युवा तमिल नेता और डीएमके की सरकार में मंत्री उदयनिधि स्टालिन ने प्रगतिशील लेखकों की एक सभा में ‘सनातन धर्म का अंत’ करने का आह्वान किया तो आर एस एस-बीजेपी ने और कट्टर हिदू रूढ़िवादियों ने उस आह्वान का वहशी तरीक़े से विरोध किया। अयोध्या के एक तथाकथित साधु या मठाधीश ने उदयनिधि का सिर काटने वाले को दस करोड़ रुपये का इनाम देने की घोषणा कर दी। एक वकील ने सुप्रीम कोर्ट तक जाकर उदयनिधि के ख़िलाफ़ एफ़ आइ आर दर्ज कराने की याचिका डाल दी। दो अन्य एफ़ आइ आर दर्ज कराये जाने की भी ख़बर है। यह असहिष्णुता की हद है। दक्षिण का द्रविड आंदोलन अपने सारतत्व में बहुत पहले से ब्राह्मणवादी विचारधारा के विरोध में रहा है और तथाकथित सनातन धर्म के कट्टरपंथी तत्व ब्राह्मणवाद के पोषक और अंधभक्त होने की वजह से ऐसे तमाम लोगों के प्रति दुश्मनीभरा रवैया अख़्तियार करते रहे हैं। इस संघर्ष का बहुत पुराना इतिहास है, और यह अब तक चला आ रहा है, आगे भी चलता रहेगा। यह विचारधारा का संघर्ष है, इसमें न्यायपालिका को नाहक घसीटा जा रहा है, सनातन धर्म में ही कहा गया है कि ‘वाद से ही सत्य का जन्म होता है’, तो वाद होने दीजिए।
प्राचीन किताबों को खंगाालें तो कहीं भी ‘सनातन धर्म’ का विधिवत वर्णन नहीं मिलता, जो यह बताता हो कि यही ‘सनातन धर्म’ है। हां, ‘सनातन धर्म’ का उल्लेख मनुस्मृति में चलताऊ ढंग से इस प्रकार ज़रूर किया गया है :
क्षत्रियञ्चैव सर्पं च ब्राह्मणं च बहुश्रुतम् ।
नावमन्येत वै भूष्णुः कृशानपि कदाचन ॥ 135 ॥
एतत्त्रयं हि पुरुषं निर्दहेदवमानितम्।
तस्मादेतत्त्रयं नित्यं नावमन्येत बुद्धिमान् ॥ 136 ॥
नात्मानमवमन्येत पूर्वाभिरसमृद्धिभिः ।
आमृत्योः श्रियमन्विच्छेन्नेनां मन्येत दुर्लभाम् ॥ 137॥
सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात् न ब्रूयात् सत्यमप्रियम् ।
प्रियञ्च नानृतं ब्रूयात् एष धर्मः सनातनः ॥ 138॥ (अध्याय 4-135-138)
इन चार श्लोकों में मनु सनातनियों को सलाह देते है कि ‘कभी भूलकर भी क्षत्रिय, सांप और वेदज्ञ ब्राह्मण को चोट नहीं पहुंचाएं, क्योंकि ये तीनों ही चोट करने वाले को बख़्शते नहीं, इसलिए बुद्धिमान लोग इनकी अवमानना नहीं करते। दूसरे, खुद को भी कभी असमर्थ समझ कर अवमानित नहीं करें कि मैं तो धनदौलत कमाने में अक्षम हूं, धन दौलत हासिल करना दुर्लभ काम नहीं है, यानी कोई भी कर सकता है। तीसरे, हमेशा सच बोलें, मगर मीठा सच बोलें, कड़वा सच न ही बोलें, झूठ तो मीठे शब्दों में भी न बोलें, यही सनातन धर्म है।’
पूरी मनुस्मृति में ब्राह्मण का महिमामंडन भरा पड़ा है, इसीलिए ब्राह्मणवाद के विरोध में अनेक ऋषि, महर्षि और दार्शनिक अतीत में भी संघर्ष में उतरे और आज भी मनुष्य और मनुष्य के बीच ग़ैरबराबरी के विचार को पालने पोसने वाली ब्राह्मणवादी विचारधारा के विरोध में करोड़ों लोग देश में मौजूद हैं, उन्हीं में से पेरियार के विचारों से लैस द्रविड़ आंदोलन के वाहक भी हैं। सनातन धर्म के अतार्किक कर्मकांड का मज़ाक सबसे पहले जाबालि ऋषि के मुंह से महर्षि वाल्मीकि ने अपने महाकाव्य रामायण में दर्ज किया है। इस महाकाव्य के अयोध्याकांड के सर्ग 108 में श्लोक संख्या 14-15 में जाबालि ऋषि राम द्वारा दशरथ के लिए आठवें दिन किये जाने वाले श्राद्ध का मज़ाक उड़ाते हैं :
अष्टका
पितृ दैवत्यम् इत्य अयम् प्रसृतो जनः |
अन्नस्य अपवित्रम् पश्य मृतो हि किम् अशिष्यति || 2-108-14
यदि भुक्तम् इह अन्येन देहम् अन्यस्य
गच्छति |
दद्यात् प्रवसतः श्राद्धम् न तत् पथ्य अशनम् भवेत् ||
2-108-15
(लोग सोचते हैं कि आठवें दिन श्राद्ध का भोजन दैवत्व को प्राप्त पितरों को मिल जाता है, यह अन्न का अपवित्रीकरण है, भला मृत पितर के पास वह अन्न कैसे पहुंच सकता है। अगर एक का खाया हुआ अन्न दूसरे की देह में जा सकता, तो यात्रा के दौरान भोजन लादकर ले जाने की क्या ज़रूरत, घर पर ही किसी को खिला दो, वह यात्री के पेट में पहुंच जायेगा)
दर असल हिंदुओं में ‘सनातन धर्म’ शब्द का चलन उन्नीसवीं सदी में उस दौर में हुआ जब कई समाज सुधारकों ने हिंदुओं में चली आ रही अनेक अमानवीय रूढ़ियों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी शुरू की। पूंजीवाद के विकास के साथ हर समाज और देश में वैज्ञानिक चेतना अंकुरित होने लगती है, ज्ञानोदय काल शुरू होता है, यह भारत में भी हुआ। उसी का असर था कि सती प्रथा, बालविवाह, मूर्तिपूजा आदि के विरोध में कुछ जागरूक ज्ञानी पुरुष साहस के साथ आगे बढ़े। रूढ़िवादी पोंगापंथी और ब्राह्मणवाद की अमानवीय विचारधारा के अंधभक्त अपने धर्म को ‘सनातन’ कहने लगे। उत्तर भारत में स्वामी दयानंद सरस्वती ने ‘आर्यसमाज’ की स्थापना इसी उद्देश्य से की और ‘सत्यार्थ प्रकाश’ नामक ग्रंथ की रचना करके तथाकथित सनातन धर्म का पुरज़ोर खंडन किया। वे वेदों के अलावा अन्य ग्रंथों, ख़ासकर असत्य पर आधारित मिथकों से लैस पुराणों का भी खंडन कर रहे थे। वे हिंदुओं में प्रचलित अनेक अंधविश्वासों, जन्मपत्री और झाड़फूंक, मंत्र आदि से रोग ठीक करने जैसे पाखंड का मख़ौल उड़ाते हुए देशवासियों को अज्ञान से दूर रहने की सलाह देते थे। वे पुस्तक के दूसरे सम्मुलास यानी अध्याय में लिखते हैं कि बच्चों को इस तरह के ढोंगियों से दूर रहने की सलाह दो, ‘इससे इन सब मिथ्या व्यवहारों को छोड़कर धार्मिक, सब देश के उपकारकर्त्ता, निष्कपटता से सबको विद्या पढ़ाने वाले, उत्तम विद्वान् लोगों का प्रत्युपकार करना, जैसा वे जगत् का उपकार करते हैं, इस काम को कभी न छोड़ना चाहिए। और जितनी लीला, रसायन, मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि करना कहते हैं, उनको भी महापामर समझ लेना चाहिए। इत्यादि मिथ्या बातों का उपदेश बाल्यावस्था ही में संतानों के हृदय में डाल दें कि जिससे स्वसंतान किसी के भ्रमजाल में पड़ के दुःख न पावें’।(https://satyarthprakash.in/hindi/chapter-two/ ) पोंगापंथी रूढ़िवादी सनातनी हिंदुओं ने एक षड्यंत्र से स्वामी दयानंद सरस्वती को ज़हर दिलवा कर मरवा दिया, 30 अक्टूबर 1883 को उनकी जीवनलीला समाप्त हो गयी। आज उदयनिधि स्टालिन के साथ भी वही सलूक करने का खुला आह्वान किया जा रहा है।
दर असल, तथाकथित सनातन धर्म अब ब्राह्मणवाद का संरक्षक और पोषक बनकर रह गया है, जिसके मूल में मनुस्मृति आधारित वर्णव्यवस्था, पुनर्जन्म, अवतारवाद और अनेक देवी देवताओं और पितरों की पूजा आदि कर्मकांड शामिल हैं। स्वामी दयानंद सरस्वती से बहुत पहले 15वी सदी में जन्मे संत कबीरदास ने निडर हो कर ब्राह्मणवाद के फ़लसफ़े की ऐसी तैसी की और वही काम बाद में निर्गुण भक्तों ने भी किया जिनकी वाणी सिख धर्म के अनुयायियों के गुरु ग्रंथ साहिब में दर्ज है। कबीरदास ज़ोर देकर एलान करते हैं कि ‘पंडित वाद वदै सो झूठा।‘ वे ज्ञानमार्ग का अनुसरण करते हुए ऐसी विश्वदृष्टि विकसित कर लेते हैं कि ‘सत्य’ के अलावा और किसी ईश्वर को नहीं मानते, राम को तो बिल्कुल ही नहीं। पारसनाथ तिवारी द्वारा संपादित, कबीर ग्रंथावली के रमैनी खंड के छंद 140 में राम के प्रति मज़े मज़े में गाली गलौज की भाषा का प्रयोग करते हुए कहते हैं:
ज्यों उघरी कों दे सरवांनां। राम भगति मेरे मनहुं न मांनां।। (जो बात उजागर है उसे क्यों कान में रखें, राम भक्ति पर मेरा मन विश्वास नहीं करता)
हम बहनोई राम मेरा सारा। हमहि बाप रांम पूत हमारा।। (यह हिंदी क्षेत्र की गाली है, ‘साला’, ‘बाप’ बोलचाल में और हिंदी फ़िल्मों में भी गाली के रूप में सुनने को मिलता है, सो कबीर ‘राम’ को गरिया रहे हैं)
कहै कबीर ए हरि के बूता रांम रमे तो कुकुर के पूता ।। (यहां ‘हरि’ कबीर का अपना मान्य ईश्वर’ यानी सत्य ही ईश्वर है जिसके बूते पर कहते हैं कि अगर वे राम में रम जायें तो कुत्ते की औलाद माने जायें)
कबीर जहां हिंदुओं के ‘सनातन’ धर्म के रूढ़िवाद, पोंगापंथ, अवतारवाद और अतर्क का खंडन करते हैं, वहीं मुस्लिम और ईसाई पंथ की भी आलोचना करते हैं। यह देखकर ताज्जुब होता है कि 15वी सदी में जहां दुनिया के किसी भी कोने में बाइबिल और क़ुरान की मान्यताओं का खंडन करने की कोई जुर्रत नहीं कर सकता था, तब बनारस के संत कबीर ने इन ग्रंथों में एडम और ईव (आदम और हौवा) की उत्पत्ति की कहानी का निडर होकर मज़ाक उड़ाया। इंसान के पैदा होने के बारे में उन्होंने वही कहा जो वाल्मीकि रामायण में महर्षि जाबालि राम से कहते हैं :
बीजमात्रम् पिता जन्तोः शुक्लं रुधिरामेव च |
संयुक्तमृत्युमान्मात्रा पुरुषस्येह जन्म तत् || (अयोध्याकांड,
सर्ग -108-श्लोक 11)
(आशय : पिता के वीर्य और माता के रज यानी अंड के मिलाप से इंसान का जन्म होता है)
कबीरदास भी इसी सत्य को अपनी शैली में कहते हैं :
आदम आदि सुधि नहिं पाई / मामा हौवा कहां ते आई ।। (आदि मानव आदम को यह ज्ञान ही नहीं था कि मदर हौवा कहां से आयी)
तब नहिं होते तुरुक न हिंदू / मां का उदर पिता का बिंदू ।। ( तब न तो मुसलमान थे, न हिंदू/ मां का गर्भ था और पिता का वीर्य बिंदु)
—रमैनी, कबीर ग्रंथावली, सं. पारसनाथ तिवारी, पृ. 119
इसके बाद संत कबीरदास हिंदुओं के सनातन धर्म और मुसलमानों के बीच प्रचलित तमाम रूढ़ियों का बखिया उधेड़ते हैं, उन्हें ‘कृत्रिम’ क़रार देते हैं :
किरतिम सो जु गरभ अवतरिया / किरतिम सो जो नांमहिं धरिया ।। ( जो भगवान गर्भ से अवतरित हुआ, वह कृत्रिम यानी झूठ था / और जो नाम दिया गया यानी ‘राम’ वह भी झूठ)
किरतिम सुन्नति और जनेऊ / हिंदू तुरुक न जानैं भेऊ ।। ....( ख़तना कृत्रिम यानी झूठ, यज्ञोपवीत भी झूठ / हिंदू मुसलमान यह सत्य जानते ही नहीं)
पंडित भूलै पढ़ि गुनि बेदा / आपु अपनपै जांन न भेदा ।। (पंडित वेद पढ़ कर भी भूले रहते हैं / अपने आप सत्य नहीं जान पाते, ‘अप्प दीपो भव’ का अनुसरण नहीं करते)
संझा तरपन अरु खटकरमा / लागि रहै इनकै आसरमां ।।(संध्या, तर्पण, षटकर्म में लगे रहते हैं, सच्चा ज्ञान हासिल नहीं करते)
गाइत्री जुग चारि पढ़ाई / पूछहु जाइ मुकुति किन पाई ।। (चार युग से गायत्री मंत्र का जाप करते चले आ रहे हैं/ पता करो, इससे किसे मोक्ष मिला)
और के छुएं लेत हैं सींचा / इनतैं कहहु कवन है नींचा।। ( परपुरुष यानी शूद्र के छू जाने से सींच लेते यानी पानी की बूंदें शरीर पर डालकर पवित्र होने का ढोंग रचते/ भला बताओ, ऐसे लोगों से भी ज़्यादा कोई नीच होगा)
--वही, पृ. 120
बनारस का संत कबीर ‘गर्भ गृह में अवतार लेने वाले रामलला’ को ‘कृत्रिम’ कहने का साहस रखता था, उसे जो नाम दिया गया, वह भी ‘कृत्रिम है’। संत कबीर छुआछूत मानने वाले सनातनियों को सबसे अधिक ‘नीच’ कहते हैं। मनुष्य मनुष्य के बीच नाबराबरी और गुलामगीरी के ख़िलाफ़ ऐसा सत्य कहने वाले सत्यशोधक दूसरे संत ज्योतिबा फुले उन्नीसवीं सदी में हुए। उनकी गुलामगीरी पुस्तक भी इसी तरह की कबीर की वाणी जैसी चुटीली और व्यंग्यात्मक शैली में दो पात्रों के नाटक की तरह लिखी गयी है जो तथाकथित सनातन धर्म की ‘कृत्रिम’ मान्यताओं का, मनुस्मृति पर आधारित ब्राह्मणवाद का खुले तौर पर खंडन करती है। बीसवीं सदी में उसी परंपरा को डा. भीमराव आंबेडकर ने आगे बढ़ाया, उन्होंने भी एक किताब, ‘रिडल्स इन हिंदूइज़्म’, हिंदू धर्म की किताबों में परस्परविरोधी और अंतर्विरोधपूर्ण मान्यताओं के पीछे छिपे असत्य को उजागर करने के लिए लिखी। अंतत: सनातन धर्म के दलित और स्त्रीविरोधी कर्मकांडों को देखते हुए उन्होंने हिंदू धर्म को त्याग कर बौद्ध धम्म अपना लिया, जिससे कि वे वर्णवाद यानी कठोर जातिवाद और पोंगापंथ से खुद को मुक्त महसूस कर सकें। दक्षिण भारत में ई वी रामास्वामी नायकर पेरियार ने भी ब्राह्मणवाद विरोधी आंदोलन की मशाल जलायी, उनका द्रविड कषगम आंदोलन एक बड़ी ताक़त बन कर उभरा, आज उसी का मशाल वाहक एक युवा अगर ज्ञानोदय काल की चेतना को इक्कीसवीं सदी में आगे बढ़ाने की कोशिश में तमिल लेखकों को शामिल कर रहा है तो किसी को आपत्ति क्यों होनी चाहिए। आज तो वैज्ञानिक चेतना जगाने का काम भारतीय संविधान में एक ‘मौलिक कर्तव्य’ के रूप में दर्ज है। ( भारत के संविधान के Article 51A(h) को देखें) उदयनिधि स्टालिन उसी संवैधानिक कर्तव्य का निर्वाह ही तो कर रहे हैं।
यों तो हर धर्म में मूल उपदेश इंसान को बेहतर बनने के दिये जाते हैं, सारे धर्म प्रेम, अहिंसा, ईमानदारी, सत्य, सदाचार आदि मूल्यों को अपनाने की सलाह देते हैं, लेकिन हर धर्म में कुछ न कुछ ऐसे नकारात्मक तत्व भी रहते हैं जो तर्क और विज्ञान की मान्यताओं से टकराते हैं। सनातन धर्म में भी ऐसे मानववादी मूल्य हैं जिन्हें महात्मा गांधी ने अपनाया, नरसी मेहता के गीत, ‘वैष्णव जन तो तेने कहिए...’ में उन्हीं मान्यताओं का उल्लेख है जो उनका प्रिय भजन था। देश में गांधी जी की तरह ही, करोड़ों हिंदू उन सकारात्मक मूल्यों में विश्वास रखते हैं, जो दूसरे धर्मों में भी शामिल हैं और उन धर्मों से उनका कोई झगड़ा नहीं है, साथ साथ रहते हैं, वे सब देश और समाज की उन्नति में अपना सहयोग दे रहे हैं। दूसरे मज़हबों के नागरिक भी प्रेम, अहिंसा, दया, शांति, परहित और उदारशीलता अपने धर्म से हासिल करते हैं, इसीलिए यह भारत साझा संस्कृति के सहारे आगे बढ़ रहा है। मगर आर एस एस-बीजेपी की अभारतीय फ़ासीवादी विचारधारा इस साझा संस्कृति की कट्टर दुश्मन है, वह धर्म का आवरण ओढ़ कर दर असल अधर्म का आचरण करवाती है। किसी ने लिखा है कि ‘अष्टादश पुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम् । परोपकारः पुण्याय पापाय परपीडनम् ॥‘ इसी को तुलसीदास ने यों कहा, ‘परहित सरिस धर्म नहिं भाई/ परपीड़ा सम नहिं अधमाई।।’आंख खोल कर देखें तो नफ़रत से नाक फुलाये परपीड़कों की यह अधमाई रोज़ देखने को मिल जायेगी, संसद में भी और बाहर भी। देश के प्रधान मंत्री अपनी कैबिनेट मीटिंग में मंत्रियों को उकसाते हैं कि उदयनिधि स्टालिन के बयान के ख़िलाफ़ धर्म युद्ध छेड़ दो। इसी से शह पा कर विश्वहिंदू परिषद ने एलान कर दिया है कि 30 सितंबर 2023 से एक पखवाड़े तक नूह शिव यात्रा के पैटर्न पर यात्राएं निकाली जायेंगी जो पांच लाख गांवों में पहुंच कर ‘धर्मयोद्धा’ तैयार करेंगी। यह बताने की ज़रूरत नहीं कि इन धर्म योद्धाओं से ‘परहित’ कराया जायेगा, या ‘परपीड़न’, गांधी जी के सनातन धर्म के मानमूल्यों का अनुसरण होगा, या नाथूराम गोडसे, हिटलर और मुसोलिनी के फ़ासीवादी दुष्कर्मों का। क्या इन यात्राओं से ‘वैज्ञानिक चेतना’ फैलायी जायेगी, या ‘अंधविश्वास’ और ‘अंधभक्ति’।
दर असल, आर एस एस-भाजपा की केंद्र सरकार ने जो बड़े बड़े वादे किये थे, वे तो पूरे हुए नहीं। देश की दौलत चंद कारपोरेट घरानों के हवाले कर दी, अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के क़र्ज़ के नीचे देश को बुरी तरह फंसा दिया, जिसका ब्याज चुकाने के लिए दूध दही तक टैक्स की चपेट में आगये। आमजन की हालत बद से बदतर हो गयी। महंगाई, बेरोज़गारी, भ्रष्टाचार मिटाने का वादा, किसान की आय दुगुनी करने का वादा, उसे लाभकारी मूल्य देने का वादा, सारे जुमले बन कर रह गये, ये सारे मुद्दे सरकार के सामने मुंह बाये खड़े हैं जो उसकी असफलताओं को बयान कर रहे हैं। यही वजह है कि इन बुनियादी मुद्दों से ध्यान भटकाने के लिए बीजेपी के दिमाग़ में बही सांप्रदायिक ध्रुवीकरण और आडवानी रथ यात्रा वाला हथियार उभर उभर आता है, उसी पर अपने काडर को लगाने की कोशिश चल रही है, वैज्ञानिक चेतना के ख़िलाफ़ मुहिम भी उसी का हिस्सा है।
देश में अंधविश्वास फैलाने में हमारे मौजूदा प्रधानमंत्री कभी पीछे नहीं रहते। वे गणेश के सिर पर हाथी के सिर के रोपण के मिथक को यथार्थ की तरह पेश करते हुए एक आयोजन में मेडिकल छात्रों को बताते हैं कि उस समय ही भारत में प्लास्टिक सर्जरी थी। कर्ण के जन्म की कथा को भी इसी तरह वे ‘टैस्ट ट्यूब’ की वैज्ञानिक पद्धति बताते हैं। (‘यूट्यूब’ पर वीडियो में इस लिंक पर खुद मोदी जी को सुना जा सकता है : https://www.youtube.com/watch?v=AvFHvHNmfSM)) सारी दुनिया के अख़बार उनका मज़ाक़ उड़ाते हैं। वे धर्मनिरपेक्ष देश के संविधान की परवाह न करते हुए हर सरकारी आयोजन पर सनातन धर्म के विधिविधान से पूजापाठ करवाते रहते हैं, चाहे किसी इमारत का शिलान्यास हो, ‘भूमिपूजन’ हो, ‘उद्घाटन’ हो। नये संसद भवन के भूमिपूजन, शिलान्यास और उद्घाटन के अयोजन इसके ताज़ा प्रमाण हैं जिनमें प्रधानमंत्री का व्यवहार सामंती युग के एक चक्रवर्ती सम्राट की तरह का दिखता है। आज सरकारी कोष किसी सम्राट का नहीं, उसमें आज के गणराज्य के हर धर्म के नागरिकों और नास्तिकों की भी कमाई का पैसा जाता है। इसीलिए यह राजनीतिक नहीं, नैतिकता का सवाल भी है कि सबके पैसे को ख़र्च करके किसी भी धर्मविशेष को सरकारी क्रियाकलाप में संरक्षण क्यों दिया जाये, आधुनिक सभ्य लोकतांत्रिक देश की तरह हमारा व्यवहार और चालचलन हो, सामंती युग के राजाओं, महाराजाओं और बादशाहों की तरह नहीं। मगर यहां संविधान को कौन मानता है। विपक्ष की एकता से निर्मित गठबंधन ने जो पहलक़दमी की है, उससे उम्मीद बनती है कि देश में लोकतंत्र की रक्षा हो सकती है, वरना ख़तरा बहुत बड़ा है, काल्पनिक नहीं, यथार्थ में।