शुरूआत की, उस समय परिवेश में एक बेचैनी थी, युवाओं में व्यवस्था बदलने के लिए विचारधारा की पहचान का सिलसिला चल रहा था, क्रांतिकारी, अतिक्रांतिकारी, संशोधनवादी विचारों के बीच गहमागहमी थी, और इसी सारे वातावरण के बीच मेरा भी विचारधारात्मक नज़रिया विकसित हो रहा था । यह नज़रिया साठोत्तरी बरसों के सर्वनिषेधवाद से अलग एक सकारात्मक नजरिया था, समाज के विकास की मंजिल पहचानकर एक नये समाज की रचना का नजरिया था, लेखक के प्रतिबद्ध होने का नजरिया था, वह उस साठोत्तरी प्रवृत्ति का निषेध कर रहा था जिसमें यह कहा जा रहा था कि ‘जब सब कुछ ऊल ही जलूल है / तो सोचना फिजूल है’ । उस दौर में उभर रहे रचनाकार और आलोचक यह मानते थे कि एक बेहतर समाज व्यवस्था वैज्ञानिक विश्वदृष्टि से लैस राजनीति के आधार पर बनायी जा सकती है। तमाम मतभेदों के बावजूद क्रांति की जरूरत सभी के दिलो दिमाग में काम कर रही थी । शमशेर जी की पंक्ति ‘ समय है साम्यवादी’ या मुक्तिबोध की पंक्ति, ‘तय करो किस ओर हो तुम ’ उस दौर के रचनाकारों को प्रेरित कर रही थी । रचनाकार सर्वहारावर्ग और उसकी विचारधारा के साथ अपनी पक्षधरता घोषित कर रहे थे । उन दिनों जो भी मार्क्सवादी साहित्य जहां भी मिलता था, खरीद कर या लाइब्रेरी से ले कर पढ़ डालने की अजीब पागलपनभरी प्रवृत्ति मेरे भीतर भी थी । उसी दौर में क्रिस्टोफर काडवैल की पुस्तक ‘इल्यूजन एंड रियलिटी’ भी देखी और खरीद ली, इस युवा लेखक के बारे में जानकारी भी मिली और उससे प्रेरणा भी, क्योंकि शब्द और कर्म में एकरूपता का जो आदर्श काडवेल में मिलता है, वह बहुत कम दिखायी देता है । ब्रिटिश समाज में शायद ही कोई ऐसा अदभुत व्यक्तित्व हुआ हो जिसने इतनी कम आयु में एक परिपक्व विद्वान की तरह लेखन किया हो।
क्रिस्टोफर काडवैल का असली नाम क्रिस्टोफर सेंट जान स्प्रिग था । उनका जन्म 20 अक्टूबर 1907 को लंदन के दक्षिण–पश्चिमी इलाके में 53 मोंटसरेट रोड पर स्थित रिहाइश में हुआ था । काडवैल की औपचारिक शिक्षा तो 15 साल की उम्र में ही खत्म हो गयी जब उनके पिता जो कि डेली एक्सप्रेस नामक अखबार के साहित्य संपादक हुआ करते थे अपनी नौकरी खो बैठे और पूरे परिवार को ब्रेडफोर्ड जा कर रहना पड़ा जहां काडवैल ने योर्कशायर आब्ज़र्वर नामक अखबार में एक पत्रकार के रूप में काम करना शुरू किया । इतनी कम उम्र में भी सारी दुनिया का ज्ञान हासिल कर लेने की ललक काडवैल में थी, कविता, उपन्यास, कहानी से ले कर दर्शनशास्त्र और फि़जिक्स या गणित, सभी को भीतर तक जान लेने और आलोचनात्मक नज़र से सभी के सारतत्व को समझ लेने की अदम्य कोशिश उनके व्यक्तित्व में दिखायी देती है । एक आलोचक ने लिखा कि काडवेल लेनिन के उद्धरण को अक्सर दुहराते थे जिसमें कहा गया था कि ‘कम्युनिज्म सिर्फ एक खोखला शब्द भर रह जायेगा, और एक कम्युनिस्ट सिर्फ एक धोखेबाज़, अगर उसने अपनी चेतना में समूचे मानव ज्ञान की विरासत को नहीं सहेजा है ।’ काडवैल एक किताबी मार्क्सवादी नहीं बनना चाहते थे, अगर मार्क्स के सिद्धांत को कोई अपनाता है, तो उसे कर्म में भी एक मार्क्सवादी बनना चाहिए, इसलिए वे ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बन गये और लंदन के मज़दूर इलाके़ की एक ब्रांच के सदस्य हो गये । स्पेन में फासिस्टों के खिलाफ जो अंतर्राष्ट्रीय ब्रिगेड वहां लड़ रही थी, उसमें शरीक होने के लिए दिसंबर 1936 में एक एम्बुलेंस खुद चलाकर ले गये, वहां मशीनगन चलाने की ट्रेनिंग हासिल की, उन्हें फिर इंस्ट्रक्टर बना दिया गया, वहां एक दीवाल पर लिखे जाने वाला अखबार भी संपादित किया । वहीं 12 फरवरी 1937 को युद्ध में काडवैल मारे गये । बताया जाता है कि काडवैल के भाई थ्योडोर ने कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल सेक्रेटरी को उस वक्त छप रही काडवैल की मशहूर किताब ‘इल्यूजन एंड रियैलिटी’ के प्रूफ दिखा कर निवेदन किया कि काडवैल को मोर्चे से वापस बुला लिया जाये, शायद पार्टी की ओर से एक टेलीग्राम भी भेजा गया, मगर तब तक देर हो चुकी थी, और काडवेल के देहांत के बाद ही वह टेलीग्राम स्पेन पहुंच पाया जिसकी वजह से थ्योडोर पार्टी से सख्त नाराज़ रहे । काडवैल की किताबे उनके मरणोपरांत ही प्रकाशित हो पायीं, ‘इल्यूजन एंड रियैलिटी’ मैकमिलन से 1937 में ही छप गयी, जो खुद काडवैल दे कर गये थे ।
मार्क्सवाद के अध्ययन से पहले काडवैल में एक विश्वदृष्टि हासिल करने की बेचैनी थी, अपने एक मित्र को पत्र लिख कर उन्होंने यह स्वीकार किया था कि उनके पास अभी सभी कुछ बिखरा बिखरा सा है और उसे एक व्यवस्थित रूप देने के लिए सर्वसमावेषी विश्वदृष्टि की उन्हें जरूरत है । और जब काडवैल को मार्क्सवाद के रूप में वह विश्वदृष्टि हासिल हुई तो उन्होंने हर वस्तुस्थिति, हर ज्ञान की सारवस्तु को पूरी गहराई से व्याख्यायित करना शुरू किया । उनके देहांत के बाद उनकी जो जो किताबें प्रकाशित हुईं, ब्रिटेन के पाठकों ने उन्हें अचरजभरी उसांस से पढ़ा और वे इतनी कम उम्र के लेखक की चरम विद्वत्ता को सराहे वगैर न रह सके । सभी को यह अफसोस भी हुआ कि क्यों ऐसा विद्वान इंगलैंड ने इस तरह खो दिया जिसके सिद्धांत ज्ञान की दुनिया में अभूतपूर्व इजाफा करते । ‘द क्राइसिस आफ फिजिक्स’ जब 1939 में छपी तो उसके संपादक और भूमिका लेखक ने सही ही लिखा कि ‘काडवैल ने सामाजिक और वैज्ञानिक ज्ञान को एकमेक कर दिया, ऐसी समझ किसी परिपक्व वैज्ञानिक में भी दिखायी नहीं पड़ती । इतनी कम उम्र के लेखक में इस समझ को देख कर बेहद अचरज होता है’ । उस किताब का रिव्यू लिखते हुए एक लेखक ने कहा कि काडवैल ने यह स्थापित किया कि किस तरह फिजिक्स की थ्योरी समाज में विकसित हो रहे आर्थिक आधार से संचालित होती हैं, और काडवैल ने अपने इस सिद्धांत को पूरी विद्वत्ता से स्थापित किया है । हालांकि किताब को संशोधित करने का वक्त लेखक को नहीं मिला फिर भी वह किताब ‘विचारों की एक खान’ है जिससे आगामी पीढि़यां बहुत कुछ हासिल कर सकती हैं।
अंग्रेज़ी के जाने माने आलोचक जान स्ट्राची इस प्रतिभाशाली युवा की रचनाशीलता पर अचंभित थे । उन्होंने लिखा कि काडवैल की दिलचस्पी ज्ञान के हर क्षेत्र में थी, उड्डयनविज्ञान से ले कर कविता, जासूसी कहानियां, क्वान्टम मिकैनिक्स, दर्शनशास्त्र, प्रेम, मनोविश्लेषणशास्त्र तक हर ऐसे क्षेत्र में जिसमें उस युवा को कुछ कहना है । स्ट्राची ने यह भी रेखांकित किया कि काडवैल में शब्द और कर्म की एकता थी । उन्होंने काडवैल के व्यक्तित्व के अन्य अनेक गुणों की प्रशंसा की जो ब्रिटिश मजदूर आंदोलन तक में कम ही पाये जाते थे । स्ट्राची ही नहीं, लेफ्ट रिव्यू नामक पत्रिका के इर्दगिर्द जमा बड़े बुद्धिजीवी भी काडवैल के लेखन को लेकर हैरान थे । इस पत्रिका के उस वक्त के संपादक एजेल रिकवर्ड ने जिन्होंने बाद में काडवैल की एक किताब, फर्दर स्टडीज़ इन डाइंग कल्चर की भूमिका भी लिखी थी, कहा था कि काडवैल में ज्ञान हासिल करने की असीम आकांक्षा थी, डाक्टर फास्टस की तरह की महत्वाकांक्षी काडवैल सारे विज्ञानों में दक्ष होना चाहते थे, रिकवर्ड ने यह भी बताया कि मनोविश्लेषणशास्त्री चेतना पर एक निबंध छपाने से पहले काडवैल ने एक प्रसिद्ध मनोचिकित्सक के पास भेजा जिससे कि उनकी मान्यताएं कहीं उस क्षेत्र में हुए अनुसंधानों से आउट आफ डेट न हो जायें, उस मनोचिकित्सक ने अचंभा भरा जवाब लेखक के पास भेजा और अपनी सहमति जतायी । सच्चाई यह है कि यह उस विश्वदृष्टि का ही कमाल था, जिसके माध्यम से काडवैल हर बौद्धिक समस्या को सामाजिक विकास की प्रक्रिया में देख रहे थे और तर्कसंगत वैज्ञानिक कारण पेश कर रहे थे, वह समस्या चाहे फिजिक्स के संकट की हो, या सौंदर्यशास्त्र या कविता के विकास की या सांस्कृतिक पतन की ।
उन दिनों सांस्कृतिक संकट की बात आम थी, सभी जानते हैं कि टी एस एलियट की कविता द वेस्टलैंड इसी संकट की थीम लेकर रची गयी थी, और एलियट उस संकट से मुक्ति अतीत में और खासकर भारतीय उपनिषदों में दी गयी सीख ‘दा, दमयति, दयाध्वाम्’ में तलाश कर रहे थे । काडवैल ने इस सांस्कृतिक संकट के बारे में अपनी शैली में लिखा, ‘या तो हम सब के बीच शैतान घुस आया है, या फिर उस संकट का कोई कार्यकारण संबंध होगा जिसकी चपेट में अर्थशास्त्र, विज्ञान और कला आदि आ गये हैं ।’ काडवैल ने कहा कि इस संकट की पहचान कार्यकारण संबंध तलाशने से ही संभव है, फिर पूंजीवादी चिंतकों पर कटाक्ष करते हुए कहा कि ‘ये दुनियाभर के फ्रायडों, एडिंगटनों, स्पेंग्लरों, और केंसों ने इस संकट के मूल को क्यों नहीं तलाश किया, दर असल ये खुद इलाज नहीं, खुद रोग हैं ’। काडवैल जानते थे कि इस संकट के विश्लेषण और संश्लेषण का कार्यभार मार्क्सवादियों का है । पूंजीपतिवर्ग ने अभी गौण भ्रांतियों यानी ईश्वर और धर्म, टेलियोलाजी और मेटाफिजिक्स की भ्रांतियों से ही खुद को मुक्त किया है, उसकी अपनी आधारभूत भ्रांतियों की जकड़बंदी जस की तस है ।’
अपने लेखन में काडवेल ने पूंजीपतिवर्ग की चेतना का ऐसा सूक्ष्म विश्लेषण किया है जो अचंभित कर देता है । उन्होंने पूंजीवादी ‘स्वतंत्रता’ की अवधारणा की झोल को सामने ला दिया है, पूरे तार्किक ढंग से यह बताया है कि शोषक–शासकवर्ग की स्वतंत्रता शोषितवर्ग की पराधीनता पर आधारित है । पूंजीपतिवर्ग की स्वतंत्रता की अवधारणा के विकास की प्रक्रिया से काडवैल ने शेक्सपीयर के नाटकों की चेतना को, गेलीलियो और न्यूटन के सिद्धांतों को, दे कार्त के दर्शनशास्त्र तक को जोड़कर देखा । यांत्रिक भौतिकवाद की आलोचना करते हुए उन्होंने उससे जुड़े वैज्ञानिकों और चिंतकों की भी आलोचना अपने परिप्रेक्ष्य से की । काडवैल के मुताबिक पूंजीपतिवर्ग ने एक समय तक भौतिक पदार्थ की सत्ता को वरीयता दी और उसे मानव मन या भाव से अलग काट कर देखा, सब कुछ ‘पदार्थ’ ही था, निजगत या भाव कुछ नहीं था । यह सबजैक्ट और आब्जैक्ट के बीच खाई का दौर था जिसमें पदार्थ ही मुख्य था । फिर एक दौर आया जिसमें पदार्थ की सत्ता गायब हो गयी और मनोचेतना या सबजैक्ट या भाव ही प्रमुख हो गया । इस दौर ने भाववादी दार्शनिक पैदा किये, बर्कले, ह्यूम, कांट, और अंतत: हेगेल । मगर सब्जैक्ट और आब्जैक्ट के बीच द्वैत बना ही रहा । इस नये भाववादी दौर का चरमोत्कर्ष हेगेल में हुआ जिन्होंने विचार को या भाव को मानवमन से भी स्वतंत्र कर दिया । इस तरह पाश्चात्य पूंजीवादी दर्शनों का आलोचनात्मक विवेक से विश्लेषण करते हुए काडवैल पूंजीवादी दुनिया में दार्शनिक चिंतन का पतन देखते हैं क्योंकि वे दर्शन अमल में नहीं लाये जा सकते । यही संकट विज्ञान का भी है, विज्ञान के ऐसे सिद्धांत जो अमल में खरे नहीं उतरते, शब्दजाल से ज्यादा और कुछ नहीं हैं। काडवैल के दार्शनिक चिंतन से प्रभावित हो कर एक अंग्रेज़ विदुषी हेलेना शीहान ने एक पूरी पुस्तक मार्क्सिज्म एंड द फिलासफी आफ साइंस : ए क्रिटिकल हिस्टरी लिखी है, इसमें एक पूरा अध्याय साइंस की फिलासफी के बारे में काडवैल पर है, उनके साहित्यिक विचारों पर दूसरे विद्वानों ने लिखा है । हेलेना लिखती हैं कि ‘काडवैल की कोई भी किताब हो, चाहे वह साइंस के बारे में हो या कला के बारे में, वह किताब दोनों विषयों पर बात करती है, उनकी साइंस की फिलासफी सौंदर्यशास्त्र में मौजूद है और सौंदर्यशास्त्र की साइंस में । उनकी विश्वदृष्टि धागे की तरह मौजूद है ।’ उन्होंने फिलासफी के प्रति काडवेल की लिखी एक कविता का भी हवाला दिया है । काडवैल ने अपने समय तक का लगभग सारा उपलब्ध मार्क्सवादी साहित्य पढ़ रखा था, और एक आलोचनात्मक दृष्टि अर्जित की थी । मगर इस दृष्टि में उस समय के साम्राज्यवाद के संकट के दौर की झलक थी, इसलिए उन्हें पूंजीवाद का पतन और भावी विनाश अवश्यंभावी लगता था । यही उनके उत्साह का आधार भी था । यह चर्चा दुनियाभर के कम्युनिस्टों में थी कि पूंजीवाद साम्राज्यवाद की चरमस्थिति में पहुंच गया है और अब उसके पतन और विनाश का सिलसिला शुरू होने वाला है । हालांकि इस अधूरे सच को एक दस्तावेज़ के रूप में दुनियाभर की कम्युनिस्ट पार्टियों ने 1960 में अपनाया था, मगर यह समझ बहुत पहले से काम कर रही थी । काडवैल की किताबों के शीर्षक ही बूर्जुआ संस्कृति के मरण या संकट को संकेतित करते हैं । यह समझ तब तक दुनिया भर के कम्युनिस्टों में मौजूद रही जब तक सोवियत संघ का विघटन नहीं हुआ था । सोवियत संघ के विघटन के बाद ही इस पुरानी समझ पर प्रश्नचिह्न लगा और यह समझ बनी कि अभी पूंजीवाद में उत्पादक शक्तियों को विकसित करने की क्षमता खत्म नहीं हुई है, इसलिए वह टेक्नोलाजी को क्रांतिकारी तौर पर विकसित करता हुआ आगे बढ़ रहा है जैसा कि मार्क्स ने कम्युनिस्ट मेनीफेस्टो में पूंजीवाद की विशेषताओं के बारे में लिखते हुए बताया भी था । यह तो सही है कि पूंजीवाद विश्व में बार बार संकट के दौर लायेगा, लेकिन उसका खात्मा या पतन तभी संभव होगा जब उसमें उत्पादक शक्तियों को आगे विकसित करने की क्षमता नहीं रहेगी, उसका मरण तभी संभव होगा । पूंजीवाद की विकास की क्षमता का इस्तेमाल अब इसी वजह से वे देश भी कर रहे हैं, जहां राजसत्ता कम्युनिस्ट पार्टियों के हाथ में है । जहां पूंजीवाद की कड़ी सबसे कमज़ोर है, वहां सर्वहारावर्ग अपने को विकसित करते हुए राजनीतिक सत्ता हासिल करने में कामयाब हो सकता है, मगर उसे भी अपने समाज को विकास के पूंजीवादी चरण के बीच ले जा कर आगे बढ़ाने की जरूरत पड़ रही है, जैसे कि नेपाल में सीधे समाजवाद में छलांग लगाने की परिस्थितियां नहीं हैं, वहां उत्पादक शक्तियों के विकास के लिए पूंजीवादी मंजि़ल से हो कर समाज को गुजरना ही पड़ेगा । चीन और वियतनाम तक अपने अनुभवों से सीखकर यही रास्ता अपना रहे हैं । काडवैल की समझ ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी की ही तरह ‘शुद्धतावादी’ थी जिसकी आलोचना स्वयं लेनिन को करनी पड़ी थी, दर असल, काडवैल जैसा युवा लेखक अपने समय की सीमाओं को कैसे लांघ सकता था, उनकी चेतना में पूंजीवाद के विनाश का, उसकी मृत्यु का स्वप्न पूरी ईमानदारी से झलक रहा था । उसके पतन को वे समाज के हर क्षेत्र में परिलक्षित कर रहे थे । अंग्रेजी कविता की व्याख्या करने वाली उनकी पुस्तक इल्यूजन एंड रियैलिटी में भी यही परिप्रेक्ष्य देखा जा सकता है । काडवैल अपनी अंग्रेज़ी कविता की समीक्षा करते वक्त कवियों के बारे में काफ़ी सख्त हो गये हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि वे सारे के सारे बूर्जुआ प्रवृत्तियों के शिकार हैं, वे उनमें से बहुत कम को ही बख्शते हैं, क्योंकि उनके लिए वे सारे के सारे पूंजीपतिवर्ग की संतानें हैं । रचनाकारों के साथ इस तरह का बर्ताव हर देश में मार्क्सवादी आलोचना के प्रारंभिक दौर में होता रहा है । कवियों की आधी अधूरी या विकृत विश्वदृष्टि की आलोचना के पीछे काडवैल की सर्वहारावर्ग के प्रति वह ईमानदार प्रतिबद्धता काम कर रही थी जिसके चलते उन्होंने अपने प्राण भी निछावर कर दिये । तमाम दिवंगत कवियों से उनकी कोई व्यक्तिगत दुश्मनी तो थी नहीं । पूंजीपतिवर्ग के प्रति घनघोर नफ़रत के कारण जहां भी उन्हें किसी कवि में पूंजीपतिवर्ग की विकृति दिखायी पड़ती थी, वे उसकी आलोचना किये बग़ैर नहीं रह सकते थे । इंगलैंड में मार्क्सवादी आलोचना का यह बिल्कुल शुरूआती दौर था, और ये ग़लतियां होना स्वाभाविक ही था । उनकी आलोचना से न तो शेक्सपीयर बच सके और न मिल्टन । रोमांटिक कवियों के पीछे काम कर रही क्रांति की भावना का तो उन्होंने सही आकलन किया मगर उन्हें भी पूंजीपतिवर्ग के खाते में ही खतिया दिया । इस तरह के अतिवाद हमारी हिंदी आलोचना में तो आज भी होते रहते हैं, लेकिन उस युवा अंग्रेज़ चिंतक के लेखन की गहराई इस लिए अचंभित करती है, कि अंग्रेज़ी कविता की आलोचना का ऐसा प्रयास इंग्लैंड में पहली बार हो रहा था। इस किताब में ग्रीक कविता या नाटक से ले कर अपने समकालीन काव्यसृजन (स्पेंडर, सी डे लिविस आदि तक) की आलोचना तक का विराट् फलक लिया गया है, मगर उनकी तीखी नज़र से ऐसे कवि भी नहीं बच पाये हैं जो भ्रांति के शिकार हैं, भले ही उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले ली हो, जो अपने जीवन और अपने कलाकर्म में एक फांक पैदा किये हों ।
आज के समय को देखते हुए काडवैल की आलोचना पद्धति संकीर्णतावाद की कमज़ोरी से जकड़ी हुई लग सकती है, मगर उसके पीछे छिपे पवित्र मंतव्य पर सवालिया निशान लगाना मुमकिन नहीं । सर्वहारावर्ग के प्रति अपनी ईमानदार प्रतिबद्धता के कारण वे सारे मध्यवर्ग को, मुक्तिकामी हर वर्ग या व्यक्ति को क्रांति के पक्ष में पूरी तरह खड़े होने का आह्वान करते हैं, क्योंकि इतिहास ने अपनी विकास यात्राा में समाज को विकास की अगली मंजि़ल तक ले जाने की जि़म्मेदारी सर्वहारावर्ग पर डाली है, इसलिए काडवैल को लगता था कि सर्वहारावर्ग की विचारधारा यानी मार्क्सवाद–लेनिनवाद और उसकी राजनीति यानी उसकी पार्टी के साथ पूरी तरह अपनी प्रतिबद्धता स्थापित किये बग़ैर कोई कवि या कलाकार अपनी सामाजिक जि़म्मेदारी कैसे निभा सकता है । इस तरह की थोड़ी ज्यादतियां युवा काडवैल ने कर डाली हैं, फ़ासीवाद के खि़लाफ़ जंग में यदि वे शहीद न हुए होते तो फ़ासीवादविरोधी व्यापक मोर्चा की कार्यनीति के अनुभव से अपना नया और ज्यादा तर्कसंगत और उदार परिप्रेक्ष्य विकसित करते, इसमें कोई शक की गुंजाइश नहीं । मगर इन सीमाओं से काडवैल का विश्वसर्वहारावर्ग को दिया गया अवदान, कम करके नहीं आंका जा सकता, वह युवा हम सबका एक प्रेरणास्रोत था और बना रहेगा ।
यह लेख बहुत बड़ा है और इसे बाद में पढ़ूंगा। मगर इंस बहाने एक बात उठाना चाहता हंू कि कम्युनिज़्म हमारे देश में सही मायनों में आया होता तो भारतीय संदभों में प्रचलित शब्द वर्णभेद, वर्णशत्रु (हांलांकि शत्रु शब्द ठीक नहीं लगता, इससे हिंसा की बू आती है) आदि होने चाहिए थे न कि वर्गशत्रु या वर्गभेद। आपका क्या मानना है ?
जवाब देंहटाएंआपने पुराना ब्लाग मिटा दिया, लेकिन थोडी कोशिश के बाद आपके इस ब्लाग को ढूंढ ही लिया, काड्वैल के बारे में लेख अच्छा है, थोडा बडा जरूर है।
जवाब देंहटाएंलेकिन संजय जी ने यहां जो सवाल उठाया, उस पर मुझे संशय है, क्या किसी भी समाज मे सिर्फ दो वर्गों के बीच के गैरबराबरी हि, बाकि की समस्याओं जैसे रंगभेद, जातभेद इत्यादि के लिये जिम्मेदार नहीं हैं, तो ऐसे में तो वर्गसंघर्ष की प्रासंगिकता और भी ज्यादा नहीं हो जाती...
ब्लागजगत के रचनाकारों ने मेरा ब्लाग देखा, इसके लिए धन्यवाद । संजय ने जो सवाल उठाया है, उसके बारे में तो यही कह सकता हूं कि दुनिया मे सभी जगह समाज के विकास के नियमों को वैज्ञानिक नजरिये से देखें तो साफ दिखायी देगा कि वर्गसंघर्ष एक यथार्थ है, पडेास में नेपाल में जनता ने जो किया है, वह वर्गसंघर्ष से ही संभव हुआ है
जवाब देंहटाएंचंचल चौहान
चंचल जी
जवाब देंहटाएंपत्रिका मिलते ही मुझे लगा था कि बरसों बाद किसी संगठन की पत्रिका पढ रहा हूं। मेल भी किया था तुरंत
अब नेट पर इसे पा कर और अच्छा लगा।
आप भी ब्लाग जगत में, मुबारक हो।
जवाब देंहटाएंaapka blog hai ye dekhkar khusi huyi. aap post karta ka nam chanchal chauhan ka blog ki jagah sirf chanchal chauhan likhate to behtar hota. har paira ke bad double space denge to lamba lekh pathniy ho jayega.
जवाब देंहटाएंlekh ka suruwati parichay bhi gair jaruri hai. har lekh ke niche thode me likha ja sakta hai ki ye lekh fala jagah chhapa hai. aue heading "kadvel ka lekh" hai yaa "kadvel-ek yuwa marxvadi chintak"
yadi ye blog aap khud chalate hai to aap dusare blog ko dekh kar layout ko improve kar le.
comment se word verification hata de to comment karne walo ko sahuliyat hogi
shubhkamnavo sahit
aap ne jo likha hai us par bad me itminan se likhunga