आधारशिला पत्रिका के संपादक ने मेरा यह लेख प्रकाशित करने के लिए मांगा तो मैंने सोचा कि क्यों न यह लेख मैं अपने ब्लाग पर भी डाल दूं । इसी लिए अब मैं यह लेख यहां दे रहा हूं :
त्रिलोचन की कविताई
‘धरती’ से लेकर ‘उस जनपद का कवि हूं’ तक के काव्य संकलनों की यात्रा में त्रिलोचन की कविताई का विकास तलाशना बहुत दुरूह और श्रमसाध्य काम है । त्रिलोचन की कविता का पहला दौर वह था जब भारत अपनी आज़ादी की जद्दोजहद में लगा था । ‘स्वतंत्रता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का नारा जहां मुक्तिकामी ताक़तों को संघर्षवती चेतना से लैस करता है वहीं कलाकारों और रचनाकारों में रूमानियत भी लाता है । विश्वसाहित्य इस बात का प्रमाण है कि मानव इतिहास में जब एक युग से दूसरे युग में प्रवेश करने के मुक्तिसंघर्ष छिड़े हैं साहित्य में मुक्त कल्पना का खेल देखने को मिला है । फ्रांस की क्रांति ने समूचे यूरोप में नयी साहित्यधारा को जन्म दिया और रूमानियत के रूप में कल्पना की मुक्ति व्यक्त हुई । इंग्लैंड में नवआभिजाल्यवादी चौखटे और बंधी बंधायी काव्यशैलियां टूटीं और रोमांटिक साहित्य का प्रादुर्भाव हुआ । ‘समानता, बंधुत्व और स्वतंत्रता’ का नारा साहित्य में भी प्रतिफलित हुआ । अठाहरवीं सदी में फ्रांसीसी क्रांति से पहले की कविता शहर की चारदीवारी में घिरी रही, शहरी विषय ही कविता के लिए उपयुक्त विषय माने गये, एक खास छंद ही उपयुक्त छंद माना गया । मगर फ्रांस की क्रांति के बाद कविता आम जन की बात करने लगी, उसने देहाती जीवन और भूखे नंगे लोगों को भी कविता का विषय बनाया क्योंकि उनकी शक्ति का एहसास समूचे यूरोप को हो गया था । इस एहसास ने कवियों में कल्पना की उड़ान को जगाया । यही वजह है कि रूमानी कविता में आकाशचारी बिंबों की भरमार मिलेगी । बादल, चिडि़या, इंद्रधनुष, चांद, सितारे, हवा, आकाश आदि से रूमानी कविता भरी पड़ी है । आज़ादी के दौर की हमारी कविता में कल्पना की उन्मुक्त उड़ान सिर्फ छायावादी कवियों में ही हो, ऐसा नहीं है । छायावादी कविता के अगले चरण में यानी प्रगतिवादी कविता में भी हमें इस रूमानियत के दर्शन लगातार होते हैं । साम्राज्यवादविरोधी रचनाशीलता जितनी अधिक अपनी धरती से जुड़ी थी, उतनी अधिक अपने आकाश से भी । त्रिलोचन की कविता में भी हमें वह धरती और आकाश देखने को मिलता है जिसकी पहचान और जिसका एहसास भारत के स्वाधीनता आंदोलन ने कराया था ।
आज़ादी के बाद के दौर की कविताओं में हमें एक तब्दीली दिखायी देती है और वह तब्दीली है कथ्य में ठंडापन और शिल्प का अतिरिक्त आग्रह । आज़ादी के बाद कवि का काम सिफ़र् कलात्मक शब्दरचना भर रह गया, राजनीतिक स्तर पर उसे नव निर्माण का और योजनाबद्ध विकास का आश्वासन मिला, इसलिए रचनाकार का काम किसी तरह की नुक्ताचीनी का नहीं था, उसका सरोकार भी राजनीति से नहीं था, वह काम तो नेहरू के लिए छोड़ दिया गया था, कलाकार तो सिर्फ रूप का पुजारी था और इसलिए उसके लिए काव्य शब्द था जो हिमाविद्ध था या ठंडा लोहा । उसकी वह ऊर्जा और उत्ताप गा़यब था जो स्वाधीनता संग्राम ने उसे दिया था । इसके लिए वह दोषी नहीं था, सामाजिक हालात ही उसे इस ओर प्रेरित कर रहे थे। त्रिलोचन की कविता में भी शब्द और शिल्प का यह आग्रह हमें उनकी छठे दशक की रचनाओं में बराबर मिलता है । मुक्तिबोध ने अपनी उस दौर की एक कविता में ठीक ही कहा था :
कविता तब मोतिया सीप थी
धरती के उस एक अश्रु के लिए
कि जो नभ की कमज़ोरी देख गला था ।
लेकिन नभ तो
आसमान था–––
स्वयं उतर वह
झरनों, नदियों, झीलों के नीले प्रवाह के रूपों में
धरती के उर पर पिघल चला था ।
(1/315–316, मुक्तिबोध रचनावली )
त्रिलोचन के ‘उस जनपद का कवि हूं’ संकलन में उनकी दूसरे दौर की कविताएं हैं जिनमें छठे दशक की हमारी मन:स्थिति और शब्दशिल्प के प्रति अतिरिक्त आग्रह मिलता है । त्रिलोचन के काव्यकर्म में यही वह दौर है जिसमें सानेट का प्राचुर्य है । नये शिल्प की तलाश जो कि ज्यादातर ‘सानेट सानेट के लिए’ की सीमा तक पहुंच गयी है, रचनाकारों के आसपास की सामाजिक चेतना के कारण बदली हुई मनोदशा को ही व्यक्त करती है क्योंकि उसे लगता है कि आज़ादी हासिल कर लेने के बाद ‘बसंत आ गया’ :
प्राणाधिके, बसंत आ गया । गूंज रहा था
प्राणों में जो नव जीवन स्वर इन नयनों में
आज रूप बन कर समा गया ।...
छठे दशक में रूप की तलाश सिर्फ अज्ञेय या भारती ही नहीं कर रहे थे, अकेलेपन और सूनेपन का राग आधुनिकताबोध के कवियों की चेतना का ही हिस्सा नहीं था, वह उस मोहप्लवित समाज का स्वर था जो आश्वासनों के सहारे सुनहरे कल का सपना ले रहा था । कवि कलाकार भी अपने आसपास के समाज से कट कर एकाकी होने में ही, असंग होने में और अकेले में साधना में लग जाने में ही अपना अस्तित्व तलाश कर रहा था । त्रिलोचन की संवेदना ने भी यह स्वीकार किया कि ‘जीवन का क्रम अकस्मात् कुछ और हो गया, अब तक जो कुछ पाया उसका मूल्य खो गया ।’ इसीलिए त्रिलोचन के वाचक को ‘पथ सूना’ लगता है :
पीछे मुड़कर देख रहा है, पथ सूना है
जिस पर चलता रहा और चलता जाऊंगा
आगे भी । मुझको उस सीमा को छूना है
जहां असीम मुसकराता है । मैं गाऊंगा
जीवन के एकांत क्षणों में ।...
एक अन्य सानेट का वाचक कहता है कि ‘न जाने कैसा कुछ सूनापन प्राणों में भर आया है ।’ इस तरह एक और सानेट में वाचक बताता है कि ‘सूनापन पाया, अपने आस–पास ’ इस सूनेपन को भरने के लिए कवि प्रकृति की ओर मुड़ता है और प्रकृति से फिर मानव पीड़ाओं की ओर । यह प्रक्रिया क़रीब–क़रीब ऐसी ही बन पड़ी है जैसी हमें अंग्रेज़ी कवि वड्र्सवर्थ में दिखायी पड़ती है । हालांकि त्रिलोचन ने अपने सानेटों में शेक्सपीयर का फ़ार्म भी अपनाया है, और वड्र्सवर्थ का भी, मगर संवेदना का उतार–चढ़ाव मूलत: वड्र्सवर्थ जैसा है । त्रिलोचन भी जब सूनापन झेलते हैं तो वड्र्सवर्थ की तरह प्रकृति की और मुड़ते हैं । छठे दशक में लिखे गये उनके सानेटों में हमें यही प्रवृति दिखायी देती है । प्रकृति का हर रंग–रूप त्रिलोचन को मोहता है, वह प्रकृति बसंत की हो, शरद की हो, या वर्षा की, त्रिलोचन के सानेटों में वह खूब रमती है :
फूलों की चांदनी नीम में जो आयी है
खींच रही है सुरभि–डोर से मेरे मन को
बरबस अपनी ओर, भला कैसे इस जन को
कृपापात्र कर दिया सुछवि ने जो छायी है
टहनी टहनी पर...
इस दौर की कविताओं में प्रकृति की ओर पलायन नहीं है, उसका आब्ज़र्वेशन है । इस ममता से प्रकृति को निहारना त्रिलोचन के वाचक को सुख देता है । आज़ादी के बाद जिस तरह के समाज की कल्पना, समता पर आधारित जिस व्यवस्था की कल्पना कविजनों ने की थी वह तो दिखायी दे नहीं रही थी, आश्वासनों का आसव ज़रूर पिलाया गया था जिसके नशे में प्रकृति ही––बंधनहीन प्रकृति ही––सुकून दे सकती थी । इसलिए यह आकस्मिक नहीं है कि कवि या तो ‘शिरीष का फूल’ देखता रहता है या ‘बाढ़ चांदनी की आयी’ देखता है या फिर देखता है कि–––
संध्या ने मेघों के कितने चित्र बनाये––
हाथी, घोड़े, पेड़, आदमी, जंगल, क्या क्या
नहीं रच दिया और कभी रंगों से क्रीड़ा
की, आकृतियां नहीं बनायीं ।
त्रिलोचन के एक अन्य सानेट–संकलन ‘शब्द’ में संवेदना का अगला पड़ाव नज़र आता है । ये सानेट 1962 के प्रारंभिक महीनों का उत्पादन हैं । ज़ाहिर है कि इस दौर तक पहुंचते पहुंचते कवि का अनुभवसंसार और अधिक व्यापक हुआ है । मोहभंग की प्रक्रिया ने त्रिलोचन पर भी असर डाला, युवा कवियों में इस मोहभंग ने निषेधवादी रूप अखितयार किया था, त्रिलोचन ने इसे अपने तरीके़ से बयान किया :
उन लहरों पर हूं जिनके तल में भाषाएं
कितनी बैठ चुकी हैं, कितने सुंदर सपने
बिला चुके हैं पानी बन कर, सत्य कभी का
असत् हो चुका है; अब नयी–नयी आशाएं
दिग्दिगंत रूप संवार रही हैं, भाव अभी का ।
हालांकि इन सानेटों में भी कवि बार–बार प्रकृति की ओर मुड़ता है, उसे वहां अब भी सुकून मिलता है, मगर साथ ही इस व्यवस्था के चरित्र की पहचान भी होती दिखायी देती है और कवि इसकी जगह बेहतर व्यवस्था का सपना भी संजोने लगता है :
यहां बाप दादों को नहीं हमें रहना है ।
हमको अपनी आंखों देख–रेख करनी है
अपनी अपनों की अब तो इतिहास पुराना
संग्रहालयों की शोभा है–– सच कहना है
इस जीवन का, घर की नयी नींव धरनी है,
धारण करना है, नवीन मानव का बाना ।
नवीन मानव का सपना संजोए त्रिलोचन का वाचक कभी आशा में और कभी निराशा में अपनी झीनी–झीनी कविता की चादर बुनता है और ‘शब्द’ को कुछ इस तरह रोपता है जिनमें केदारनाथ अग्रवाल की कविता की तरह फूल नहीं रंग बोलते हैं (शब्द–संग्रह उन्हें ही समर्पित भी है) । त्रिलोचन के इन रंगों में ही कहीं न कहीं आशावाद भी फूटता है :
जीवन के जयगान पराजय में भी दूने
होंगे, मन का खेल आप ही उतर जायगा,
दिवस रहे या रात रहे यात्री को इससे
क्या––सारा आकाश पंख से अपने छूने
विहग अरुद्ध उड़ान भरेंगे, मनुज पायगा
पद पद पर संदेश नया मिलकर जिस तिस से ।
‘ताप के ताए हुए दिन’ की कविताओं में त्रिलोचन का रचना व्यक्तित्व अपनी समग्रता में पेश होता है । इस संग्रह में उनकी छोटी–छोटी कविताएं, सानेट और कुछ लंबी कविताएं भी हैं । छोटी कविताएं ज्यादातर चित्रात्मक हैं, उन्हें अर्थों में बांधना न तो संभव है और न ही उसकी ज़रूरत है । इन चित्रों में कहीं ‘सरसों के फूल’ हैं तो कहीं ‘जलरुद्ध दूब’ है, कहीं ‘केले के पत्ते’ हैं तो कहीं ‘काई’ है और कहीं मानव ‘संबंधों के हवामहल’ भी हैं । केदारनाथ सिंह के शब्दों में ‘त्रिलोचन के शिल्प की एक खास बात यह है कि वे किसी भी वस्तु का प्रतीकवत् प्रयोग नहीं करते । अपनी कविता में, वे अपनी सारी काव्यात्मक जि़म्मेदारी के साथ उसे ‘वस्तु’ ही बने रहने देते हैं ।’ कहने का तात्पर्य यह है कि त्रिलोचन यथार्थ को प्राय: ‘प्रकृतिवादी ढंग’ से और अपने पूरे भोलेपन से पेश करने के अभ्यस्त हैं । जिस तरह निराला ने परवर्ती दौर में यथार्थ के भीतर छिपे व्यंग को वाणी दी थी, उसी परंपरा में त्रिलोचन की कुछ कविताएं भी रखी जा सकती हैं । ‘ताप के ताए हुए दिन’ में शामिल सानेट भी त्रिलोचन के इस सामाजिक व्यंग की झलक दे देते हैं । ‘चुनाव के दिन’ या ‘गधे की याद’ में लिखे गये सानेट इस संदर्भ में देखे जा सकते हैं ।
त्रिलोचन की जो लंबी कविताएं संवेदना संकलन से जोड़ती हैं उनकी ऊर्जा उसने साम्राज्यवाद के खिलाफ लड़ी गयी स्वाधीनता की लड़ाई से पायी थी । निराला की तरह त्रिलोचन ने भी ‘मैं शैली अपनायी’ है और वड्र्सवर्थ की तरह आत्मचरितात्मक लंबी कविताएं लिखी हैं जिनमें ‘नगई मेहरा’ विशेष महत्व की कविता है । वड्र्सवर्थ ने जिस तरह अपनी ‘माइकेल’ शीर्षक कविता में इंग्लैंड के देहाती जीवन और उसके बदलते परिवेश को चित्रित किया है, उसी तरह त्रिलोचन ने ‘नगई मेहरा’ में भारत के देहात का एक अद्भुत चित्र पेश किया है । गांव की जिंदगी में व्याप्त विषमता, रूढि़यां और पिछाड़पन और उसके सकारत्मक पहलू भी इस कविता में चित्रित हुए हैं। कवि ने अपनी तरफ़ से यथार्थ में न तो कुछ अतिशय जोड़ने की कोेशिश की है और न ही ‘अहा ग्राम्य जीवन भी क्या है’ की भावुकता का शिकार होकर उसने वहां की जि़ंदगी को आदर्शीकृत ही किया है । नगई मेहरा के चरित्र में जो अंतर्विरोध है (यानी रामचरित मानस से प्रेम और पंच परमेश्वर में आस्था एक ओर, और सास को बिठा लेना दूसरी ओर) वह भारत के देहात के भीतर परंपरा भंजन की दुहरी प्रवृतियों का आधार बना है जिस पर स्थिर होकर वह अपने वक्त को अतिक्रमित कर गया ।
त्रिलोचन की कविता का अपना व्यक्तिव है जो किसी गहरे दर्शन के सूत्र की मदद से यथार्थ को पहचानने और उसमें अर्थ भरने की कोशिश नहीं करता । वह वस्तुवादी चौखटे में चित्र खींचने और, विष्णुचंद्र शर्मा के शब्दों में, ‘शब्दों का स्थापत्य पेश करने में माहिर रचना–व्यक्तित्व’ है । यही वजह है कि त्रिलोचन की कविता में कहीं कोई तनाव नहीं, मन को झकझोर देने वाला कोई झंझावात नहीं । शब्दों को सजा कर और उन्हें तराशकर पेश करने की आदत कई बार उन्हें प्रकृतवादी कलाकार बना देती है । आज कलाकार के लिए यथार्थ को ज्यों को त्यों पेश कर देना काफ़ी नहीं है, उसमें उन अथोंर् को भरने की कोशिश भी होनी चाहिए जो हमें गहरे तक छूते हैं । मौजूदा जनवादी कवियों को त्रिलोचन की यथार्थ को चित्र में बांधने की कला मदद कर सकती है किंतु ये चित्र तक तब अधूरे रहेंगे जब तक इनमें सामाजिक यथार्थ के अर्थ अनुषंग प्रस्तुत नहीं किये जायेंगे । शायद आज की पीढ़ी इस मामले में काफ़ी सजग है, मगर इतने भर से संतोष कर लेना काफ़ी नहीं है । अपनी परंपरा से सकारात्मक तमाम तत्वों को आत्मसात करके हिंदी कविता को स्वस्थ जनवादी दिशा में ले जाने की जि़म्मेदारी आज की पीढ़ी पर है । इस जि़म्मेदारी को किसी तरह के फ़ामूर्लों से नहीं निभाया जा सकता है । इसे पूरा करने के लिए सामूहिक सोच और गहन आत्मसंघर्ष करने की हमें ज़रूरत है । त्रिलोचन शास्त्री इसी अर्थ में हमारे कवियों के कवि उसी तरह रहेगे जैसे मुक्तिबोध और शमशेर ।