बुधवार, 6 नवंबर 2013

राजेंद्र यादव नहीं रहे


राजेंद्र यादव होने का महत्व

चंचल चौहान

(यह लेख राजेंद्र यादव की अंत्येष्टि से लौट कर लिखा था, हिंदी साप्ताहिक 'लोकलहर' के 28 अक्टूबर - 3 नवंबर 2013 के अंक में छपा है)

 राजेंद्र यादव नहीं रहे। अभी अभी उनके पार्थिव शरीर को अग्नि को समर्पित करके दिल्ली के लेखकों का भारी हजूम लौटा है और इसी में शामिल मैं राजेंद्र यादव  के साथ अपने लंबे संग साथ की ढेर सारी यादों को तरतीब देने की कोशिश कर रहा हूं। अंग्रेज़ी का लेक्चरर होने के बाद, वर्ष 1971 में साउथ कैंपस से जब मैं अपनी दूसरी एम.ए. हिंदी में कर रहा था, डा. निर्मला जैन ने मुझे साहित्य सभा का कर्ताधर्ता नियुक्त कर दिया था, उन्होंने प्रेमचंद जयंती पर तीन पीढिय़ों के कथाकार बुलाये थे, जैनेंद्र, राजेंद्र यादव और गोविंद मिश्र। मैंने रंगभूमि पर एक लेख पढ़ा था, बस उसी दिन से हमारी दोस्ती शुरू हुई। फिर जब शक्तिनगर में राजेंद्र यादव के घर पर समय समय पर उनकी मित्रमंडली की गोष्ठियों का सिलसिला शुरू हुआ तो मैं भी उनमें शामिल होने लगा। वहां पर भारत भूषण अग्रवाल, निर्मला जैन, अजित कुमार, स्नेहमयी चौधरी, और गोविंद उपाध्याय उपस्थित रहते थे। मन्नू जी और राजेंद्र यादव ऐसे आत्मीय लगने लगे थे मानो बरसों से हमारा उनके यहां आना जाना रहा हो। जब ये लोग हौज़ खा़स चले गये, तब यह सिलसिला बाधित हो गया। उसके बाद 1982 में जब जनवादी लेखक संघ का गठन हुआ तो हम लोगों के अनुरोध पर वे सहर्ष संगठन के सदस्य बने और उसके हर सम्मेलन में उपाध्यक्ष पद पर  चुने गये। हंस का जब संपादन शुरू किया तो किसी न किसी विषय पर लिखने का आग्रह लगातार करते रहे, अपना लिखा हुआ उन्हें देने के क्रम में उनसे लगातार मिलना जुलना बना रहा। कुछ ही महीने पहले आकाशवाणी के एक स्टूडियो में उनका रचना पाठ आयोजित किया गया था, जगह बहुत कम होने की वजह से सीमित श्रोताओं को ही वहां बुलाया था, उस अवसर पर भी वे मुझे बुलाना नहीं भूले। यह उनका स्नेह ही था, अन्यथा उनकी मित्रमंडली में लोगों की भारी संख्या पहले से ही थी, अजय नावरिया के अलावा बहुत जाने पहचाने चेहरे श्रोताओं में मौजूद नहीं थे। वहां उन्होंने अपनी एक बहुत ही पुरानी कहानी, संबंध, जो ‘टूटना’ संग्रह की पहली ही कहानी है, पढ़ी थी। वे हमें इतने आत्मीय लगते थे कि कभी किसी तरह का कोई वैचारिक टकराव नहीं हुआ। हमारे अनुरोध के बाद शायद ही किसी कार्यक्रम में आने में उन्होंने आनाकानी की हो। अस्वस्थ होने के बावजूद वे डा. शिवकुमार मिश्र की श्रद्धांजलि सभा में आये। यह सब लिखते हुए मुझे लग रहा है कि शायद मैं यहां ज्य़ादा निजगत हो रहा हूं, उनके बारे में, उनके वैचारिक देय, रचनात्मक अवदान के बारे में कुछ कहने के बजाय मैं अपने मित्र से बिछडऩे के दर्द की वजह से उन लमहों में उन्हें याद कर शायद उन्हें अपने तईं जीवित कर रहा हूं।

          राजेंद्र यादव जीवित तो रहेंगे, अपने विपुल रचनात्मक और वैचारिक लेखन की शक्ल में वे रहेंगे ही, लोकतांत्रिक मूल्यों में अटूट आस्था जिसे हम अपनी भाषा में जनवादी चेतना का आधार मानते हैं उनके शब्द और कर्म में पूरी तरह समाहित थी। वहां किसी छद्म में भीतर सामंत नहीं बसता था, समानता, आज़ादी, भाईचारा ऐसे जीवनमूल्य हैं जिन्हें उन्होंने अर्जित किया था, इसीलिए उनके सामाजिक सरोकारों के केंद्र में दलित समुदाय, पिछड़े सामाजिक तब$के, नारी और युवा थे जिनकी रचनात्मक अभिव्यक्ति को उनके यहां जगह मिली थी, उनका सबसे बड़ा योगदान तो यही था कि इन तब$कों की रचनाधर्मिता को इस दौर में उनकी साहित्यिक पत्रकारिता के माध्यम से केंद्रीयता हासिल हुई।

          लोकतांत्रिक मूल्यों के क्षरण को राजेंद्र यादव ने अपने लेखन के पहले चरण से ही अभिव्यक्त करना शुरू कर दिया था। नयी कहानी के दौर के कहानीकारों में यह चेतना तो थी ही कि भारत ने पूंजीवादी विकास का रास्ता अख्तियार किया है और यह रास्ता गऱीबों को और गऱीब व धनिकों को और अधिक धनवान बनायेगा। नये मध्यवर्ग में मूल्यहीनता का ह्रास भी वे देख रहे थे। राजेंद्र यादव ने अपनी पुस्तक, कहानी : स्वरूप और संवेदना’, और ‘एक दुनिया समानांतर’ में जगह जगह ये संकेत दिये हैं कि उनके समकालीन कहानीकारों में जो अस्वीकृति का स्वर है, वह परिवेशजन्य है। वे लिखते हैं, वर्तमान से, व्यवस्था से असंतोष, इनकी अस्वीकृति और डिसगस्ट या उदासीनता - नये की खोज, तलाश की मजबूरी पैदा कर देती है। अस्वीकृति, उदासीनता की स्थिति में आदमी अधिक समय तक रह ही नहीं सकता। वह एक ऐसा नो मैन्स लैंड है जिसके इधर या उधर होना ही होगा, बशर्ते आदमी मर न गया हो’।(पृ.174) यह चेतना आज के उत्तरआधुनिक मध्यवर्गीय रचनाकार के सर्वनिषेधवाद से भिन्न थी जो न इधर होना चाहता है और न उधर, जो सोचता है कि कोउ नृप होउ हमहिं का हानी, चेरी छांडि़ न होउब रानी’। राजेंद्र यादव की अस्वीकृति पूंजीवादी तानाशाही के लिए थी, उनकी अस्वीकृति हिंदुत्व के नाम से हुंकार भरते सांप्रदायिक $फासीवाद के लिए थी जिसकी वजह से विश्वहिंदूपरिषद ने उन्हें मार डालने तक की धमकी  दी थी और जनवादी लेखक संघ की पहलक़दमी से उन्हें पुलिस सुरक्षा मुहैया करानी पड़ी थी, जिसे बाद में निजी आज़ादी में दख़ल के रूप में अनुभव करने पर उन्होंने हटा दिया था।

          मध्यवर्ग की सीमाओं को राजेंद्र यादव ने ख़ासतौर से अपनी रचनाओं का विषय बनाया था। उनकी बहुचर्चित कहानी, टूटना, का किशोर कहता है कि सारा खेल रुपये का है, और अब रुपया कमाना है, उसके बाद वाचक बताता है कि उसने निश्चय किया और भूत की तरह रुपये के पीछे लग गया -- भूल गया, कहीं  कोई लीना है, कहीं कोई दीक्षित साहब हैं और कहीं कोई अतीत है। एक नौकरी पर पांव टिकाकर दूसरी का सौदा होता रहा...पहला तल्ला...दूसरा तल्ला और एक दिन लिफ़्ट उसे दसवें तल्ले के इस चैम्बर में ले आयी जिसके दरवाज़े पर लिखा था, जनरल मैनेजर...('टूटना और अन्य कहानियां’, पृ. 173)

          मध्यवर्ग का यह यथार्थ आज भी मौजूद है, पूंजीवादी विकास ने यह चेतना पैदा कर दी है कि हर कोई इस समाज में अपने बलबूते पर टाटा, बिड़ला, अंबानी बन सकता है, इस सपने ने मध्यवर्गीय व्यक्ति की अस्मिता को निगल लिया है, टूटना  में किशोर शोषित वर्गों के बजाय शोषकवर्गों की $कतार में शामिल हो गया है जिसकी वजह से वह वर्गीय चेतना खो बैठा है। वह अपने सामाजिक संबंधों में भी इसी पूंजीवादी चेतना से निर्देशित होता है और अकेला पड़ जाता है। भीष्म साहनी की कहानी, ची$फ की दावत में भी मध्यवर्ग की इसी चेतना को रूपायित किया गया था।

          वर्गीय अस्मिता के खो जाने को राजेंद्र यादव ने बहुत सी कहानियों में मृत्यु के प्रतीक से भी चित्रित किया है। ‘संबध कहानी जो उन्होंने कुछ महीनों पहले आकाशवाणी के एक प्रोग्राम पढ़ी थी, पहचान खो जाने की ही कहानी है जिसमें डाकुओं द्वारा अपहृत हरिकिशन की लाश के बजाय पोस्टमार्टम के बाद अस्पताल के बाहर किसी और की लाश रखी गयी और उसी पर रोना पीटना होता रहा, कहानी के अंत में पता चलता है कि वह किसी और की लाश है। मृत्यु से ही संबंधित एक और कहानी उसी दौर की है, मरने वाले का नाम। यह कहानी नेहरू जी की मृत्यु को केंद्र में रख कर मध्यवर्ग की चेतना का मखौल उड़ाती सी लगती है, कोई मरे या कोई जिये, किशन को इस सबसे क्या लेना देना, उस अवसर को शराब की पार्टी में $गम $गलत करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है और दुनिया जहान की बातें, एक स्वकेंद्रित पर्सपेक्टिव से होती हुई दिखायी जाती हैं, सिनेमा की एक रील की तरह।

          यह देखकर अचरज होता है कि जीवन के अंतिम चरण तक युवा बना रहा यह लेखक मृत्यु से इस तरह का आब्सैशन क्यों पाले था। 1992 में हिंदी अकादमी ने ‘संकल्प : कथा दशक’ नामक एक कहानी संकलन राजेंद्र यादव के संपादन में प्रकाशित किया था जिसमें उनकी अपनी भी एक पुरानी कहानी, "उसका आना" शीर्षक से छपी थी जिसके बारे में उन्होंने कहानी के इंट्रो में लिखा था, यह कहानी शायद पहली बार 61 में लिखी गयी थी, जनवरी में हो सकता है, तब इसे एक लघु उपन्यास के रूप में सोचा हो। बीस पच्चीस पृष्ठों से आगे नहीं बढ़ी। दुबारा कहानी के रूप में लिखा 22-12-83 को। ज़ाहिर है संतोष नहीं हुआ, अब एक बार फिर कोशिश कर रहा हूं...’। यह कहानी उनकी एक कम चर्चित कहानी है मगर श्मशान से लौटने के बाद आज उसकी शुरुआती पंक्तियां बरबस याद आती हैं :

औरों की तरह एक तस्वीर मेरे भी सपनों और कल्पना में अकसर आती रही है। बीच में मैं सफ़ेद चादर ओढ़े लेटा हूं और चारों तर$फ लोग रो पीट रहे हैं, उनके पीछे अ$फसोसी चेहरे खड़े हैं। मेरी असामयिक मृत्यु पर, किये अनकिये महान कार्यों पर दबे स्वर में बातें हो रही हैं...आश्चर्य करता हूं कि यह लेटा हुआ व्यक्ति क्या अब कभी नहीं उठेगा? (पृ.423)

आज़ादी के दौर में और उसके बाद भी मुक्ति का जो दर्शन चेतना का हिस्सा बना था, उसमें मृत्यु से भी मुक्त होने की भावना हर रचनाकार में शिद्दत के साथ  पैठी हुई थी। सार्त्र के अस्तित्ववाद का भी प्रभाव चेतना पर था, इसीलिए नये कहानीकारों में से कई एक मृत्युबोध को कहानी का आधार बना रहे थे। निर्मल वर्मा अपने अंतिम चरण में इसी बोध के कारण सूखा देख रहे थे, मगर राजेंद्र यादव अपनी पुनर्रचित कहानी में भी मध्यवर्गीय सीमाओं को ही रेखांकित करते हैं। यह कहानी पत्र शैली में लिखी लंबी कहानी है जिसमें रचनाकार ने आज के मध्यवर्गीय लेखक की उसकी महानता की खोखल के नीचे छिपी सारी कमज़ोरियों का खुला इज़हार किया है।

          मुक्ति का $फलस$फा ही उन्हें दलित विमर्श और नारी मुक्ति के सवालों की ओर ले गया। नारी मुक्ति की उनकी चाह शुरू से ही उनके रचनात्मक साहित्य में परिलक्षित होती रही थी,  जहां लक्ष्मी $कैद है’  या ‘सारा आकाश’ जैसी अनेक रचनाएं हैं जिनके केंद्र में नारी स्वाधीनता के सवाल झलकते रहे हैं, बदनामी और मख़ौल तक का जोख़िम उठाकर उन्होंने इस सवाल को अपने जीवन के अंतिम चरण तक जि़ंदा रखा। दलित साहित्य के प्रति उनका लगाव ऐसे दौर में हुआ जब दलित समुदाय से आये लेखकों ने सदियों से दबे कुचले सामाजिक हिस्सों के दुखदर्द को अभिव्यक्ति प्रदान करना शुरू कर दिया। साहित्य की यह धारा जनवादी मूल्यों के विकास की ही एक कड़ी के तौर पर वजूद में आयी, इसलिए राजेंद्र यादव जैसे डेमोक्रेट के लिए उसके प्रति सकारात्मक एप्रोच का अपनाना कोई ताज्जुब की बात नहीं।

          दलित मुक्ति और नारी मुक्ति के लिए एक शोषणहीन समाज का सपना भले ही राजनीतिक विचारधारा के तहत उनकी चेतना का हिस्सा न बना हो, मगर दार्शनिक स्तर पर और अपनी रचनात्मक प्रतिभा के स्तर पर वह सपना उनमें कभी नहीं मरा। राजेंद्र यादव होने का यही महत्व है और राजेंद्र यादव की रचना यात्रा की शायद कांटे की बात भी यही है।

(हिंदी साप्ताहिक, लोकलहर के 28 अक्टूबर 3 नवंबर 2013 में प्रकाशित

 



गुरुवार, 26 सितंबर 2013

सांप्रदायिक फ़ासीवाद का उभार



सांप्रदायिक फ़ासीवाद का उभार और लेखकीय प्रतिरोध का समय

                    चंचल चौहान

निराला की एक कविता है : 'राजे ने अपनी रखवाली की।‘ यह साफ़तौर पर वर्ग-विभाजित समाज में शोषकवर्ग के वर्चस्व से जुड़ी असलियत खोलती है। वाचक ने इस कविता में शोषण के वर्ग आधार और उस पर खड़ी संरचना या सुपरस्ट्र्क्चर के चरित्र को उदघाटित किया है। राजा अपनी रखवाली कि़ला बनाकर, फ़ौजें रखकर तो करता ही है, वह आम जनता को मानसिक रूप से गुलाम बनाकर भी शासन करता रहता है :

कितने ब्राहमण आये

पोथियों में जनता को बांधे हुए

कवियों ने उसकी बहादुरी के गीत गाये

लेखकों ने लेख लिखे

ऐतिहासिकों ने इतिहास के पन्ने भरे

कितने नाटय-कलाकारों ने नाटक रचे

रंगमंच पर खेले ।

जनता पर जादू चला -- राजे के समाज का


समाज के मूलभूत आर्थिक आधार और उसे सहारा देने वाली उपरिसंरचना की यही असलियत हमें मुकितबोध की कविता, अंधेरे में’ के केंद्र में देखने को मिलती है जिसमें रात के अंधेरे में सड़क पर चलने वाले शोषकों के जुलूस में जो शामिल हैं, वे सुपरस्ट्र्क्चर का ही रूप हैं। हिंदी के इन दो महान कवियों की ये कविताएं एक वैज्ञानिक सत्य कहती हैं कि वर्गविभक्त समाज में शोषकवर्ग अपने शोषणपरंपराक्रम को जारी रखने की कोशिश में तरह तरह के खेल खेलता है। पूंजीवाद अपनी इज़ारेदाराना करतूतों से समाज के विशाल हिस्से का शोषण करके उसे इतना ग़रीब बना देता है कि शोषितजन उत्पादन की प्रक्रिया में अलग थलग पड़ जाते हैं और उनके पास कुछ भी ख़रीदने की ताक़त नहीं बच पाती। ऐसे मोड़ पर पूंजीवाद भी भयंकर संकट की चपेट में आ जाता है और तब इजारेदार पूंजीपतिवर्ग शोषित अवाम के सामने फ़ासीवाद का तंत्र पेश करता है इसलिए समाजशास्त्रियों ने फ़ासीवाद की परिभाषा करते हुए यह बताया है कि फ़ासीवाद वित्तीय पूंजी का सबसे घिनौना रूप है। यही घिनौना रूप पिछली सदी के चौथे दशक में भयंकर आर्थिक संकट और मंदी के दौर में विश्वपूंजीवाद ने जर्मनी में हिटलर के रूप में उभारा था जिसने प्रजाति के मिथ्या आधार पर मानवता को बांट कर इस सुंदर धरती को मानवरक्त से रंग डाला था। फ़ासीवाद के घिनौने रूप के प्रतिरोध में उन दिनों दुनिया भर के लेखक, कलाकार, बुद्धिजीवी और संस्कृतिकर्मी संगठित हो कर मानवता को बचाने के अभियान में शामिल ही नहीं हुए, कुछ एक ने तो उनके खि़लाफ़ जंग में हिस्सेदारी करके अपने प्राणों की कुरबानी तक दे दी। भारत के भी कर्इ रचनाकार उस प्रतिरोध में शामिल हुए और उसी से प्रेरणा ले कर उन्होंने प्रगतिशील लेखक संघ के रूप में लेखकों को संगठित करने की अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारी भी निभायी। हम उन महान रचनाकारों की गौरवपूर्ण परंपरा की मशाल भला कैसे बुझ जाने देंगे! इसलिए दुनिया के किसी भी कोने में अगर फ़ासीवाद अपना सिर उठायेगा, तो हम उसके प्रतिरोध में आगे ज़रूर आयेंगे, हमें आगे आना ही चाहिए।

        आज हमारे देश और समाज पर इज़़ारेदार पूंजीपतिवर्ग और बड़े भूस्वामियों के ऐसे गठजोड़ का शासन चल रहा है जो अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी से समझौता करके उसकी बतायी गयी रीतिनीति पर चल रहा है जिसे हम भूमंडलीकरण और उदारीकरण की रीतिनीति के नाम से जानते हैं। इन दोनों नारों का सारतत्व यह है कि उत्पादन के साधनों और वित्तीय संस्थानों पर निजी पूंजी का वर्चस्व हो जाये, जनता की खूनपसीने की कमार्इ से बनाये गये पब्लिक सेक्टर इन्हीं देशी विदेशी इजारेदारों को बेच दिये जायें, राष्ट्रराज्य समाजकल्याण के कामों पर पैसा खर्च न करे। हर सेवा के लिए अवाम पैसा खर्च करे जिससे हर सेवा से निजी पूंजीपतिवर्ग ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफ़ा कमा सके। मेहनतकशों और शोषित समाज को संगठित न होने दिया जाये जहां संगठित हैं, उन पर हमले किये जायें और किसी तरह उन्हें असंगठित क्षेत्र में धकेल दिया जाये। समाज पर राजनीतिक कब्ज़ा किसी पार्टी का हो, नीतियां इज़ारेदार पूंजीपतिवर्ग और उसकी सहयोगी शकित अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी को फ़ायदा पहुंचाने वाली ही रहें अगर आप सांपनाथ से परेशान हो जायें, तो नागनाथ को चुन लें। ये नमो’ नाम के नागनाथ भी उन्हीं इज़ारेदारों के ज़रख़रीद गुलाम हैं जिनकी सेवा में अब तक सांपनाथ लगे रहेअंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी यानी आइ एम एफ़ और विश्वबैंक ने अपने दो जानसेवक - प्रधानमंत्री और योजना आयोग के चेयरमैन - भारत के प्रशासन में दाखि़ाल कराये जिससे साम्राज्यवादी ताक़तों के हितों को कोर्इ नुक़सान न पहुंचे। अभी हाल में रिज़़र्व बैंक के गवर्नर भी उन्हीं शक्तियों ने सप्लार्इ किये हैं वे 2003 से 2006 तक आइ एम एफ़ की सेवा में प्रमुख अर्थशास्त्री के पद पर काम कर चुके हैं।
इन सबकी नीतियों से भारत के ग़रीब और बदहाल हो गयेउनमें एक गुस्सा पनप रहा हैयह गुस्सा आजकल कहीं न कहीं तरह तरह से फट पड़ता है। इस गुस्से को देखते हुए वे ही शक्तियां जो कल तक सांपनाथ के माध्यम से अवाम का खून चूस रही थीं, अब एक नया विकल्प नमो’ नामक नागनाथ के रूप में पेश कर रही हैं सांप्रदायिक फ़़ासीवादी संगठन, आर एस एस का चहेता यह नागनाथ सभी शहरों में जा जा कर फुंकार भर रहा हैवही लफ्फ़ाजी कर रहा है जो दुनियाभर के फ़ासिस्ट करते रहे हैं और जो अपनी रीतिनीति में लोकतंत्रविरोधी कार्रवाइयां करते रहे हैं। वह चिल्ला चिल्ला कर कह रहा है कि सरकार का काम व्यापार करना नहीं, सारा व्यापार, सारे कल कारखाने निजी पूंजीपतियों को दे देंगे जिससे वे मनमाना मुनाफा कमा सकें नेहरू का ‘समाजवाद’ नहीं चलने देंगे। वह प्रधानमंत्री अभी बना नहीं, निजीकरण का ढोल कांग्रेस के मुक़ाबले कहीं ज़्यादा ज़ोर से पीट रहा है। उसने गुजरात के एक उत्सव में देशी विदेशी पूंजीपतियों की ख़ातिरदारी की और उन्हें आश्वस्त किया कि उनका हितसाधन पूरी तरह से यह पूंजीदास करेगा।
     इजारेदार पूंजीपति किस तरह इस सांप्रदायिक फासीवादी नागनाथ को मीडिया पर उभार रहे हैं, यह सत्य किसी से छिपा नहीं है। इंटरनेट की दुनिया में यह छल छिपाया भी नहीं जा सकता। ‘रायटर’ नामक एक विदेशी न्यूज़एजेंसी ने इन नागनाथ की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की घोषणा से पहले ही 7 सितंबर को संजय मिगलानी की एक रिपोर्ट छापी जो इंटरनेट पर भी उपलब्ध है जिसमें कहा गया है कि भारत के तीन चौथार्इ इज़ारेदार पूंजीपति इस भाजपायी नागनाथ को प्रधानमंत्री पद पर आसीन देखना चाहते हैं। इन पूंजीपतियों के इंटरव्यू टीवी चैनलों पर भी आ रहे हैं जो बिना लागलपेट नमो’ नागनाथ के प्रति अपने प्यार का इज़हार करते रहते हैं।
        सांप्रदायिक फ़ासीवाद की विचारधारा का उभार भारत की आज़़ादी के दौर में विकसित मानवीय मूल्यों के विनाश का कारण बन सकता है। भारत की सदियों की साझा संस्कृति के भावी विकास से ही हम एक आधुनिक सभ्य समाज की रचना कर सकते हैं। हमारे इस अभियान को ऐसी ताक़तों से कहीं ज़्यादा ख़तरा है जिनका जनवाद में विश्वास ही नहीं। सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने के इरादे से राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ जगह जगह सांप्रदायिक सदभाव की हत्या करने में अभी से लग गया है। यूपी जैसे हिंदी-उर्दूभाषी क्षेत्र में जहां उनकी सरकार नहीं हैं और जहां पिछले चुनावों में उनको कामयाबी नहीं हासिल हो पायी, यह फ़ासीवादी संगठन पूरी ताक़त से सांप्रदायिक ज़हर फैलाने की कोशिश करने में लग गया है क्योंकि लोकसभा की अस्सी सीटों वाले उत्तर प्रदेश में सफलता हासिल किये बग़़ैर नागनाथ को प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचान मुमकिन नहीं आडवाणी जी वाला ही हाल होना है इसलिए संघ यूपी के अवाम के दिलोदिमाग़ में सांप्रदायिक ज़हर भर कर सत्ता हथियाने की जीजान से कोशिश करने में लग गया है। आज भाजपायी अचानक फिर से धर्मधुरंधर हो उठे हैं, फिर से मंदिर की अचानक याद आ गयी है, राममंदिर के नाम से करोड़ो रुपये डकार जाने के बाद भूली बिसरी बेचारी अयोध्या की याद फिर से आ गयी है उसकी चौरासी कोसी यात्रा के बहाने धार्मिक भावनाओं का दोहन करने की योजना आदि उसी मक़सद के अक्स हैं।
      यह तथ्य किसी से छिपा नहीं कि आर एस एस लोकतंत्रविरोधी संगठन है। उसी का यह सबूत है कि चुनाव से पहले ही किसी व्यक्ति को भारत के भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश कर दिया जाये। यह क़दम भारत के संविधान की धारा 75 का उल्लंघन करता है जिसमें यह लिखा है कि The Prime Minister shall be appointed by the President and the other Ministers shall be appointed by the President on the advice of the Prime Minister.”(Article 75)। भारत का संविधान किसी पार्टी प्रेसिडेंट को यह अनुमति नहीं देता कि वह भारत के प्रधानमंत्री के नाम की घोषणा करे। मगर बेचारा पार्टी प्रेसिडेंट भी क्या करे, वह तो आर एस एस का ज़रखरीद गुलाम है, हुक्मउदूली करता तो मारा जाता। जो संगठन गांधी जी जैसे महान व्यक्ति की हत्या करवा सकता है तो कोर्इ छुटभइया उसकी हुक्मउदूली करने की जुर्रत कैसे कर सकता हैक्या कोर्इ संगठन इतना कूढ़मग़ज़ हो सकता है जो यह नहीं जानता कि भारत का प्रधानमंत्री बनाने के लिए पहले तो सांसद चाहिए, तो पहले लोकसभा की सारी सीटों के सांसद घोषित करने चाहिए थे, तो भी कुछ तर्कसंगत लग सकता था। उससे पहले एक मैनीफ़ैस्टो पेश करते। मगर ऐसा कुछ भी नहीं। यह सब करते तो सीटों को ले कर जूते चलने लगते फिर मैनीफैस्टो से उन आर्थिक नीतियों का पर्दाफ़ाश हो जाता जो सांपनाथ की भी हैं। इसलिए एक अदद चेहरा पेश कर दिया जिसे चैनलों ने और अख़बारों ने ताजपोशी’ नाम दिया जैसे कि भारत एक सामंती देश है। 15 अगस्त को नागनाथ ने नक़ली लाल कि़ले से बोलने का स्वांग किया खूब हुंकार फुंकार की। एक दिन कहीं द्वारकाधीश कृष्ण की तरह की पोशाक पहन कर हाथ में नकली चक्र थामे हुए उसे टी वी पर सामंती स्वांग करता हुआ दिखाया गया। सब कुछ उल्टा पुल्टा इसीलिए हो रहा है क्योंकि सांप्रदायिक फ़ासीवाद की लोकतांत्रिक प्रक्रिया में कोर्इ आस्था नहीं। इससे जुड़े सांसद झूठमूठ ही संविधान में आस्था की क़सम खाते हैं। झूठहि लेना झूठहि देना / झूठहि भोजन झूठ चबेना।।‘
    गुजरात के विकास की कहानी भी झूठ पर आधारित है। गुजरात उन्नीसवीं सदी से ही पूंजीवादी विकास की ज़द में आ गया था। इसलिए नमो’ नामक नागनाथ ने ऐसा कोर्इ चमत्कार नहीं कर दिया जिसका ढोल पीटा जा रहा है। वह विकास कर्इ अन्य राज्यों की तुलना में इस समय भी ज्यादा नहीं है। नीचे की तालिका से यह साफ हो जायेगा कि किस तरह जनता के सामने झूठ पर झूठ परोसा जा रहा है:
                         Year-wise List of Top Ten States with GDP Shares (in Rs Crore)

State/UT        1999-2000   2001-2002           2003-2004   2005-2006       2007-2008   2009-2010       2010-2011
Maharashtra    2,47,830         2,73,188                3,40,600      4,83,222          6,79,004      9,01,330          10,29,621
Uttar Pradesh   1,75,159         1,90,269                2,26,972      2,91,936          3,79,917      5,19,899          5,95,055
Andhra Pradesh  1,28,797         1,56,711                1,90,017      2,55,941          3,64,813      4,75,267          5,88,963
Tamil Nadu     1,34,185         1,48,861                1,75,371      2,57,730          3,50,785      4,64,009          5,47,267
Gujarat          1,09,861       1,23,573                1,68,080      2,44,736          3,29,285      4,29,356          5,13,173
West Bengal     1,35,376         1,57,144                1,89,259      2,30,639          2,98,566      4,00,561          4,73,890
Karnataka       1,01,247        1,12,847                1,30,990      1,95,750          2,70,843      3,35,747          4,05,123
Rajasthan         82720        91771          1,11,606      1,42,236          1,94,822      2,55,440          3,23,682
Kerala           69168            7924              96698      1,36,842          1,75,141     2,30,316          2,76,997
Delhi             55220       65027            79468      1,15,374          1,57,947      2,17,851          2,64,496

इस तालिका से ज़ाहिर है कि गुजरात का नाम पांचवे स्थान पर है अन्य चार राज्य कहीं आगे हैं। इसी तरह तीन बार चुनाव जीत जाने से कोर्इ चमत्कारी इंसान नहीं बन जाता। शीला दीक्षित ने भी तीन बार चुनावा जीता, प. बंगाल के वाममोर्चे ने तो रिकार्ड ही क़ायम कर दिया, त्रिपुरा की भी यही स्थिति है जहां पहले के मुक़ाबले इस बार वाममोर्चे को ज़्यादा सीटें हासिल हुर्इं, जब कि गुजरात में पहले नमो’ ने 117 सीटें हासिल की थीं उसके बाद के चुनाव में दो सीटें कम हो गयीं, इसे उसकी अपने ही राज्य में घटती लोकप्रियता का ही सबूत कहेंगे।  विविधता में एकता’ वाले भारत देश के हर कोने में कोर्इ सांप्रदायिक फ़ासीवादी अभी से लोकप्रिय होने का दावा करे तो यह हास्यास्पद ही होगा।
        भारत की साझा संस्कृति में यक़ीन रखने वाले और लोकतांत्रिक जनवादी मूल्यों के विकास के लिए प्रतिश्रुत सभी रचनाकारों और संस्कृतिकर्मियों का आज के दौर में यह सामाजिक दायित्व है कि वे सांप्रदायिक फ़ासीवाद के मंसूबों को समझते हुए इज़ारेदार पूंजीपतियों और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय पूंजी के द्वारा भारत पर थोपे जा रहे नमो’ नागनाथ के हाथ भारत की राजनीतिक सत्ता सौंप देने की चालों को नाकाम करने में अपने आलोचनात्मक विवेक का पूरा प्रयोग करें और अपने प्रतिरोध की आवाज़ सभी संभव मंचों व माध्यमों से जन जन तक पहुंचायें इसी प्रक्रिया में अधिक से अधिक रचनाकारों को आज संगठित होने की भी ज़रूरत है जिससे यह अभियान एक संगठित ताक़त बन सके।
अंत में, एक रचनाकार की इस चिंता को व्यक्त करती हुर्इ असद ज़ै़दी की इस कविता में हम सभी खुद को शरीक करें :

            आम चुनाव
            असद ज़ैदी

आम चुनाव में मतदान के रोज़

अपनी बारी के इंतज़ार में खड़े मोहन भाई

किसी और युग में भटकने लगे



वहीदा रहमानी

कुसुमलता माथुर

एक वी गौरी देवी

सुमित्रा भट्ट

इनमें चुनाव का सवाल ही क्या

दिल तो इन सबसे लगाया ही था



एक तपस्वी की तरह

कोई इस इतिहास को तो बदल नहीं सकता

गर इनमें किसी से रू.ब.रू कुछ कह न सके

तो अपने ही स्वभाव का दोष था

और इस बात का अफ़सोस भी क्या करना

एक भी औरत अब इस शहर में नहीं

कहां हैं वे सब, जानने की कोशिश ही न की



ऐ भली औरतो ऐ सुखी औरतो

तुम जहां भी हो

अगर वोट डालने निकल ही पड़ी हो

तो कहीं भूल के भी न लगा देना

उस फूल पर निशान ।

---सामान की तलाश, पृष्ठ 37-38, परिकल्पना प्रकाशन 2008