राजेंद्र यादव होने का महत्व
चंचल चौहान
(यह लेख राजेंद्र यादव की अंत्येष्टि से लौट कर लिखा था, हिंदी साप्ताहिक 'लोकलहर' के 28 अक्टूबर - 3 नवंबर 2013 के अंक में छपा है)
राजेंद्र यादव नहीं रहे। अभी अभी उनके पार्थिव शरीर को अग्नि को समर्पित करके दिल्ली के लेखकों का भारी हजूम लौटा है और इसी में शामिल मैं राजेंद्र यादव के साथ अपने लंबे संग साथ की ढेर सारी यादों को तरतीब देने की कोशिश कर रहा हूं। अंग्रेज़ी का लेक्चरर होने के बाद, वर्ष 1971 में साउथ कैंपस से जब मैं अपनी दूसरी एम.ए. हिंदी में कर रहा था, डा. निर्मला जैन ने मुझे साहित्य सभा का कर्ताधर्ता नियुक्त कर दिया था, उन्होंने प्रेमचंद जयंती पर तीन पीढिय़ों के कथाकार बुलाये थे, जैनेंद्र, राजेंद्र यादव और गोविंद मिश्र। मैंने रंगभूमि पर एक लेख पढ़ा था, बस उसी दिन से हमारी दोस्ती शुरू हुई। फिर जब शक्तिनगर में राजेंद्र यादव के घर पर समय समय पर उनकी मित्रमंडली की गोष्ठियों का सिलसिला शुरू हुआ तो मैं भी उनमें शामिल होने लगा। वहां पर भारत भूषण अग्रवाल, निर्मला जैन, अजित कुमार, स्नेहमयी चौधरी, और गोविंद उपाध्याय उपस्थित रहते थे। मन्नू जी और राजेंद्र यादव ऐसे आत्मीय लगने लगे थे मानो बरसों से हमारा उनके यहां आना जाना रहा हो। जब ये लोग हौज़ खा़स चले गये, तब यह सिलसिला बाधित हो गया। उसके बाद 1982 में जब जनवादी लेखक संघ का गठन हुआ तो हम लोगों के अनुरोध पर वे सहर्ष संगठन के सदस्य बने और उसके हर सम्मेलन में उपाध्यक्ष पद पर चुने गये। हंस का जब संपादन शुरू किया तो किसी न किसी विषय पर लिखने का आग्रह लगातार करते रहे, अपना लिखा हुआ उन्हें देने के क्रम में उनसे लगातार मिलना जुलना बना रहा। कुछ ही महीने पहले आकाशवाणी के एक स्टूडियो में उनका रचना पाठ आयोजित किया गया था, जगह बहुत कम होने की वजह से सीमित श्रोताओं को ही वहां बुलाया था, उस अवसर पर भी वे मुझे बुलाना नहीं भूले। यह उनका स्नेह ही था, अन्यथा उनकी मित्रमंडली में लोगों की भारी संख्या पहले से ही थी, अजय नावरिया के अलावा बहुत जाने पहचाने चेहरे श्रोताओं में मौजूद नहीं थे। वहां उन्होंने अपनी एक बहुत ही पुरानी कहानी, ‘संबंध’, जो ‘टूटना’ संग्रह की पहली ही कहानी है, पढ़ी थी। वे हमें इतने आत्मीय लगते थे कि कभी किसी तरह का कोई वैचारिक टकराव नहीं हुआ। हमारे अनुरोध के बाद शायद ही किसी कार्यक्रम में आने में उन्होंने आनाकानी की हो। अस्वस्थ होने के बावजूद वे डा. शिवकुमार मिश्र की श्रद्धांजलि सभा में आये। यह सब लिखते हुए मुझे लग रहा है कि शायद मैं यहां ज्य़ादा निजगत हो रहा हूं, उनके बारे में, उनके वैचारिक देय, रचनात्मक अवदान के बारे में कुछ कहने के बजाय मैं अपने मित्र से बिछडऩे के दर्द की वजह से उन लमहों में उन्हें याद कर शायद उन्हें अपने तईं जीवित कर रहा हूं।
राजेंद्र यादव जीवित तो रहेंगे, अपने विपुल रचनात्मक और वैचारिक लेखन की शक्ल में वे रहेंगे ही, लोकतांत्रिक मूल्यों में अटूट आस्था जिसे हम अपनी भाषा में जनवादी चेतना का आधार मानते हैं उनके शब्द और कर्म में पूरी तरह समाहित थी। वहां किसी छद्म में भीतर सामंत नहीं बसता था, समानता, आज़ादी, भाईचारा ऐसे जीवनमूल्य हैं जिन्हें उन्होंने अर्जित किया था, इसीलिए उनके सामाजिक सरोकारों के केंद्र में दलित समुदाय, पिछड़े सामाजिक तब$के, नारी और युवा थे जिनकी रचनात्मक अभिव्यक्ति को उनके यहां जगह मिली थी, उनका सबसे बड़ा योगदान तो यही था कि इन तब$कों की रचनाधर्मिता को इस दौर में उनकी साहित्यिक पत्रकारिता के माध्यम से केंद्रीयता हासिल हुई।
लोकतांत्रिक मूल्यों के क्षरण को राजेंद्र यादव ने अपने लेखन के पहले चरण से ही अभिव्यक्त करना शुरू कर दिया था। नयी कहानी के दौर के कहानीकारों में यह चेतना तो थी ही कि भारत ने पूंजीवादी विकास का रास्ता अख्तियार किया है और यह रास्ता गऱीबों को और गऱीब व धनिकों को और अधिक धनवान बनायेगा। नये मध्यवर्ग में मूल्यहीनता का ह्रास भी वे देख रहे थे। राजेंद्र यादव ने अपनी पुस्तक, ‘कहानी : स्वरूप और संवेदना’, और ‘एक दुनिया समानांतर’ में जगह जगह ये संकेत दिये हैं कि उनके समकालीन कहानीकारों में जो अस्वीकृति का स्वर है, वह परिवेशजन्य है। वे लिखते हैं, ‘वर्तमान से, व्यवस्था से असंतोष, इनकी अस्वीकृति और डिसगस्ट या उदासीनता - नये की खोज, तलाश की मजबूरी पैदा कर देती है। अस्वीकृति, उदासीनता की स्थिति में आदमी अधिक समय तक रह ही नहीं सकता। वह एक ऐसा ‘नो मैन्स लैंड’ है जिसके इधर या उधर होना ही होगा, बशर्ते आदमी मर न गया हो’।(पृ.174) यह चेतना आज के उत्तरआधुनिक मध्यवर्गीय रचनाकार के सर्वनिषेधवाद से भिन्न थी जो न इधर होना चाहता है और न उधर, जो सोचता है कि ‘कोउ नृप होउ हमहिं का हानी, चेरी छांडि़ न होउब रानी’। राजेंद्र यादव की अस्वीकृति पूंजीवादी तानाशाही के लिए थी, उनकी अस्वीकृति हिंदुत्व के नाम से हुंकार भरते सांप्रदायिक $फासीवाद के लिए थी जिसकी वजह से विश्वहिंदूपरिषद ने उन्हें मार डालने तक की धमकी दी थी और जनवादी लेखक संघ की पहलक़दमी से उन्हें पुलिस सुरक्षा मुहैया करानी पड़ी थी, जिसे बाद में निजी आज़ादी में दख़ल के रूप में अनुभव करने पर उन्होंने हटा दिया था।
मध्यवर्ग की सीमाओं को राजेंद्र यादव ने ख़ासतौर से अपनी रचनाओं का विषय बनाया था। उनकी बहुचर्चित कहानी, ‘टूटना’, का किशोर कहता है कि ‘सारा खेल रुपये का है, और अब रुपया कमाना है’, उसके बाद वाचक बताता है कि ‘उसने निश्चय किया और भूत की तरह रुपये के पीछे लग गया -- भूल गया, कहीं कोई लीना है, कहीं कोई दीक्षित साहब हैं और कहीं कोई अतीत है। एक नौकरी पर पांव टिकाकर दूसरी का सौदा होता रहा...पहला तल्ला...दूसरा तल्ला और एक दिन लिफ़्ट उसे दसवें तल्ले के इस चैम्बर में ले आयी जिसके दरवाज़े पर लिखा था, ‘जनरल मैनेजर...('टूटना और अन्य कहानियां’, पृ. 173)।
मध्यवर्ग का यह यथार्थ आज भी मौजूद है, पूंजीवादी विकास ने यह चेतना पैदा कर दी है कि हर कोई इस समाज में अपने बलबूते पर टाटा, बिड़ला, अंबानी बन सकता है, इस सपने ने मध्यवर्गीय व्यक्ति की अस्मिता को निगल लिया है, ‘टूटना’ में किशोर शोषित वर्गों के बजाय शोषकवर्गों की $कतार में शामिल हो गया है जिसकी वजह से वह वर्गीय चेतना खो बैठा है। वह अपने सामाजिक संबंधों में भी इसी पूंजीवादी चेतना से निर्देशित होता है और अकेला पड़ जाता है। भीष्म साहनी की कहानी, ‘ची$फ की दावत’ में भी मध्यवर्ग की इसी चेतना को रूपायित किया गया था।
वर्गीय अस्मिता के खो जाने को राजेंद्र यादव ने बहुत सी कहानियों में मृत्यु के प्रतीक से भी चित्रित किया है। ‘संबध’ कहानी जो उन्होंने कुछ महीनों पहले आकाशवाणी के एक प्रोग्राम पढ़ी थी, पहचान खो जाने की ही कहानी है जिसमें डाकुओं द्वारा अपहृत हरिकिशन की लाश के बजाय पोस्टमार्टम के बाद अस्पताल के बाहर किसी और की लाश रखी गयी और उसी पर रोना पीटना होता रहा, कहानी के अंत में पता चलता है कि वह किसी और की लाश है। मृत्यु से ही संबंधित एक और कहानी उसी दौर की है, ‘मरने वाले का नाम’। यह कहानी नेहरू जी की मृत्यु को केंद्र में रख कर मध्यवर्ग की चेतना का मखौल उड़ाती सी लगती है, कोई मरे या कोई जिये, किशन को इस सबसे क्या लेना देना, उस अवसर को शराब की पार्टी में $गम $गलत करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है और दुनिया जहान की बातें, एक स्वकेंद्रित पर्सपेक्टिव से होती हुई दिखायी जाती हैं, सिनेमा की एक रील की तरह।
यह देखकर अचरज होता है कि जीवन के अंतिम चरण तक युवा बना रहा यह लेखक मृत्यु से इस तरह का आब्सैशन क्यों पाले था। 1992 में हिंदी अकादमी ने ‘संकल्प : कथा दशक’ नामक एक कहानी संकलन राजेंद्र यादव के संपादन में प्रकाशित किया था जिसमें उनकी अपनी भी एक पुरानी कहानी, "उसका आना" शीर्षक से छपी थी जिसके बारे में उन्होंने कहानी के इंट्रो में लिखा था, ‘यह कहानी शायद पहली बार 61 में लिखी गयी थी, जनवरी में हो सकता है, तब इसे एक लघु उपन्यास के रूप में सोचा हो। बीस पच्चीस पृष्ठों से आगे नहीं बढ़ी। दुबारा कहानी के रूप में लिखा 22-12-83 को। ज़ाहिर है संतोष नहीं हुआ, अब एक बार फिर कोशिश कर रहा हूं...’। यह कहानी उनकी एक कम चर्चित कहानी है मगर श्मशान से लौटने के बाद आज उसकी शुरुआती पंक्तियां बरबस याद आती हैं :
औरों की तरह एक तस्वीर मेरे भी सपनों और कल्पना में अकसर आती रही है। बीच में मैं सफ़ेद चादर ओढ़े लेटा हूं और चारों तर$फ लोग रो पीट रहे हैं, उनके पीछे अ$फसोसी चेहरे खड़े हैं। मेरी असामयिक मृत्यु पर, किये अनकिये महान कार्यों पर दबे स्वर में बातें हो रही हैं...आश्चर्य करता हूं कि यह लेटा हुआ व्यक्ति क्या अब कभी नहीं उठेगा? (पृ.423)
आज़ादी के दौर में और उसके बाद भी मुक्ति का जो दर्शन चेतना का हिस्सा बना था, उसमें मृत्यु से भी मुक्त होने की भावना हर रचनाकार में शिद्दत के साथ पैठी हुई थी। सार्त्र के अस्तित्ववाद का भी प्रभाव चेतना पर था, इसीलिए नये कहानीकारों में से कई एक मृत्युबोध को कहानी का आधार बना रहे थे। निर्मल वर्मा अपने अंतिम चरण में इसी बोध के कारण ‘सूखा’ देख रहे थे, मगर राजेंद्र यादव अपनी पुनर्रचित कहानी में भी मध्यवर्गीय सीमाओं को ही रेखांकित करते हैं। यह कहानी पत्र शैली में लिखी लंबी कहानी है जिसमें रचनाकार ने आज के मध्यवर्गीय लेखक की उसकी महानता की खोखल के नीचे छिपी सारी कमज़ोरियों का खुला इज़हार किया है।
मुक्ति का $फलस$फा ही उन्हें दलित विमर्श और नारी मुक्ति के सवालों की ओर ले गया। नारी मुक्ति की उनकी चाह शुरू से ही उनके रचनात्मक साहित्य में परिलक्षित होती रही थी, ‘जहां लक्ष्मी $कैद है’ या ‘सारा आकाश’ जैसी अनेक रचनाएं हैं जिनके केंद्र में नारी स्वाधीनता के सवाल झलकते रहे हैं, बदनामी और मख़ौल तक का जोख़िम उठाकर उन्होंने इस सवाल को अपने जीवन के अंतिम चरण तक जि़ंदा रखा। दलित साहित्य के प्रति उनका लगाव ऐसे दौर में हुआ जब दलित समुदाय से आये लेखकों ने सदियों से दबे कुचले सामाजिक हिस्सों के दुखदर्द को अभिव्यक्ति प्रदान करना शुरू कर दिया। साहित्य की यह धारा जनवादी मूल्यों के विकास की ही एक कड़ी के तौर पर वजूद में आयी, इसलिए राजेंद्र यादव जैसे डेमोक्रेट के लिए उसके प्रति सकारात्मक एप्रोच का अपनाना कोई ताज्जुब की बात नहीं।
दलित मुक्ति और नारी मुक्ति के लिए एक शोषणहीन समाज का सपना भले ही राजनीतिक विचारधारा के तहत उनकी चेतना का हिस्सा न बना हो, मगर दार्शनिक स्तर पर और अपनी रचनात्मक प्रतिभा के स्तर पर वह सपना उनमें कभी नहीं मरा। राजेंद्र यादव होने का यही महत्व है और राजेंद्र यादव की रचना यात्रा की शायद कांटे की बात भी यही है।
(हिंदी साप्ताहिक, लोकलहर के 28 अक्टूबर – 3 नवंबर 2013
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